शरणागति गद्य – चूर्णिका 7

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नम:

शरणागति गद्य

<< चूर्णिका 6 – भाग 6

अवतारिका (भूमिका)

जैसा की पिछले चूर्णिका में बताया गया है, श्री पेरियवाच्चान पिल्लै प्रश्न करते है कि क्या हमारे द्वारा त्याग किया सभी कुछ हमारे लिए हानि नहीं है। वे प्रतिउत्तर में कहते है कि यह हानि नहीं है क्यूंकि भगवान स्वयं ही हमारे लिए सब कुछ है।

त्वमेव माता च पिता त्वमेव
त्वमेव बन्धुश्च गुरुस्त्वमेव
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव
त्वमेव सर्वं मम देव देव

विस्तारपूर्वक अर्थ

त्वमेव माता च पिता त्वमेव – त्वम – आप; एव -मात्र,  – और। एक पिता जो की बालक के जन्म के पश्चाद उसके कल्याण के विषय में कार्य प्रारम्भ करता है, उस पिता से भिन्न उसकी माता उस बालक की रक्षा और प्रेम उसके गर्भधारण से ही प्रारम्भ कर देती है। इसलिए प्रधानता माता की है। भगवान भी पिता है, पिता भी बालक की रचना में समान भागीदार है। हमारे संप्रदाय में सम्पूर्ण रचना भगवान द्वारा की गयी है, श्रीअम्माजी के द्वारा नहीं और इसलिए भगवान ही हमारी माता और पिता दोनों है।

त्वमेव बन्धुश्च – आप ही हमारे संबंधी हो। संबंधियों का साथ व्यक्ति को जीवन में अनुचित पथ पर जाने से रोकता है, उसका नियंत्रण करता है और सत्य पथ की और उसका मार्गदर्शन करता है। भगवान भी अंतरात्मा (आत्मा में विद्यमान) है। इसलिए वे भी जीव का मार्गदर्शन करते है और संबंधियों के समान पथप्रदर्शन है।

गुरुस्त्वमेव – आप ही आचार्य (गुरु) है। गुरु शब्द में “गु” अर्थात अंधकार और “रु” का अर्थ है नकारने वाला। अर्थात गुरु वे है जो अंधकार को नकारते है– अन्य शब्दों में वे प्रकाशित करते है। भगवान इस संसार में विद्यमान अज्ञान के अंधकार को हटाते है और मोक्ष प्रदान करते है इसलिए वे गुरु है। हमारे संप्रदाय में, वे ही प्रथम आचार्य हैजैसा की हमारी गुरूपरंपरा में उल्लेख किया गया है। वे हमें सभी प्रकार के साधन और सहायता प्रदान करते है जो हम में उन तक पहुँचने की रुचि उत्पन्न करती है – उन्होने वेद प्रदान किए (ज्ञान का स्त्रोत, जो चार भागों में विभाजित है- ऋग, यजुर, साम और अथर्व), शास्त्र, पुराण (पौराणिक विलेख जैसे विष्णु पुराण, गरुड पुराण आदि), इतिहास  (श्रीरामायण और महाभारत जैसे महाकाव्य) प्रदान किए, आलवारों और आचार्यों की रचना की यह बताने के लिए वेद, शास्त्र, पुराण, इतिहास, आदि में भगवान ने क्या कहा और किया है, हमें अपने दिव्य स्वरूप के दर्शन प्रदान किए (रूप जो अर्चा मूर्ति में दिव्यादेशों में देखा जा सकता है) –  भगवान ने ये सभी किया जिससे हम सांसारिक भोगो के दूर होकर भगवान तक पहुँचने की प्रेरणा प्राप्त करे। जैसा की पहले देखा गया है, वे हम में उन तक पहुँचने की चाह उत्पन्न नहीं करते अपितु एक बार हम वह चाहना स्वयं दिखावे तो वे उसे विकसित करते है और आगे बढाते है। वे वास्तव में एक महान शिक्षक है, गुरु

त्वमेव विद्या – आप ही हमारे लिए प्रचारित ज्ञान हैं। वे “ज्ञान” कैसे हो सकते है? वे वेदों के प्रदाता है जो वेद ज्ञान प्रदान करते है। क्यूंकी वेदों और वेदान्तों (उपनिषद, वेदों का अंतिम भाग) के विभिन्न भाग उनके नियंत्रण में है और वे ही इन वेदों द्वारा व्याख्यायित और प्रस्तावित तत्व है, इसलिए वे ही ज्ञान है।

द्रविणं त्वमेव – आप ही धन संपत्ति है। यहाँ संपत्ति से आशय मात्र धन से नहीं है अपितु वह सब वस्तु है जिनका हम आनंद लेते है– उदाहरण के लिए, माला, चन्दन का लेप, भोजन सामाग्री, संपत्ति आदि। और न केवल प्रत्यक्ष वस्तुएं अपितु अप्रत्यक्ष वस्तुएं भी संपत्ति है जैसे परभक्ति, परज्ञान, आदि (जो हमने चूर्णिका 5 में देखी है)। श्रीभगवान के उत्कृष्ट चरणकमल ही उन तक पहुँचने का मार्ग है और वे भी संपत्ति है।

त्वमेव सर्वं – जो भी अनकहा रह गया है वो सभी आप ही है।

मम देव देव –सब साधन त्याग कर आपके शरण हुआ हूँ, आप ही मेरे स्वामी हो मेरे नाथ हो। आप ही श्रीवैकुंठ में नित्यसुरियों और मुक्तात्माओं के स्वामी हो और आप मेरी भी नाथ हो।

आइए अब चूर्णिका 8 की और बढ़ते है।

– अडियेन भगवती रामानुजदासी

अंग्रेजी संस्करण – http://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2015/12/saranagathi-gadhyam-7/

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