नाच्चियार् तिरुमोऴि – सरल व्याख्या – ग्यारहवां दशक – ताम् उगक्कुम्

श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद् वरवरमुनये नमः श्री वानाचल महामुनये नमः

नाच्चियार् तिरुमोऴि

<< दसवां तिरुमोऴि

भगवान कभी अपना वचन नहीं त्यागेंगे; वे सदा हमारी रक्षा करेंगे। गोदा देवी (आण्डाळ्) दृढ़ थी कि यदि यह भी असफल होने पर भी वे हमें इसलिए शरण देंगे क्योंकि हम श्रीविष्णुचित्त (पेरियाऴ्वार्) की दिव्य पुत्री हैं। इसके बाद भी वे न आने पर, वह भगवान का स्मरण दिलाने वाले भिन्न पदार्थों से पीड़ित हो रही थी, जैसे भीष्म पितामह अर्जुन के बाणों से मारे जाकर सरशैय्या पर लेटे पीड़ित हो रहे थे। इस स्थिति में देख सारी माताएँ, बन्धु और‌अन्य सब वहाँ आ ग‌ए। वह उनसे दुःखी होकर बोली, “मैं उसके आने की आशा में अटल थी; मेरी स्थिति इस दशा हो गई है; इस अवस्था में भी वह नहीं आया; उसका स्वभाव तो देखिए।” इसके बाद स्वयं को सांत्वना देते हुए वह कहती है, “पहले भी उसने मेरे जैसी कई देवियों (पिराट्टियों) की सहायता की है। वह मुझे भी स्वीकारेगा”, और स्वयं को टिकाए रखती है। 

पहला पासुरम्। आण्डाळ् उन माताओं को भगवान से यह पूछने को कहती है कि इसके प्रश्न, “इस दुखद परिस्थिति में भी तुम आकर‌ सहायता क्यों नहीं कर रहे हो?” का उसके पास कोई उत्तर है। न उसमें कोई कमी है; न मुझमें कोई कमी है; तब भी वह क्यों नहीं आ रहा है? 

ताम् उगक्कुम् तम् कैयिल् सङ्गमे पोलवो
याम् उगक्कुम् ऎम् कैयिल् सङ्गमुम् एन्दिऴैयीर्!
ती मुगत्तु नागणै मेल् सेरुम् तिरुवरङ्गर् 
आ! मुगत्तै नोक्कारेल् अम्मने! अम्मने! 

स्वयं को आभूषणों से सुसज्जित, हे लड़कियाँ! मेरे हाथों में मैंने प्रफुल्लित होकर पहने हुई चूड़ियाँ क्या उसके दिव्य हाथ में उसने आनंद से पकड़े पाञ्चजन्य शंख के साथ नहीं जचेंगी? 

दूसरा पासुरम्। वह अपनी माताओं को अपनी परिस्थिति से अवगत कराती है जबकि उनसे उसे इस बात को छिपाना चाहिए था।

ऎऴिल् उडैय अम्मनैमीर! ऎन्नरङ्गत्तु इन्नमुदर् 
कुऴलऴगर् वायऴगर् कण्णऴगर् कॊप्पूऴि‌ल् 
ऎऴुक्कमलप् पूवऴगर् ऎम्मानार् ऎन्नुडैय 
कऴल् वळैयैत् तामुम् कऴल् वळैये आक्किनरे 

हे सुंदर माताएँ! उसने कृपापूर्वक श्रीरङ्गम् में निवास स्थान लिया है मेरे मधुर रस के रूप में, जिनके सुंदर दिव्य केश है, सुंदर दिव्य ओष्ठ हैं, सुंदर दिव्य नयन हैं, जिनके दिव्य नाभि से दिव्य कमल आने के कारण दिव्य सौंदर्य प्राप्त कर लिया। वह जो मेरा स्वामी है, सुंदरजामातृ (अऴगिय मणवाळन्/श्रीरङ्गनाथ जी के उत्सव विग्रह) ने मेरी न निकलने वाली चूड़ियों को निकलने वाली चूड़ियों में बदल दिया। 

तीसरा पासुरम्। उन्होंने उससे कहा, “वह केवल तुम पर स्नेह के भाव से तुम्हारी चूड़ियाँ ले गया। उसकी संपत्ति में चूड़ियों का अभाव के कारण ही उसने तुम्हारी चूड़ियाँ ली और पूर्ण बन गया।” इस पर आण्डाळ् उत्तर देते हुए कहती है, “यह असत्य है। क्या उन चूड़ियों के बिना पहले वह पीड़ित था और क्या उन्हें पाने के पश्चात वह आनंदित हो उठा? ऐसी कोई बात नहीं है।” उसे घृणा आती है यह कहने पर कि उसने ये सब कार्य केवल इसे सताने के लिए किया है। 

पॊङ्गोदम् सूऴ्न्द भुवनियुम् विण्णुलगुम् 
अङ्गादुम् सोऱामे आळ्गिन्ऱ ऎम्पॆरुमान् 
सॆङ्गोल् उडैय तिरुवरङ्गच् चॆल्वनार् 
ऎङ्गोल् वळैयाल् इडर् तीर्वर् आगादे?

लहरों से चंचल समुद्र से घिरे हुए इस लीला विभुति और त्रिपाद विभुति परमपद दोनों पर बिना त्रुटी के, इनके स्वामी होने के कारण राज कर‌ रहा है। वह तो श्रीरङ्गम्, जिसे “कोयिल्” नाम से भी जाना जाता है, वहाँ लेटे हुए, अपनी राज-दंड से राज्यभार उठाने योग्य है। क्या वह श्रीमान मेरी चूड़ियों से अपनी हीनता पूरी करेंगे?

चौथा पासुरम्। जब पूछा गया, “भगवान तुम पर स्नेह करने के कारण। क्या तुम्हें इस‌ पर प्रसन्न नहीं होना चाहिए?” तो वह कहती है, “यदि उसने मेरी चूड़ियाँ अपने आप‌ को संभालने के लिए लीं, तो क्या वह एक बार इस सड़क से नहीं हो सकता था, जहाँ मेरा भवन है?” 

मच्चणि माड मदिळ् अरङ्ग वामननार् 
पच्चै पसुम् देवर् तान् पण्डु नीरेट्र
पिच्चैक् कुरैयागि ऎन्नुडैय पॆय्वळै मेल् 
इच्चै उडैयरेल् इत् तॆरुवे पोदारे?

भगवान श्रीरंगनाथ पेरिय पेरुमाळ् ने प्रथम वामनावतार लेकर कृपापूर्वक  सुसज्जित भवनों और परकोटों वाले श्रीरंगम दिव्यदेश में विराजमान हुए।जब उन्होंने महाबली से भिक्षा ली तो उसमें कुछ कमी रह गई होगी तो उस कमी को पूर्ण करने के लिए मेरी चूड़ी को प्राप्त करने हेतु किसी वीथी से क्यों नहीं निकलते हो?

पांचवां पासुर-वह कहती हैं कि वे केवल चूड़ियां ही नहीं उनका रंग-रूप भी चुराना चाहते हैं।

पॊल्लाक् कुऱळ् उरुवाय् पोऱ्-कैयिल् नीरेट्रु
ऎल्ला उलगुम् अळन्द कोण्ड एम्पेरुमान् 
नल्लार्गळ् वाऴुम् नळिर् अरङ्ग नागणैयान्
इल्लादोम् कैप्पोरुळुम् एय्दुवान् ओत्तुळाने

वामनावतार में आने वाले वे अति विलक्षण स्वामी (एम्पेरुमान्) हैं जिन्होंने अपने हस्त में जल लेकर (भिक्षा स्वीकृति के प्रतीकात्मक)और पूर्ण संसार को अपने अधीन करने हेतु नाप लिया।वे पेरिय पेरुमाळ् हैं जो शीतल श्रीरंगम में तिरुवन्दाऴ्वान् शीतल शेषशैय्या पर विराजमान भगवान मुझे तुच्छ का सर्वस्व अपहरण करने के इच्छुक प्रतीत होते हैं।

छठा पासुर-वह कहती हैं कि जैसी एम्पेरुमान् ( भगवान)की इच्छा थी वैसे ही उन्होंने उसका सर्वस्व चुरा लिया।

कैप्पोरुळ्गळ् मुन्ने कैक्कोण्डार् काविरि नीर्
सॆय्प्पुरळ ओडुम् तिरुवरङ्गच् चॆल्वनार् 
ऎप्पोरुट्कुम् निन्ऱाक्कुम् ऎय्दादु नान्मऱैयिन्
सोऱपोरुळाय् निन्ऱार् ऎन् मेय्प्पोरुळुम् कोण्डारे

एम्पेरुमान् (भगवान) ने कृपापूर्वक तिरुवरंगम्(श्रीरंगम दिव्यदेश) में श्रीमान्(श्रिय:पति श्रीमहालक्ष्मी को अपनी सम्पत्ति रुरूप में धारण करने वाले) विराजमान हैं जो काविरी से परिवृत श्रीरंगम क्षेत्र है।वे सर्वांतर्यामी,सर्व दुर्लभ हैं ,वे पेरिय पेरुमाळ् जोचारों वेदों के परमतात्पर्य हैं उन्होंने सर्वस्व चुराने के पश्चात् अब आप मेरे इस शरीर को भी प्राप्त कर लिया है।

सातवां पासुर-वह कहतीं हैं कि उन्होंने उनके प्रति वैसा प्रेम नहीं दिखाया जैसे सीता पिराट्टि के प्रति दिखाया था।

उण्णादु उऱंगादु ओलि कडलै ऊडऱुत्तु
पेण्णाक्कै आप्पुण्डु ताम्र उट्र पोदेल्लाम्
तिण्णार् मदिळ् सूऴ् तिरुवरङ्गच् चॆल्वनार्
ऎण्णदे तम्मुडैय नम्मैगळे एण्णुवरे

 श्रिय:पति एम्पेरुमान् (भगवान) सुदृढ़ प्राकार से परिवेष्टित  श्रीरंगम दिव्यदेश में विराजमान श्रीरामावतार समय में सीता नामक स्त्रीरत्न के दिव्य शरीर को प्राप्त करने हेतु आहार व निद्रा त्यागकर समुद्र में पुल बांधने के अतिमानस कृत्य को सम्पन्न किया।अपने पूर्व वृत्तान्त को भूलकर केवल पर्व को महानता देते हुए गर्व से मेरी उपेक्षा कर रहे हैं।

आठवां पासुर-वह भगवान के कल्याण गुणों को स्मरण करके अपना जीवन यापन कर सकती है ऐसा कहने पर वह कहती हैं कि,” मैं भगवान को विस्मृत करने के प्रयास मात्र में भी असमर्थ हूं”।

पासी तुर्त्तुक् किडन्द पार्मगट्कु पण्डोरु नाळ्
मासुडम्बिल् नीर् वारा मानमिलाप् पन्ऱियाम्
तेसुडैय तेवर् तिरुवरङ्गच् चॆल्वनार्
पेसि इरुप्पङ्गळ् पेर्क्कवुम् पेरावे

अति विलक्षण श्रीरंगनाथ स्वामी ने आदिकाल में प्रलयार्णव में बहुत समय तक भूदेवी के डूबे रहने विकृति को प्राप्त होने से, उद्धार हेतु पंक व जल बहने से अतिमलिन शरीर को धारण कर लज्जा त्यागकर वराह रूप में अनुगृहीत किया,वे अभय वचन किसी भी प्रकार भूला नहीं जा सकता।

नौवां पासुर-वह भगवान के शुभ वचनों का ध्यान कर अपना जीवन यापन करने लगी कि रुक्मिणी पिराट्टि की सहायता  हेतु जो वचन कहे थे वे सभी स्त्रियों के लिए हैं भगवान ने अर्जुन जो शुभवचन कहे(मा शुच: अर्थात् शोक मत करो)वे सभी के लिए हैं जो शरणागत हैं।

कण्णालम् कोडित्तुक् कन्नि तन्नैक् कैप्पिडिप्पान्
तिण्णार्न्दिरुन्दु सिसुपालन् तेसऴिन्दु
अण्णान्दिरुक्कवे आङ्गवळैक् कैप्पडित्तु
पेण्णाळन् पेणुम् ऊर् पेरुम् अरङ्गमे

रुक्मिणीप्पिराट्टि से विवाह करने के सुदृढ़ विश्वास रखने वाला शिशुपाल निस्तेज होने पर असहाय हो आकाश की ओर देख रहा था तब भगवान ने कृपावश रुक्मिणीप्पिराट्टि का हस्त पकड़कर विवाह किया और सभी स्त्रियों के शरणागत वत्सल भगवान का निजधाम सादर परिगृहीत दिव्य देश श्रीरंगम है।

दसवां पासुर-उनके पेरियाऴ्वार की पुत्री होने पर भी भगवान ने स्वीकार नहीं किया यह सोचते हुए योजना बनाती है कि वह ओर क्या करें कि भगवान की प्राप्ति हो।

सेम्मै उडैय तिरुवरङ्गर् ताम् पित्त
मेय्म्मैप् पेरुवार्त्तै विट्टुचित्तर् केट्टु इरुप्पर्
तम्मै उगप्पारैत् ताम् उगक्कुम् ऎन्नुम् सोल्
तम्मिडैये पोय्यानाल् सादिप्पार् आरिनिये

तिरुवरंगनाथन् (श्रीरंगनाथ स्वामी)जो आर्जवगुणनिधि हैं ने श्रीकृष्णावतार के समय अर्जुन को कृपापूर्वक सत्यार्थ ,अमूल्य परम वचन चरम श्लोक जिन पर पेरियाऴ्वार् आत्मसात कर मुक्ति को प्राप्त किए होंगे,आपसे अनुगृहीत आश्वासन रूपी ,”जो मुझसे प्रेम करेगा उसे मैं भी प्रेम करुंगा”।यदि यह मिथ्या हो जाता है तो कौन आपके अधीन होगा?

अडियेन् अमिता रामानुज दासी 

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