अमलनादिपिरान् – सरल व्याख्या

।।श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमत् वरवरमुनये नमः।।

मुदलायीरम्

श्री मणवाळ मामुनिगळ् स्वामीजी ने अपनी उपदेश रत्नमालै के दसवें पाशुर में अमलनादिपिरान् की महत्ता को बड़े ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत वर्णित किया है।

कार्त्तिगैयिल् रोहिणि नाळ् काण्मिनिन्ऱु कासियिनीर्
वाय्त्त पुगळ्प् पाणर् वन्दु उदिप्पाल् – आत्तियर्गळ्
अन्बुडने तान् अमलन् आदिपिरान् कऱ्ऱदऱ् पिन्
नन्गुडने कोण्डाडुम् नाळ्।

अरे दुनिया के लोगों! देखो, आज दक्षिणात्य माह, कार्तिक का रोहिणी नक्षत्र है। कार्तिक माह के रोहिणी नक्षत्र का यह दिवस महान आळ्वार संत तिरुप्पाणाळ्वार् का अवतरण दिवस है।

वेदों को मानने वाले और श्रद्धा और सम्मान करने वालों , तिरुप्पाणाळ्वार् द्वारा रचित अमलनादिपिरान् को पढ़ा तो जाना की आळ्वार संत ने सिर्फ १० प्रबंध पाशुरों में, वेदों का सार बहुत ही सुन्दर भाव से समझा दिया है। सदापश्यन्ति (सदा एम्पेरुमान को देखते रहना), बतला दिया इनके तिरुनक्षत्र को सभी उत्साह से मानते हैं।

तिरुप्पाणाळ्वार् द्वारा श्रीवैष्णवों पर अनुग्रह कर इन दस पाशुरों की रचनाकर इनमे , श्रीरंगम दिव्य धाम में शेष शैया पर लेटे हुये भगवान श्रीरंगनाथजी के दिव्य स्वरुप का वर्णन कर कह रहे है, उनके अपने आनंद के लिये बस यही एक मात्र साधन है।

श्री रंगेश के अर्चक पुरोहित (भगवान रंगनाथजी के प्रधान अर्चक) लोकसारंगमुनि द्वारा आळ्वार संत का अपचार हो गया था, जिससे पेरिय पेरुमाळ् ने अर्चक को आळ्वार संत को सम्मुख लाने का आदेश दिये। 

अर्चक तुरन्त तिरुप्पाणाळ्वार्के पास पहुँच, उन्हें अपने साथ मंदिर चलने का आग्रह किये,  पर आळ्वार संत ने दिव्य वैकुण्ठ श्रीरंगम में चरण रखने के योग्य नहीं हूँ, कह, चलने से मना कर दिये, तब लोकसारंगमुनि उन्हें अपने काँधे पर बैठाकर भगवान् पेरिय पेरुमाळ् के सम्मुख ले गये। इस कारण आळ्वार संत को मुनिवाहन योगी के नाम से बुलाने लगे,  सम्प्रदाय में ऐसी किवंदती है की, लोकसारंगमुनि के मंदिर में चरण रखते ही आळ्वार संत प्रबंध पाशुरों की रचना शुरू कर दिये, और जब भगवान् के सम्मुख पंहुचे तब दसवें पाशुर की रचना कर पेरिय पेरुमाळ् को सुनाये और उनके श्रीचरणों को प्राप्त कर, परमपद कि प्राप्ति कर लिये।

हमारे पूर्वाचार्य इन प्रबंधों का अनुभव दो प्रकार के सम्बन्ध से करते है,  

१. जैसे आळ्वार संत को पेरिय पेरुमाळ् ने अपने चरणों से दर्शन देते हुये किरीट तक क्रमशः दर्शन दिये।  

२. दूसरा पेरिय पेरुमाळ् द्वारा प्रसादित अनुग्रह का वर्णन,  इन प्रबंध पाशुरों को इन दोनों तरह के अनुभव को ध्यान में रख आनंद लेना चाहिये।

प्रस्तुत सरल भावार्थ पूर्वाचार्यों के उद्घृत व्याख्यानों पर आधारित है।

तनियन्

आपाद चूडम् अनुभूय हरीम् सयानम्
मद्ये कवेर दुहितुर् मुदितान्तरात्मा
अदृश्टृताम् नयनयोर् विशयान्तराणाम्
यो निश्चिकाय मनवै मुनिवाहनम् तम्।

मैं उन तिरुप्पाणाऴ्वार को प्रणाम करता हूँ, जिन्हें लोकसारंगमुनिवर ने अपने कंधों पर बिठाकर, दो कावेरी नदियों के बीचोबीच लेटे हुए पेरिय पेरुमाळ के सम्मुख उपस्थित किया; जिन्होंने पेरिय पेरुमाळ के श्रीचरणों से किरीट तक के दिव्य दर्शन का आनंदित अनुभव लिया; जिन्हें इस दर्शन के बाद संसार में और कुछ देखने की इच्छा ही नहीं थी।

काट्टवे कण्ड पाद कमलम् नल्लाडै उन्दि
तेट्टरुम् उदर बन्दम् तिरुमार्बु कण्डम् सेव्वाय्
वाट्टमिल् कण्गळ् मेनि मुनियेऱित् तनि पुगुन्दु
पाट्टिनाल् कण्डु वाळुम् पाणर् ताळ् परविनोमे।

हम उन तिरुपाणाळ्वार का मंगल गाते हैं, जिन्होंने लोकसारंगमुनि द्वारा ले आने के बाद अकेले ही पेरिय पेरुमाळ के गर्भगृह में प्रवेश किया और पेरिय पेरुमाळ का दर्शन कुछ इस प्रकार किया: उनके दिव्य श्रीचरणों से आरंभ कर, दिव्य वस्त्र का दर्शन कर, दिव्य नाभि कमल, सुन्दर दिव्य उदर, दिव्य वक्षस्थल, दिव्य कण्ठ, लालिमा लिए हुए सुन्दर श्रीमुख और दिव्य चक्षु जो नवखिले कमल की भाँति हैं।

आळ्वार संत ने अपने जीवन का लक्ष्य केवल पेरिय पेरुमाळ के गुणानुवाद ही रखा।

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प्रथम पाशुर:

आळ्वार संत पेरिय पेरुमाळ् के द्वारा उन्हें प्रसादित दिव्य श्रीचरणों के दर्शन का अनुभव करते है।

उन्हें अपने श्रीचरणों का सेवक और उनके भक्तों का भी सेवक बनाने के पेरिय पेरुमाळ् के इस कल्याण मंगल गुण का अनुभव कर रहे है।

अमलन् आदिपिरान् अडियार्क्कु एन्नै आट्पडुत्त
विमलन् विण्णवर् कोन् विरैयार् पोऴिल् वेङ्गडवन्
निमलन् निन्मलन् नीदि वानवन् नीळ् मदिळ् अरङ्गत्तु अम्मान् तिरुक्
कमल पादम् वन्दु एन् कण्णिन् उळ्ळन ओक्किन्ऱदे।

हे स्वामी (भगवन)! आप तिरुवरङ्गम् के ऊँचे परकोटों के मध्य लेटे हुए हैं। हे सर्व कल्याणगुण संपन्न! मुझसे कोई आशा रखे बगैर आपने मुझे अपना ही नहीं, अपने भक्तों का भी सेवक बनाने की कृपा की है। हे! नित्यसूरियों (श्रीवैकुण्ठ में नित्य निवास करनेवाले) के स्वामी, आप सुवासित पुष्पों के उद्यान से घिरे, तिरुवङ्गेटम् में निवास कर रहे हैं। आप अपने कारुण्य गुणों के कारण, अपने भक्तों द्वारा हुए अपचारों को ध्यान न देकर अपने सौलभ्य गुण के कारण बड़ी सुलभता से उन्हें उपलब्ध हैं। आपके परमपद में आपके सेवकों द्वारा नियमों का उल्लंघन कभी नहीं होता। आपके दिव्य श्रीचरणों की छवि मेरे नेत्रों में बस ग‌ई है।

दूसरा पाशुर:

आळ्वार संत पेरिय पेरुमाळ् के तिरुपीताम्बरम् के दर्शन का आनंद अनुभव कर रहे है।

जैसे समुद्र की लहरें नाव को आगे धकेलती है, ऐसे ही आळ्वार को पेरिय पेरुमाळ् ने अपने क्रमशः एक एक अंग के दर्शन दे रहे है।

आळ्वार को जब पूछा गया क्या भगवान ने कभी अकारण किसी पर कृपा की।

तब आळ्वार संत भगवान त्रिविक्रम का वर्णन कर आनन्द का अनुभव है।

उवन्द उळ्ळत्तनाय् उलगम् अळन्दु अण्डम् उऱ
निवन्द नीळ् मुडियन् अन्ऱु नेर्न्द निसासररैक्
कवर्न्द वेङ्गणैक् कागुत्तन् कडियार् पोऴिल् अरङ्गत्तु अम्मान् अरैच्
चिवन्द आडैयिन् मेल् चेन्ऱदाम् एन सिन्दनैये।

अपने त्रिविक्रम अवतार में, एम्पेरुमान ने जब तीनों लोको को नाप लिया तब उनका किरीट इस ब्रह्माण्ड के ऊपरी छोर को छू गया। अपने क्रूर बाणों से शत्रु राक्षसों दैत्यों का नाश करने वाले श्रीराम, सुगन्धित उद्यानों से घिरे श्रीरङ्गम् में पेरिय पेरुमाळ् के रूप में विराजमान हैं। मेरा ध्यान भगवान की कमर को सुशोभित करते उस कटी वस्त्र पर केन्द्रित है।

तीसरा पाशुर:

एम्पेरुमान आळ्वार संत भगवान की दिव्य सुन्दर नाभि के दर्शन कर आनन्द का अनुभव करते है, आळ्वार संत कहते है, ब्रह्माजी के प्राकट्य के बाद वह और भी सुन्दर दृष्टव्य हो गयी।

पिछले पाशुर में आळ्वार संत त्रिविक्रम भगवान का वर्णन किये है,  एम्पेरुमान तिरुवॅगडमुडैयन् का वर्णन कर रहे है।

आळ्वार संत कहते है, पेरिय पेरुमाळ्और तिरुवॅगडमुडैयान्, एम्पेरुमान के ही दो स्वरुप है।

मन्दि पाय् वड वेङ्गड मामलै वानवर्गळ्
सन्दि सेय्य निन्ऱान् अरङ्गत्तु अरविन् अणैयान्
अन्दि पोल् निऱत्ताडैयुम् अदन् मेल् अयनैप् पडैत्तदोर् एऴिल्
उन्दि मेल् अदन्ऱो अडियेन् उळ्ळत्तु इन्नुयिरे।

एम्पेरुमान तमिऴ देश के उत्तरी भाग तिरुवेङ्गटम् के पर्वत्त पर खड़े हैं, जहाँ वानर (बन्दर) उछल कूद करते रहते हैं और जहाँ नित्य सूरी भगवान श्रीनिवास की सेवा आराधना करने आते हैं। श्रीरङ्गम् में पेरिय पेरुमाळ् तिरुवनन्ताऴ्वान् (शेषजी) की कोमल शैय्या पर लेटे हुए हैं। भगवान पेरिय पेरुमाळ् के कटिभाग (कमर) का वस्त्र, जो उषा काल में आकाश में फैली हल्की लालिमा लिया हुआ है, जिसके ऊपर भगवान का नाभिकमल ब्रह्माजी के अवतरण के बाद और भी सुन्दर लग रहा है, उसकी सुंदरता पर मेरा मन मुग्ध हो गया है।

चतुर्थ पाशुर:

आळ्वार संत, एम्पेरुमान के दिव्य पेट के दर्शन का आनन्द ले रहे हैं, जो दिव्य नाभि के संग ही जुड़ा हुआ है।

जबकि दिव्य नाभि ने केवल ब्रह्मा को जन्म दिया है,  दिव्य पेट यह जतलाता है, “क्या मैंने पूरी दुनिया को अपने अंदर नहीं रखा है!”

क्या एम्पेरुमान किसी को स्वीकार करने से पहले,  उसके अहंकार और अधिकार भावना को दूर नहीं करेंगे?

आळ्वार संत कहते है की, जैसे एम्पेरुमान ने लंका के चारों ओर की सुरक्षात्मक दीवारों को ध्वस्त कर दिया,  वैसे ही वह अपने शत्रुओं, अहंकार और अधिकार भावना को भी मिटा देते है।

चदुर मामदिळ् सूऴ् इलङ्गैक्कु इऱैवन् तलै पत्तु
उदिर ओट्टि ओर् वेङ्गणै उय्त्तवन् ओद वण्णन्
मदुर मावण्डु पाड मामयिल् आडु अरङ्गत्तम्मान् तिरु वयिऱ्ऱु
उदर बन्दम् एन् उळ्ळत्तुळ् निन्ऱु उलागिन्ऱदे।

पेरिय पेरुमाळ्, मधुर स्वर में गुनगुनानेवाले भृंग और नृत्य करने वाले महान मोर से भरे श्रीरङ्गगम् में भगवान के रूप में शेष शैय्या पर लेटे हुये हैं। ऐसे पेरिय पेरुमाळ् ने चारों ओर अलग-अलग प्रकार की सुरक्षात्मक परतों से घिरी हुई लंका के राजा रावण को युद्ध के मैदान से दूर भगा दिया था। समुद्र जैसे रंग वाले एम्पेरुमान ने, बाद में एक क्रूर बाण से रावण के दस सिर काट दिए। उन दिव्य पेरिय पेरुमाळ् के दिव्य उदर को सुशोभित करने वाला दिव्य आभूषण उदरबन्ध, मेरे हृदय में दृढ़ता से स्थापित हो गया है और आँखों के सामने घूम रहा है।

पञ्चम पाशुर:

इस पाशुर में आळ्वार संत पेरिय पेरुमाळ् के दिव्य वक्षस्थल के दर्शन कर आनन्द का अनुभव ले रहे है।

एम्पेरुमान के दिव्य वक्षस्थल पर श्रीवत्स और कौस्तुभ चिन्हित है, यह उनकी पहचान है,

जो चित् और् अचित् तत्वों का प्रतिनिधित्व करती हैं।

इस पाशुर में आळ्वार  ने कहा है,  पेरिय पेरुमाळ् का वक्ष स्थल, उनका उदर (पेट) जिसमें जलप्रलय के समय सारा ब्रह्माण्ड उसके अंदर होता है, से भी अधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि  यह पेरिय पिराट्टी का निवास स्थान है, जो पेरुमाळ् की पहचान है।

आळ्वार उस दिव्य वक्षस्थल के दर्शन का आनन्द ले रहे है, यह उन्हें इसकी सुंदरता देखने के लिए आमंत्रित कर रहे है।

अहंकार और अधिकारिता नष्ट हो जाने के बाद भी, क्या पाप और पुण्य (क्रमशः दोष और गुण) जीव का पीछा छोड़ देते है?

`आळ्वार संत कहते हैं कि एम्पेरुमान उनसे भी छुटकारा दिला देते है।

बारम् आय पऴविनै पट्रऱुत्तु एन्नैत्तन्
वारमाक्कि वैत्तान् वैत्तदन्ऱि एन्नुळ् पुगुन्दान्
कोर मा तवम् सेय्दनन् कोल् अऱियेन् अरङ्गत्तु अम्मान् तिरु
आर मार्वु अदु अन्ऱो अडियेनै आट्कोण्डदे।

अनादि काल से बोझ बनकर मेरा पीछा करने वाले मेरे कर्मों से पेरिय पेरुमाळ् ने मुझे छुटकारा दिला दिया और उन्होंने मुझे अपने प्रति स्नेही बना दिया। इतने पर ही नहीं रुके- वे स्वयं मेरे मन में उतर ग‌ए! मुझे नहीं पता कि इस भाग्य को पाने के लिए मैंने अपने पिछले जन्मों में कितनी बड़ी तपस्या की होगी। या कदापि मैं इस भाग्य को पाने के लिए उन्होंने कितनी बड़ी तपस्या की होगी यह मुझे नहीं पता। श्रीरङ्गम् के स्वामी- पेरिय पेरुमाळ् का दिव्य वक्षस्थल जिसमें तिरु (श्री महालक्ष्मी) वास करतीं हैं और जिस पर एक हार सुशोभित है, उस वक्षस्थल ने इस दास को (मुझे) प्रेम से अपना बना लिया है।

छठवां पाशुर:

इस पाशुर में आळ्वार संत पेरिय पेरुमाळ् की ग्रीवा (गर्दन) के दर्शन अनुभव का आनंद ले रहे है।

आळ्वार संत अनुभव कर रहे है की , ग्रीवा कुछ इस तरह कह रही है, जबकि पिराट्टी, श्रीवत्स और कौस्तुभ उनके वक्षस्थल पर विराजित है, पर आपदा के समय में ही हूँ जो इस संसार को निगल कर उसकी रक्षा करता हूँ, यह सुन आळ्वार संत आनंदित हो उठते है।

क्या इस तरह एम्पेरुमान किसी को अपने कर्मो से छुटकारा दिलवाये है?

तब आळ्वार संत याद दिलवाते है,  रूद्र को ब्रह्माजी के श्राप से, और साथ में चंद्र को भी, जब उनकी छटा घट रही थी श्राप से मुक्त किया थे।

तुण्ड वेण् पिऱैयन् तुयर् तीर्त्तवन् अञ्चिरय
वण्डु वाऴ् पोऴिल् सूऴ् अरङ्ग नगर् मेय अप्पन्
अण्डरण्ड बगिरण्डत्तु ओरु मानिलम् एऴुमाल् वरै मुऱ्ऱुम्
उण्ड कण्डम् कण्डीर् अडियेनै उय्यक्कोण्डदे।

जिस एम्पेरुमान ने रुद्र के और उनके शीश पर अर्धचन्द्राकार रूप में विराजमान चंद्र के सन्ताप को मिटाया वे सुन्दर पंखों वाले भृंग से भरे उद्यानों से घिरे श्रीरङ्गम् के वासी “पेरिय पेरुमाळ्” ही हैं। आऴ्वार संत कहते हैं कि इस ब्रह्मांड, इतर ब्रह्मांड और सभी ब्रह्मांडों के बाहरी आवरण इन सब को अद्वितीय पृथ्वी और अन्य सभी स्थानों में रहने वालों के साथ निगलने वाले पेरिय पेरुमाळ् के दिव्य कंठ ने मेरा उत्थान किया है।

सातवां पाशुर:

इस पाशुर में आळ्वार संत, एम्पेरुमान के दिव्य मुख और ओष्ठ के दर्शन पाकर उनके दिव्य अनुभव का आनंद ले रहे है।

यह अनुभव कर रहे है की, मुख कह रहा है, निश्चय ही ग्रीवा (गर्दन) ने संसार को निगला है, पर वह उसी समय संभव हुआ जब में लेता हूँ, और कहता हूँ,  “मा  शुचः” (डरो मत) यह सुन, आळ्वार आनंद ले रहे है।

रुद्र और अन्य देव, देवता हैं, इसलिए एम्पेरुमान ने उनकी रक्षा की।

लेकिन क्या? वह आपकी रक्षा करेंगे?

आळ्वार संत जवाब देते हुये कहते हैं कि, एम्पेरुमान उसकी रक्षा करेंगे, जो केवल एम्पेरुमान की इच्छा रखता है, अन्य लाभों की इच्छा रख अन्य देवताओं की इच्छा रखने वालों से अधिक रक्षा करेंगे।

कैयिन् आर् सुरि सङ्गु अनल् आऴियर् नीळ् वरै पोल्
मेय्यनार् तुळब विरैयार् कमऴ् नीळ् मुडि एम्
अय्यनार् अणि अरङ्गनार् अरविन् अणैमिसै मेय मायनार्
सेय्य वाय् अय्यो एन्नैच् चिन्दै कवर्न्ददुवे।

पेरिय पेरुमाळ् के पास चक्करदार दिव्य
शंख है, दिव्य स्फूर्तिवान चक्र है, एक विशाल पर्वत की तरह दिव्य रूप है और उनके शीश पर दिव्य तुलसी की भाँति सुगंधित एक लंबा दिव्य मुकुट है। वे अद्भुत लीलाधारी, मेरे स्वामी (भगवान) हैं, जो सुंदर श्रीरङ्गम् में तिरुवनन्ताऴ्वान (आदिशेष) के कोमल नरम शैय्या पर लेटे हुए हैं। ऐसे एम्पेरुमान की हल्की लालिमा लिए मुखाकृति ने मुझे आकर्षित कर दिया है।

आठवाँ पाशुर:

इस पाशुर में आळ्वार संत एम्पेरुमान के दिव्य सुन्दर चक्षुओं (आँखों) के दर्शन का अनुभव और आनंद ले रहे है।

मुख चाहे जो कहे,  आँखे ही है जो वात्सल्य झलकाती है  और भगवानके दर्शन करवाती है।

इस लिए आळ्वार संत भगवान की आँखों के दर्शन का सुख अनुभव कर रहे है।

चतुर्थ और पंचम पाशुर में आळ्वार संत ने कहा, अहम्, अधिकार भावना और पिछले  कर्म मिटा दिये जायेंगे, पर यह मिटा दिये जाने के बाद भी अविद्या (अज्ञान) रह जाने से, क्या अहम्, अधिकार भावना वापस नहीं आयेंगे?

आळ्वार संत कहते है, जैसे एम्पेरुमान ने दैत्य हिरण्य कश्यप (तमोगुणी (अज्ञान और आलस्य) प्रवर्त्ती का प्रतिक)} का नाश किया, ऐसे ही एम्पेरुमान हमारे तमोगुणों का नाश करेंगे।

परियन् आगि वन्द अवुणन् उडल् कीण्ड अमरर्क्कु
अरिय आदिप् पिरान् अरङ्गत्तु अमलन् मुगत्तुक्
करियवागिप् पुडै परन्दु मिळिर्न्दु सेव्वरियोडि नीण्ड अप्
पेरिय आय कण्गळ् एन्नैप् पेदैमै सेय्दनवे।

श्रीरङ्गम् में शयनित, सब पर कृपा करनेवाले वे भगवान वहीं हैं जिन्होंने विशाल शरीर वाले राक्षस हिरण्यकश्यप को चीर दिया; जो ब्रह्मा जैसे दिव्य देवताओं के लिए भी प्राप्य नहीं हैं; जो सभी के अस्तित्व के कारण हैं। ऐसे परम पवित्र पेरिय पेरुमाळ् के कानों तक फैले, लाल रंग से रेखांकित, विशाल, तेजस्वी, प्रकाशित, लंबे, काले दिव्य नेत्रों ने मुझे भ्रमित कर दिया है!

नवम पाशुर:

इस पाशुर में आळ्वार संत भगवान् की दिव्य छवि के दर्शन कर उसका दिव्य आनन्द का अनुभव कर रहे है।

आळ्वार संत भगवान के अघटित को घटित करने के गुण का आनंद ले रहे है।

जब यह प्रश्न पूछा गया,  वेदांत (वेदों का सार, जिसे उपनिषद् भी कहते है) के ज्ञान से तमोगुण का भी नाश होता है, पर आळ्वार संत चतुर्थ वर्ण से थे जिन्हे वेद पढ़ने का भी अधिकार नहीं है।

तब आळ्वार संत ने कहा, एम्पेरुमान अपने अद्भुत गुण को दर्शाते है, प्रलय काल में सारे ब्रह्माण्ड को निगलकर, एक वटपत्र पर लेटे हुये है,   वह मेरे भी सभी तमोगुण का नाश करेंगे।

आल मामरत्तिन् इलै मेल् ओरु पालगनाय्
ज्ञालम् एऴुम् उण्डान् अरङ्गत्तु अरविन् अणैयान्
कोल मा मणि आरमुम् मुत्तुत् ताममुम् मुडिवु इल्लदु ओर् एऴिल्
नील मेनि अय्यो निऱै कोण्डदु एन् नेञ्जिनैये।

सभी लोकों को निगलने के पश्चात, बड़े वटवृक्ष के छोटे से एक पत्ते पर एक छोटे शिशु के रूप में शयनित भगवान, श्रीरङ्गम् में तिरुवनन्ताऴ्वान् (आदिशेष) की नरम शैय्या पर लेटे हुए पेरिय (बड़े) पेरुमाळ् हैं, जिनका सुंदर और रत्न जड़ित स्वर्णाभरणों से सुसज्जित, अद्वितीय सुंदरता वाला दिव्य काला शरीर मेरे मन को आकर्षित कर रहा है। ओह! इसपर मैं क्या कर सकता हूँ?

दसवां पाशुर:

अंत में आळ्वार संत ने पेरिय पेरुमाळ् में भगवान कृष्ण के दर्शन किये, तब आळ्वार संत ने मुझे और कुछ देखना नहीं कह, भगवान के श्रीचरणों को प्राप्त कर वैकुण्ठधाम  चले गये।

कोण्डल् वण्णनैक् कोवलनाय् वेण्णेय्
उण्ड वायन् एन् उळ्ळम् कवर्न्दानै
अण्डर् कोन् अणि अरङ्गन् एन् अमुदिनैक्
कण्ड कण्गळ् मऱ्ऱोन्ऱिनैक् काणावे।

वे जो मेघों के रंग हैं और सर्वगुण संपन्न हैं, जिन्होंने गोकुल में जन्म लिया है, जिनकी दिव्य मुखाकृति अति सुन्दर है, जो मक्खन चुराकर खाते हैं, जो नित्यसूरियों का नेता हैं, जिन्होंने मेरे मन को आकर्षित किया है, वे श्रीरङ्गम् में लेटे हुए हैं। अब जो मेरी अतृप्त आँखों ने उस एम्पेरुमान को देख लिए है, अब आगे और कुछ भी नहीं देखना है।

अडियेन श्याम सुन्दर रामानुज दास

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