नाच्चियार् तिरुमोऴि – सरल व्याख्या

श्रीः श्रीमतेशठकोपाय नमः श्रीमतेरामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

मुदलायिरम्

श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने श्रीगोदाजी की महानता को उपदेस रत्तिन मालै ग्रन्थ के २४ वे पाशुर मे सुन्दर्तापूर्वक उल्लेखित करते हैं।

अञ्जु कुडिक्कु ओरु चन्ददियाय् आऴ्वार्गळ्
तम् चेयलै विञ्जि निऱ्कुम तन्मैयळाय्- पिञ्जाय्प्
प​ऴुत्ताळै आण्डाळैप् पत्तियुडन् नाळुम्
व​ऴुत्ताय् मनमे मगिऴ्न्दु

आऴ्वारों के कुल में श्रीगोदाजी (आण्डाळ्) एक ही उत्तराधिकारी बनकर अवतरित हुईं। “अञ्जु” शब्द का अर्थ ​”पाँच” और “भय” है। प्रथम व्याख्या है कि जैसे राजा परीक्षित पाण्डवों के उत्तराधिकारी थे वैसे ही, आऴ्वारों के कुल के उत्तराधिकारी श्रीगोदाजी बनीं। दूसरी व्याख्या यह अर्थ लाती है कि, भगवान को कुछ विपत्ति न आ जाए इस विचार से सदैव भयभीत होकर रहने वाले आऴ्वारों के उस कुल के उत्तराधिकारी आण्डाळ् । श्रीविष्णुचित्त (पेरियाऴ्वार्) स्वामी सर्वदा भगवान की मङ्गळाशासन (मङ्गल कामना) करने में ही व्यस्त रहते थे जबकि अन्य आऴ्वारें भगवान से परमभक्ति (यह एक स्थिति है जहाँ वे सब भगवान की अनुपस्थिति सेह नहीं पाते) में व्यस्त थे । श्रीगोदाजी, श्रीविष्णुचित्तन स्वामी की तरह मङ्गळाशासन भी करतीं और अन्य आऴ्वारों की तरह इनकी भक्ति भी गहरी थी। “पिञ्जाय्प् प​ऴुत्ताळ् ” यह शब्द, एक व्यक्ति जो बहु कम आयु में ही परिपक्व हो जाता है उसे उल्लेख करता है। सामान्य रूप से, पौधे क्रमशः फूल उत्पत्ति करते हैं जो कच्चे फल होकर पके फल बनते हैं। परंतु तुलसी का पौधा जब जमीन से अंकुरित होते ही‌ अपनी सुगंध देने लगता है। श्रीगोदाजी भी इसी तरह थीं। बहुत कम आयु में ही वे भक्ति में भिगोइ हुई थीं। उन्होंने तिरुप्पावै के तीस पासुर की रचना पाँच साल की आयु में की थी। नाच्चियार् तिरुमोऴि प्रबन्ध श्रीगोदाजी ने भगवान को पाने के लिए द्रवित होकर रचना की है। हे मेरे मन! ऐसी गोदाजी का सदैव गुणगान करना।

भगवान ही उपाय और उपेय हैं यह तिरुप्पावै में निरूपण करने के बाद भी भगवान आण्डाळ् को स्वीकार करने नहीं आए। श्रीगोदाजी बहुत निराश होकर, भगवान को पाने की अनियंत्रित इच्छा की स्थिति में “नाच्चियार् तिरुमोऴि” नामक अद्भुत प्रबन्ध की रचना की।

हर एक पदिगम् (दस-दस पासुरों का समूह) के अंत में वे अपने आप को ‘विट्टुचित्तन् कोदै’ और ‘भट्टर्पिरान् कोदै’ (श्रीविष्णुचित्त स्वामी की सुपुत्री) अर्थात स्वयं अपने पिता तथा आचार्य श्रीविष्णुचित्त स्वामी की दासी होने का कहकर ही परिचय देती हैं। श्रीगोदाजी अपने आचार्य निष्ठा को प्रकाशित करके यह कह रही हैं कि वे जब भगवान को स्वागत करेंगी तब भगवान उन्हें श्रीविष्णुचित्त स्वामी के सुपुत्री के रूप से स्वीकार करेंगे। श्रीगोदाजी स्वयं भूमिपिराट्टि (भूमिदेवि) के अवतार हैं, वे स्वयं भगवान और उनके बीच की अद्भुत संबंध को प्रदर्शित करते हुए हमें भी उस भक्ति भाव से बाँधकर रखती हैं।

यह सरल विवरण श्रीपेरियवाच्चान् पिळ्ळै स्वामीजी के व्याख्या और पुत्तूर श्रीकृष्णस्वामि के अर्थ विवरण के आधार पर लिखित है।

  • तनियन्
  • पहला तिरुमोऴि – तैयोरु तिङ्गळ्
  • दूसरा तिरुमोऴि – नामम् आयिरम्
  • तीसरा तिरुमोऴि – कोऴि अऴैप्पदन्
  • चौथा तिरुमोऴि – तेळ्ळियार् पलर्
  • पाँचवा तिरुमोऴि – मन्नु पेरुम् पुगऴ्
  • छठवां तिरुमोऴि – वारणम् आयिरम्
  • सातवां तिरुमोऴि – कऱ्पूरम् नारुमो
  • आठवां तिरुमोऴि – विण्णील मेलाप्पु
  • नौंवा तिरुमोऴि – सिन्दूरच् चेम्पोडि
  • दसवां तिरुमोऴि – कार्क्कोडल् पूक्काऴ्
  • ग्यारहवां तिरुमोऴि – तामुगक्कुम्
  • बारहवां तिरुमोऴि – मट्रिरुन्दीर्गट्कु
  • तेरहवां तिरुमोऴि – कण्णन् एन्नुम्
  • चौदहवां तिरुमोऴि – पट्टि मेय्न्दु

अडियेन् वैष्णवी रामानुज दासी

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