श्रीः श्रीमतेशठकोपाय नमः श्रीमतेरामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
जहाँ सीता पिराट्टि को भगवान के अनुभवों के बारे में वहाँ आए हुए हनुमान से पूछकर जानना पड़ा, इसके विपरित, आण्डाळ् (गोदाम्बा) को यह सौभाग्य प्राप्त है कि वह भगवान के अनुभवों के विषय में स्वयं उनके अंतरंग सेवक पाञ्चजन्य शंख से पूछकर जान सकती है, जो कि एक आचार्य जैसे भगवान के अनुभवों को दर्शाता है। कदाचित आण्डाळ् के स्वप्न के अंत में भगवान से संयोग हुआ होगा। इसी कारण आणडाळ् भगवान के दिव्य अधरामृत के स्मरण में सङ्गत्ताऴ्वान् (पाञ्चजन्य शंख) से उसके बारे में पूछ रही है। भगवान के अधरों के रसामृत के बारे में जानने के कारण हैं:
- जिस प्रकार एक रानी के अंतरंग कक्ष के कुब्ज और वामन लोग केवल राजा और रानी के सुख के लिए जीते हैं, उसी प्रकार यह दिव्य पाञ्चजन्य शंख सदैव भगवान के साथ उपस्थित रहता है, गोपनीय समय में भी बिना उन से अलग हुए।
- जब भी एम्पेरुमान् अपने दिव्य अधरों में रखकर शंखनाद करते हैं, तब शंख निरंतर भगवान के अधरामृत का सेवन करता है।
- यह दिव्य शंख सदैव भगवान के संग रहता है, बिना अलग हुए। दूसरे शब्दों में, एम्पेरुमान् अपने दिव्य चक्र से शत्रुओं का नाश करते समय चक्र [अल्प काल के लिए] भगवान से अलग होता है। परंतु उनका दिव्य शंख कभी भी भगवान से अलग नहीं होता।
- इसके अलावा, क्योंकि यह दिव्य शंख शुभ्र है और भगवान श्रीमन्नारायण का दिव्य रूप कृष्ण है, इनका एक साथ दृश्य करना अनुभव के योग्य है।
इन कारणों को देखकर, शंख से बातें करना या पूछताछ करना, स्वयं भगवान से वार्तालाप या पूछताछ करने के समान है यह जानते हुए, गोदाम्बा दिव्य शंख से पूछताछ कर रही है।
पहला पासुरम्। आण्डाळ् दिव्य शंख से कहती है कि निरंतर भगवान के अधरामृत का अनुभव लेने के कारण तुम्हें उसका रस का ज्ञान होगा। वह पूछ रही है कि क्या वह उस रस के बारे में इसके पास प्रकट करेगा।
करुप्पूरम् नाऱुमो कमलप्पू नाऱुमो
तिरूप्पवळच् चॆव्वाय्दान् तित्तितिरुक्कुमो?
मरुप्पॊसित्त मादवन् तन् वाय्च् चुवैयुम् नाट्रमुम्
विरुप्पुट्रुक्केट्किन्ऱेन् सॊल्लाऴि वॆण्सङ्गे!
हे पाञ्चजन्याऴ्वान् (पाञ्चजन्य शंख) जो बड़े गंभीर से श्वेत रंग का है! मैं बड़ी इच्छा से तुम से कृष्ण जिसने कुवलयापीड हाथी के दन्त को तोड़ा, उसके अधर के रस और सुगंध के बारे में पूछती हूँ। क्या मूँगे के भांति रक्तवर्ण अधरों के सुगंध भीमसेनी कपूर (खाया जानेवाले, सुगंधित कपूर) के जैसे है? या उसके सुगंध कमल पुष्प जैसे है? क्या वे बहुत मधुर हैं? तुम्हें मुझसे कहना ही होगा।
दूसरा पासुरम्। जिस प्रकार दुष्टों को दंडित किया जाता है, भक्तों का पालन करना आवश्यक है। वह दिव्य शंख से कहती है कि जिस प्रकार उसका [शंख] जन्म और बड़ा होना केवल दूसरों के लिए हुआ है, उसी प्रकार उसके गतिविधियाँ भी होनी चाहिए।
कडलिल् पिऱन्दु करुदादु पञ्चसनन्
उडलिल् वळर्न्दु पोय् ऊऴियान् कैत्तलत्
तिडरिल् कुडियेऱित् तीय असुरर्
नडलैप् पडै मुऴङ्गुम् तोट्रत्ताय् नऱ्-चङ्गे
हे सुंदर पाञ्चजन्याऴ्वान्! तुम गहरे समुन्दर में पञ्चसनन् नामक दानव के शरीर में जन्म लेकर वहीं बड़े हुए हो। बिना इस बात को महत्त्व दिए तुमने अत्यंत उचित स्थान अर्थात भगवान के दिव्य हस्त में प्रवेश किया। तुम में दानवों को निराश करने योग्य शंखनाद करने की महानता है। इसलिए तुम्हें मेरे लिए यह उपकार करना होगा।
तीसरा पासुरम्। वह सङ्गत्ताऴ्वान् के सौंदर्य का अनुभव ले रही है।
तडवरैयिन् मीदे सरऱ्-काल चन्दिरन्
इडैयुवाविल् वन्दु ऎऴुन्दाले पोल् नीयुम्
वड मदुरैयार् मन्नन् वासुदेवन् कैयिल्
कुडैयेऱि वीट्रिरुन्दाय् कोलप् पेरुम् सङ्गे
हे सुंदर, बड़े पाञ्चजन्याऴ्वान्! जिस प्रकार शरद पूर्णिमा की रात में चन्द्र ऊंचे पहाड़ों के ऊपर उठकर आता है, उस प्रकार तुम उत्तर मथुरा के राजा वासुदेव के दिव्य हाथ में निवास करते हो, जैसे कि तुम्हारी पूरी महानता प्रकट हो।
चौथा पासुरम्। आणडाळ् उससे कहती है, जो गोपनीय विषय पर बात करने की क्षमता रखता है, कि वह भगवान से बात करे।
चन्दिर मण्डळम् पोल् दामोदरन् कैयिल्
अन्दरम् ऒन्ऱिन्ऱि एऱि अवन् सॆवियिल्
मन्दिरम् कॊळ्वाये पोलुम् वलम्पुरिये!
इन्दरनुम् उन्नोडु सॆल्वत्तुक्कु एलाने
हे शंख जो दाएँ ओर से घुंघराला है! तुम दामोदर भगवान के दिव्य हाथों में निरंतर रहते हो चंद्र मण्डल की भाँति, जैसे कोई गोपनीय बातें कर रहे हों। स्वयं इन्द्र भी जो धनवान है, दासत्व की संपत्ति में उसकी तुम से तुलना नहीं की जा सकती।
पाँचवा पासुरम्। वह दिव्य शंख से कहती है कि अन्य शंख इसके समान नहीं हो सकते क्योंकि यह तो सर्वदा भगवान के अधरामृत का सेवन करते रहता है।
उन्नोडु उड़ने ऒरु कडलिल् वाऴ्वारै
इन्नार् इनैयार् ऎन्ऱु ऎण्णुवार् इल्लै काण्
मन्नागि निन्ऱ मधुसूदन् वाय् अमुदम्
पन्नाळुम् उण्गिन्ऱाय् पाञ्चसन्नियमे!
हे पाञ्चजन्याऴ्वान्! तुम्हारे साथ समुद्र में रहने वाले अन्य शंखों का कोई भी सम्मान नहीं दे रहे हैं। केवल तुम ही एकमात्र ऐसे हो जो लंबे समय से भगवान के अधरामृत का सेवन किए आ रहा है। इसलिए केवल तुम ही भाग्यवान हो।
छठा पाशुरम्। वह कह रही है कि यही केवल भाग्यवान हैं जो भगवान के अधर के दिव्य जल से स्नान करता है।
पोय्त् तीर्त्तम् आडादे निन्ऱ पुणर् मरुदम्
साय्त्तीर्त्तान् कैत्तलत्ते एऱिक् कुडिकॊण्डु
सेय्त्तीर्त्तमाय् निन्ऱ सॆन्गण्माल् तन्नुडैय
वाय्त्तीर्त्तम् पाय्न्दाड वल्लाय् वलम्पुरिये!
हे शंख जो दाएँ ओर से घुंघराला है! तुम्हें दूर चलकर गंगा आदि जैसे पुण्य नदियों में स्नान करने [अपने आप को पवित्र कराने] कि कोई आवश्यकता नहीं है। इसके बदले, तुम कृष्ण के दिव्य हाथ में चढ़ गए, जिसने नारद मुनि के श्राप से वृक्ष बनकर खड़े दो वृक्षों [जिनमें दो दानव व्यापित थे] को उखाड़ दिया। तुम्हारे पास सर्वेश्वर, जिनके नेत्र लाल हैं [भक्तों के प्रति प्रेम से], के दिव्य मुख के अन्दर स्थित होने का भाग्य है, और तुम सर्वदा वहीं स्नान करते हो।
सातवां पासुरम्। वह श्री पाञ्चजन्याऴ्वान् के सौभाग्य की स्तुति करती है, जो भगवान के हाथ में लेटा है।
सॆङ्गमल नण्मलर् मेल् तेनुगरम् अन्नम् पोल्
सॆङ्गण् करुमेनि वासुदेवनुडैय
अङ्गैत् तलम् एऱि अन्नवसम् सॆय्युम्
सङ्गरैया! उन् सॆल्वम् साल अऴगियदे
एक नव उत्फुल्लित कमल पुष्प में निवास करते हुए उसके मधु का सेवन करने वाले हंस के जैसे, तुम ने कृष्ण भगवान, जिनके लाल नेत्र हैं और काला रूप है, के सुंदर हाथ में चढ़ लिया है, और वहीं लेटे हो। हे पाञ्चजन्य जो शंखों का अधिपति है! तुम्हारी दासत्व की सम्पदा पूर्णतः श्रेष्ठ है।
आठवां पासुरम्। वह उस क्रोध का उल्लेख कर रही है जो सारी लड़कियाँ श्री पाञ्चजन्याऴ्वान् के प्रति रखती हैं।
उण्बदन् सॊल्लिल् उलगळन्दान् वाय् अमुदम्
कण् पडै कॊळ्ळिल् कडल् वण्णन् कैत्तलत्ते
पॆण् पडैयार् उन् मेल् पॆरुम् पूसल् साट्रुगिन्ऱार्
पण् पल सॆय्गिन्ऱाय् पाञ्चसन्नियमे!
हे पाञ्चजन्य! तुम जो सेवन करते हो वह है भगवान का दिव्य अधरामृत, जिन्होंने सारे लोकों को नापा था! तुम जहाँ सोते हो वह स्थान है समुद्र के रंग के भगवान के दिव्य हाथ! क्योंकि तुम ऐसे हो, सारी लड़कियाँ तुम्हारे बारे में बड़ी चीत्कार कर रही हैं। हम सब को छोड़कर तुम बड़ा अन्याय कार्य कर रहे हो। क्या यह सही है?
नौंवा पासुरम्। पिछले पासुरम् के जैसे इसमें भी वह कहती हैं कि कैसे सारी लड़कियाँ श्री पाञ्चजन्यम् से क्रोधित हैं।
पदिनाऱाम् आयिरवर् देविमार् पार्त्तिरुप्प
मदु वायिल् कॊण्डार्पोल् मादवन् तन् वाय् अमुदम्
पॊदुवाग उण्बदनैप् पुक्कु नी उण्डक्काल्
सिदैयारो उन्नोडु? सॆल्वप् पॆरुम् सङ्गे
हे पाञ्चजन्य जिसके पास सदैव भगवान को अनुभव करने की समृद्धि है! सोला हजार देवियाँ [भगवान की] कृष्ण के अधरामृत को सोख लेने के लिए प्रतीक्षा कर रही हैं। यदि मात्र तुम ही बलपूर्वक इसे पीते रहे, तो क्या वे स्त्रियाँ न आएँगी तुमसे लड़ने?
दसवा पासुरम्। वह इन दस पासुरम् को सीखने वालों को प्राप्त होने वाले लाभ का उल्लेख करते हुए इस दशक को पूर्ण करती है।
पाञ्चसन्नियत्तैप् पऱ्-पनाबनोडुम्
वाय्न्द पॆरुम् सुट्रम् आक्किय वण् पुदुवै
एय्न्द पुगऴ्प् पट्टर्पिरान् कोदै तमिऴ् ईरैन्दुम्
आय्नदेत्त वल्लार् अवरुम् अणुक्करे
आण्डाळ् ने इन दस पासुरम् के माध्यम से भगवान और श्री पाञ्चजन्य के बीच एक गहरा संबंध बनाया। वह श्रीविल्लिपुत्तूर् में अवतरित हुई। उसमें पूर्णतः प्रसिद्धि की महानता है और वह पॆरियाऴ्वार् (श्री विष्णुचित्त स्वामी) की पुत्री है। जो इन दस पासुरम् को सीखते हैं जिनकी आण्डाळ् ने दयापूर्वक रचना की, वे भी भगवान के निकट संबंधी हो जाएँगे।
अडियेन् वैष्णवी रामानुज दासी
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