श्री:
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवर मुनये नमः
श्लोक २६
अथ श्रीशैलनाथार्यनाम्नि श्रीमति मण्डपे ।
तडङ्घ्रिपङ्कजद्वन्द्वच्छायामध्यनिवासिनाम् ॥२६॥
शब्दार्थ –
अथ – अपने मट्ट पहुँचकर,
श्रीशैलनाथार्य नाम्नि – अपने आचार्य जिनका नाम श्रीशैलनाथ यानि श्री तिरुवाय्मोळिपिळ्ळै स्वामीजी है,
श्रीमति – कान्तिमान, (प्रदीप्तिमान), चमकदार,
मण्डपे – मण्डप मे,
तदङ्घ्रिपङ्कजद्वन्द्वच्छायामध्यनिवासिनाम् – उनके नक्कशीदार चित्र के चरणकमलों की छाया के मध्य मे बैठे ।
भावार्थ (टिप्पणि) –
यह कालक्षेप मण्डप है जिसका नाम तिरुवाय्मोळि पिळ्ळै मण्डप रखा गया । और इस मण्डप मे उनकी नक्कशीदार चित्र का भी चित्रीकरण उपलब्ध है । श्री वरवरमुनि अपने आचार्य की चित्रित नक्कशीदार चित्र के चरणकमलों की छाया मे बींच मे बैठे थे । यहाँ श्रीमति (चमकदार – प्रदीप्तिमान) का अर्थ इस प्रकार से है । श्री वरवरमुनि के द्वारा पूर्वाचार्यों जैसे पिळ्ळैलोकाचार्य इत्यादियों के तिरुमालिगै (दिव्य घरों) से लाया हुआ मिट्टि के कणों से दिवारों पर अलंकार करने से जो जगमग दिखाई देता है, वह । जो जगह दिव्य विशुद्ध महापुरुष श्रीवैष्णवाचार्यों के चरणकमलों से द्रवित है उस जगह या उस स्थान की शुद्धता और पवित्रता सवाल से परे है । अतः यह मण्डप पवित्र और शुद्ध है । यहाँ षष्ठी विभक्ति और बहुवचन मे प्रयुक्त “तदङ्घ्रिपङ्कज द्वन्द्वच्छायामध्यनिवासिनाम्” शब्द का दूसरा अर्थ भी है जो इस प्रकार से है । यहाँ याने श्री शैलनाथ मण्डप मे श्री शैलनाथ के नक्कशीदार चित्र के चरणमकमलों के मध्य मे श्री वरवरमुनि जैसे शिष्यगण बैठे हुए है । यही भाव और अर्थ अगले श्लोक “तत्वम् दिव्यप्रबन्धनांसारम् .. व्याचक्षाणं नमामि तं” मे स्वामि एरुम्बियप्पा प्रस्तुत करते है कि वो अपने ऐसे आचार्य श्रीवरवरमुनि की पूजा कर रहे है जो उन सभी को इस मण्डप मे बैठकर दिव्यप्रबंध के अर्थों को बता रहे है ।
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