शरणागति गद्य – चूर्णिका 6

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नम:

शरणागति गद्य

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अवतारिका (भूमिका)

पेरियवाच्चानपिल्लै यहाँ पिछली पांच चूर्णिकाओं का संक्षिप्त बताते है।

जब कोई जीव भगवान् के समक्ष आश्रित होने के लिए पहुंचता है, उसमें भगवान के लिए अतीव त्वरित चाहना और यह पूर्ण विश्वास होना चाहिए कि भगवान जीवको वह प्रदान करेंगे जिसकी प्रार्थना जीव ने की है । इन गुणों को प्राप्त करने हेतु श्रीरामानुज स्वामीजी द्वितीय चूर्णिका में श्रीअम्माजी से प्रार्थना करते है और फलस्वरूप श्रीअम्माजी उन्हें तृतीय और चतुर्थ चूर्णिका में वह गुण प्रदान करती है । फिर वे निश्चय करते है कि मात्र भगवान् श्रीमन्नारायण ही मोक्ष प्रदान करने में समर्थ है क्यूंकि इस कार्य के लिए अपेक्षित सभी गुण सिर्फ उनमें ही विद्यमान है । वे भगवान् के सभी दिव्य कल्याण गुणों का गुणगान करते है और उभय विभूतियों (नित्य और लीला विभूति) में स्थित भगवान् की सभी संपत्तियों को सूचीबद्धकरते है । यह निश्चित होने पर कि भगवान् ही एकमात्र मोक्ष के प्रदाता है और उस मार्ग का आशीष प्रदान करने वाले है, वे श्रीअम्माजी जो पुरुष्कारभूतै है, उनके साथ श्रीभगवान् के चरणों में शरणागति करते है । यह सब हमने पंचम चूर्णिका में देखा । अब हम छठवी चूर्णिका को देखेंगे ।

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श्रीरामानुज स्वामीजी यहाँ थोडा यह विचार कर संकोच करते है कि भविष्य में प्राणी यह विचार करेंगे कि वे शरणागति करने वाले प्रथम प्राणी है । लोग यह सोचेंगे कि शरणागति के विषय में शास्त्र क्या कहते है और श्रीरामानुज स्वामीजी के पहले के आचार्यजन ने शरणागति की या नहीं यह जानना आवश्यक नहीं है । इसलिए वे पुराणों (अनंत काल से निर्मित) और पूर्वाचार्यों द्वारा प्रतिपादित शरणागति का उल्लेख करते है । पुराणों के दो श्लोकों से छठवी चूर्णिका का निर्माण हुआ है ।

शरणागति के द्वारा, जीव सब कुछ त्याग कर (उनके प्रति जो सब के आश्रय है इस संसार में) मात्र भगवान् के चरणार्विन्दों का आश्रय प्राप्त करता है । भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण चरम श्लोक (१८.६६वा श्रुति) में कहते है कि सभी धर्मों को त्यागकर मात्र मेरे शरणागत होकर रहो । पूर्वोक्त पांच चूर्णिकाओं में, श्रीरामानुज स्वामीजी ने इसका उल्लेख नहीं किया कि उन्होंने क्या त्याग किया । तब क्या बिना यह उल्लेख किये कि उन्होंने क्या त्याग किया, उनकी शरणागति व्यर्थ नहीं है? नहीं, वह व्यर्थ नहीं है । द्वय महामंत्र में भी, केवल यह उल्लेख है कि हमें किसका आश्रय/ सहारा प्राप्त करना है (भगवान् के चरण कमलों का) और यह उल्लेख नहीं है कि किसको त्याग करना है । हमारे पूर्वाचार्यों ने भी इसकी महत्ता नहीं दर्शायी जब भी कोई शरणागति करने आता । वे इसी से प्रसन्न थे कि अन्ततः प्राणी शरणागति स्वीकार कर भगवान् के आश्रित हुआ । भगवान् जीवों में यह देखते है कि वह संसार से घबराया हुआ है और भगवान् से मिलने की अतीव चाहना करने वाला है । भगवान् जीवात्मा में चाहना उत्पन्न नहीं करते परंतु उस चाहना को बढाने में सहायता अवश्य करते है ।

यह सब ध्यान में रखकर श्रीरामानुज स्वामीजी अब यहाँ यह समझाते है कि शरणागति के समय में किन किन का त्याग किया जाना चाहिए । यहाँ यह नहीं समझना चाहिए कि वे पुनः शरणागति करते है, शरणागति तो वे पहले ही कर चुके है । यह मात्र उस तथ्य पर ज़ोर देने के लिए है कि हमारे पूर्वाचार्यों ने भी यही बताया है और हमें यह समझाने के लिए कि हमसे ऐसा सुनकर भगवान् अत्यंत प्रसन्न होंगे ।

आईए अब चूर्णिका को देखते है

पितरं मातरं धारान् पुत्रान् बंधून् सखीन् गुरून् रत्नानिधनधान्यानिक्षेत्रानिचगृहाणिच
सर्वधर्मांश्चसंत्यज्यसर्वकामांश्चसाक्षरान् लोकविक्रान्तचरणौ शरणं तेऽव्रजं विभो ।।

विस्तारपूर्वक अर्थ –

प्रथम पंक्ति में वे उन तत्वों का उल्लेख करते है जो सभी चित (जो चेतन है) और द्वितीय में वे सभी जो अचित (जिनमें चेतन नहीं है) । हमारे संप्रदाय में, हम भगवान को ही उपाय मानते है (उन तक पहुंचाने वाला मार्ग) । कोई भी अन्य मार्ग जैसे कर्म योग (शास्त्रों द्वारा बताये गये कर्म अथवा धार्मिक कर्मों द्वारा निष्पादन) अथवा ज्ञान योग (भगवान के समबन्ध में ज्ञान से निष्पादन) अथवा भक्ति योग (भगवान के प्रति भक्ति से निष्पादन) इन सभी को उपयान्तर (भगवान के अतिरिक्त कोई और मार्ग) माना जाता है । इस चूर्णिका के प्रथम दो पंक्तियों में श्री रामानुज स्वामीजी द्वारा उल्लिखित सभी सत्त्व वे है जो उपयान्तर में सहायक है । यह सभी सत्व प्रयोजनान्तर है (भगवान जो सच्चे प्रयोजन है, उनको छोड़कर अन्य को आनंद जानना)।इसलिए प्रथम दो पक्तियों में दर्शाये गये सभी सत्वउपायांतर  औरप्रयोजनांतरदोनों है।इसलिए श्रीरामानुजस्वामीजी कहते है कि वे उन सभी का आश्रय त्याग करते है जो शरणागति के द्वारा भगवान तक पहुँचने मेंहमारे स्वरुप के विरोधी है।

पितृम् मातरम् – पिताजी और माताजी।यह थोडा विचित्रप्रतीत हो सकता है कि श्रीरामानुज स्वामीजी बताते है कि पिताजी और माताजी वे प्रथम व्यक्ति है जिन्हें त्यागना चाहिए यद्यपि शास्त्र कहते है “मातृदेवो भव:” और “पितृदेवो भव:” (माताजी और पिताजी भगवान के समान है)।पिताजी और माताजी भगवान के समान है, इसे भक्ति योगी{वह जो भक्ति मार्ग द्वारा मोक्ष की चाहना करता है} के लिए उपासन अंग (भक्ति को बल देने वाला) के रूप में प्रदर्शित किया गया हैयद्यपि जो शरणागति मार्ग द्वारा भगवान के समर्पित है, उनके हेतु माता पिता उपाय स्वरुप(भगवान को प्राप्त करने का मार्ग) है।हमें माताजी और पिताजी का त्याग केवल उपासन अंग के रूप में ही करना चाहिए न कि तब जब वे शरणागति द्वारा भगवान तक पहुँचाने में सहायक हो।

धारान – पत्नी।कोई अपनी पत्नी का त्याग कैसे कर सकता है जिसके साथ विवाह के समय अग्नि के सामने सात फेरे लिए? पत्नी को सहधर्मचारिणी (वह जो धर्म के मार्ग में सदा साथ रहती)भी कहा जाता है।यदि कोई मोक्ष प्राप्ति के साधन हेतु धर्म करता है,तब ऐसे धर्म का त्याग करना चाहिए।यदि पत्नी ऐसे धर्म (जिसे मोक्ष के साधनभूत किया जाता है) में सहायक हो, तब उसका भी त्याग करना चाहिए।परंतु यदि वह धर्म करने में कैंकर्य स्वरुप (भगवानकी सेवा भाव से) सहायक होती है, तब उसका त्याग नहीं करना चाहिए, यहाँ इसका यही सूक्ष्म अर्थ है।

पुत्र – बेटा।शास्त्रों में कहा गया है कि पुत्र की उत्पत्ति होने पर, पिता पुतु नामक नरक में जाने से बच जाते है।यदि कोई व्यक्ति भक्ति द्वारा मोक्ष प्राप्त करने चेष्ठा करता है, तब उसे पुत्र उत्पन्न करना आवश्यक है अन्यथा उसे नरक की प्राप्ति होगी।ऐसे पुत्र को उपासन अंग कहा जाता है, जो भक्ति योग में सहायक है।यद्यपि यहाँ संदर्भ शरणागतिद्वारा भगवान तक पहुँचने का है, तब ऐसे पुत्र की कोई आवश्यकता नहीं है और उसे त्याग दिया जाना चाहिए।

बंधु – संबंधी।मोक्ष प्राप्त के लिए संबंधी सदैव भक्ति योग को लागूकरते है और इसलिएउपासनांगम कहलाते है ।पहले की ही तरह, जब कोई भगवान को शरणागति मार्ग द्वारा प्राप्त करने का प्रयास करता है तो संबंधियों की आवश्यकता नहीं है और वे त्यागने योग्य है।कुछ स्थानों पर संबंधी बहुत समृद्ध होते है, वित्तीय अथवा सामाजिक तौर पे।किसी को उन समृद्ध जनों के सम्बन्धी होने का गर्व प्रलोभितकर सकता है, इस प्रकार वे प्रयोजनांतर के जाल में फंस जाते है (भगवान के अतिरिक्त कोई और आनंद का स्त्रोत)।यहाँ भी, वे त्यागने योग्य ही है।

सखी – मित्र/ दोस्त।मित्र भी किसी व्यक्ति को भक्ति योग के मार्ग में प्रेरितकरते है और इसलिए त्यज्य है ।और अधिक में मित्र से अत्यंत निकट रहने वाले व्यक्ति उन्हें अपना हितैषी मानते है और इस प्रकार मित्र भी प्रायोजनंतर है और त्यागने योग्य है।

गुरु – आचार्यअथवा शिक्षक। श्री रामानुजस्वामीजी के पांच गुरु थे और उनका सभी से अत्यंत प्रेम था।फिर वे कैसे किसी से अपने गुरु को त्यागने का अनुग्रहकर सकते है? जब एक गुरु मोक्ष हेतु भक्ति का मार्ग दिखता है, तब वह त्यागने योग्य है जैसा की हम पहले देख चुके है।गुरु को सांसारिक लाभ के लिए यज्ञ आदी करने में सहायता नहीं करनी चाहिए।ऐसे गुरु का त्याग करना चाहिए।

रत्नानी धन धान्यानि क्षेत्राणि च – रत्न, संपत्ति, अन्न भोजन, भूमि, आदि।ये सभी यज्ञ करने में सहायता करते है।और ये सभी सांसारिक भोगो के आनंद के लिये उपयुक्त है।इसलिए उन्हें उपायांतर और प्रायोजनांतर जानकर उनका त्याग करना चाहिए।

गृहानि च – घर।यह भी उपरोक्त वर्णित वस्तुओं के समान ही है।और यह उन सभी उपरोक्त वर्णित वस्तुओं के समबन्ध में सुरक्षा का असत्य भान भी देता है औरइसलिए उपायांतर के समान है।क्यूंकि यह सांसारिक सुख प्रदान करने वाला भी है इसलिए इसे त्यागना चाहिए।

सर्वधर्माम्श्च – शास्त्र में दर्शाये गए सभी धार्मिक मार्ग।यहाँ संदर्भ अन्य उपायों से है जैसे कर्म, ज्ञान, भक्ति योग।यहाँ शब्द सर्व का अर्थ है धर्म के अंगों से जैसे संध्यावंदन (देवता और संध्या को की गयी दिन की तीन प्रार्थना), तर्पण (वर्ष में कसी विशेष माह अथवा विशेष दिन पितरो के लिए किये गए संस्कार) आदि।

सर्व कामाम्श्च – सभी कामनाएं।संतान, सम्पाती आदि की कामना से लेकर स्वर्ग ऐश्वर्य और ब्रहम ऐश्वर्य पर्यंत (ब्रह्म का पद, जो सृष्टि रचना के देवता है)।या सब्भी कामनाएं त्यागने योग्य है।

साक्षर – क्षर का अर्थ है वह जिसका क्षय होता है। अक्षर अर्थात वह जिसका क्षय नहीं होता, यहाँ संदर्भ आत्मा से है और साक्षर अर्थात अपनी ही आत्मा का आनंद लेना, जिसे हमारे संप्रदाय में कैवल्य मोक्ष कहा जाता है (मोक्ष प्राप्त कर भगवान के दिव्य गुणों का अनुभव न करके आत्म की निम्न गुणों का अनुभव करना)।

संत्यज्य – लज्जा से इस भाव का त्याग करना कि हममें भगवान के पावन चरणों के सिवा ऐसी नीच वस्तुओं की अभिलाषा उत्पन्न हुई ।इस शब्द संत्यज्यको चित और अचित दोनों के लिए समान रूप से देखना चाहिए।

लोकविक्रांत चरणौ – भगवान के पावन द्वय चरण जिन्होंने वामन का अवतार लेकर, त्रिविक्रम (जिन्होंने तीन पग में तीन लोकों को नापा) रूप धारण कर सभी संसारों को अपने चरणार्विन्दों से नापा था।उन्होंने अपने पावन चरणों को उनके शीष पर स्थपित किया जिनकी भगवान के प्रति कोई विशेष प्रीतिभी नही थी और वे भी जो उनके विरोधी थे।उनका इस धरा पर वामन अवतार धारण कर आना इस बात का प्रतीक है कि वे ही संसार के स्वामी है, उनका स्वयं इस धरती पर अवतार लेना उनके सौशील्य को दर्शाता है, उनका हमारे शीष पर चरण रखना उनके वात्सल्य (आश्रितों के दोषों को भी उनके गुण जानना) को दर्शाता है, उनका स्वयं हमारे सामने आकर हम पर कृपा करना उनके सौलभ्य को दर्शाता है।यह सभी गुण केवल भगवान के ही है ।श्रीरामानुज स्वामीजी यहाँ उन भगवान की चर्चा करते है।

शरणं – अर्थात भगवान के पवन चरणारविन्दों को ही उपाय (मोक्ष का मार्ग) जानना

ते – आप।इसका उल्लेख स्वामी (नाथ) से है जिनके पाससभीलोकोंका स्वामित्व है। पिराट्टी (श्री महालक्ष्मीजी)जो भगवान से कभी पृथक नहीं होती उनका भी उल्लेख यहाँ किया गया है, उनके पुरुष्कारभूतै रूप का विचार करते हुए।

अव्रजम –आश्रय लेना।यहाँ इसका उल्लेख भगवान के पवन चरणों का आश्रय लेने से है ।

विभो – अर्थात भगवान का सर्वव्यापी रूप, जिसमें ज्ञान, बल, ऐश्वर्य, आदि के सभी आवश्यक गुण है।

इसप्रकार श्री रामानुजस्वामीजी ने इस चूर्णिका में अत्यंत सुस्पष्टता से यह बताया है कि किसका त्याग करना चाहिए और किसका आश्रय ग्रहण करना चाहिए।

अब हम चूर्णिका 7 की और बढ़ते है ।

– अडियेन भगवती रामानुजदासी

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