उपदेश रत्तिनमालै – सरल व्याख्या – पासुरम् ६२ – ६३

। ।श्री: श्रीमते शठकोपाय नम: श्रीमते रामानुजाय नम: श्रीमत् वरवरमुनये नमः। ।

उपदेश रत्तिनमालै

<< पासुरम् ६०-६१

पासुरम् ६२

बासठवां पासुर। वह दयापूर्वक बताते हैं कि कोई आसानी से परमपद कैसे प्राप्त कर सकता है। 

उय्य निनैवु उण्डागिल् उम् गुरुक्कळ् तम्‌ पदत्ते
वय्युम् अन्बु तन्नै इन्द मानिलत्तीर् – मॆय् उरैक्केन्
पय्यरविल् मायन् परमपदम् उङ्गळुक्काम्
कै इलङ्गु नॆल्लिक्कनि 

हे इस विशाल संसार में रहने वाले! यदि अप स्वयं की उन्नति चाहते हैं तो मैं आपको उसे प्राप्त करने का एक सुगम मार्ग बताऊं‌गा। मेरी बात सुनो और अपने आचार्य के दिव्य चरणों में भक्ति करें। आप परमपद को प्राप्त करेंगे जो अद्भुत सत्व भगवान, जो फनवाले आदिशेष पर लेटे हुए हैं, उनका दिव्य निवास है। यह सत्य है, और हथेली के पिछ्ले हिस्से जितना स्पष्ट है।

यह उन सभी लोगों के लिए लागू होता है, जिनका अपने आचार्य से संबंध है और उनके प्रति समर्पित हैं, क्योंकि उनके द्वारा सामान्य शब्द उङ्गळुक्कु  जिसका अर्थ है “आप सभी के लिए”, का उपयोग किया गया है। जिस प्रकार भरत के प्रति भक्ति रखने वाले शत्रुघ्न को श्रीराम का स्नेह प्राप्त हुआ, उसी प्रकार जो लोग अपने आचार्य के प्रति समर्पित हैं, वे सुलभता से भगवान को प्राप्त कर लेंगे। क्योंकि ये श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य वचन हैं, जिनकी वाणी मिथ्या-रहित कही जाती है, इसमें कोई संदेह नहीं है। 

पासुरम् ६३  

तिरसठवां पासुरम्। वे कृपापूर्वक बताते हैं कि एक आचार्य के क्या-क्या उपकार‌ होते हैं उनके शिष्य पर, और उसके लिए कैसे एक शिष्य आभारी रहता है। 

आचार्यन्‌ सॆय्द उपकारमान अदु
तूय्दाग नॆञ्जु तन्निल् तोन्ऱुमेल् – देसान्
तरत्तिल् इरुक्क मनम् तान् पॊरुन्द माट्टादु
इरुत्तल इनि एदु अऱियोम् याम् 

यदि कोई शिष्य इस बात की‌ अपने मन में अनुभूति कर लें कि‌ आचार्य द्वारा किए गए उपकार दोषरहित हैं, तो उस शिष्य को ऐसे स्थान पर रहना असंभव होगा, जहाँ से वह अपने आचार्य की सेवा न कर सके। मैं यह समझने में असमर्थ हूँ कि इसके बावजूद कुछ लोग ऐसे स्थान पर कैसे रहते हैं जहाँ से वे अपने आचार्य की सेवा नहीं कर पाते। 

आचार्य अनेक प्रकार के कल्याणकारी कार्य करते हैं, जैसे शिष्य को ज्ञान प्रदान करना, जब वह कोई अनुचित कार्य करता है तो उसे सुधारना, उसे सेवा में लगाना, उसके लिए मोक्ष तक दिलाना आदि। एक सर्वोत्तम शिष्य को इन बातों को ध्यान में रखना चाहिए और कृतज्ञतापूर्वक सेवा में लगे रहना चाहिए। श्रीवरवरमुनि स्वामी ने स्वयं अपने आचार्य श्री शैलेश स्वामी (तिरुवाय्मोऴिप्पिळ्ळै) के इस संसार में रहने तक, आऴ्वार्तिरुनगरी (कुरुगापुरी) में रहकर उनकी सेवा की। अपने आचार्य के दिव्य धाम (श्री वैकुंठ) में प्रवेश करने के पश्चात ही वे श्रीरङ्गम् ग‌ए। इस प्रकार वे दूसरों को वही शिक्षा दे रहे हैं जिनका उन्होंने स्वयं पालन किया।

अडियेन् दीपिका रामानुज दासी

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