श्री: श्रीमते शठकोप नम: श्रीमते रामानुजाय नम: श्रीमद् वरवर मुनये नम:
विळान्जोलैप्पिळ्ळै ने पिळ्ळै लोकाचार्य की शरण ली, जो सम्पूर्ण भूलोक के एकमात्र पालनकर्ता माने जाने वाले श्री रंङ्गनाथ के निर्वाहक हैं- जिस प्रकार श्री भगवत गीता ७.१८ में दिव्य शब्दों में वर्णित किया गया है “ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्” (यह मेरा मत है कि ऐसा भक्त मेरी आत्मा है), जिन्होंने हस्तिगिरी अरुळाळर् (देवराज पेरुमाळ्) के निर्देशों के अनुसार श्रीवचनभूषण सहित सभी रहस्यग्रन्थ प्रदान कर उनमें परम प्रमाण (शास्त्र), प्रमेय(लक्ष्य) और प्रमाता (आचार्य) की महानता को कृपापूर्वक उचित ढंग से प्रकट किया।
अवतार विशेष (प्रतिष्ठित अवतार) पिळ्ळै लोकाचार्य की कृपा से, विळान्जोलैप्पिळ्ळै बिना किसी संदेह और त्रुटि के उनसे अच्छे से निम्नलिखित के अर्थानुसन्धान कर सन्तुष्ट हुए: (१)सारी तिरुवाय्मोऴि में जो तिरुवाय्मोऴि ९.४.९ में वर्णन किया है कि “तोण्डार्क्कु अमुदुण्णाच् चोल् मालैगळ् सोन्नेन्” (मैंने ये शब्दों की माला भक्तों को अमृत का आनंद लेने के लिए ही बोली है।), (२) सहायक और उप सहायक विषय के रूप में तिरुमङ्गै आऴ्वार के सारे प्रबंध जिन्हें आचार्य हृदयम् ४३ में “इरुन्दमिऴ नूर्पुलवर पनुवल्गळ्”(तिरुवाय्मोऴि के सुविज्ञ के रूप में प्रख्यात तिरुमङ्गै आळ्वार के पासुर) और अन्य आठ आळ्वारों के प्रबंध, (३) उन प्रबन्धों के लिए तिरुक्कुरुगैप्पिरान पिळ्ळान् आदि के द्वारा जो भाष्य दिए गए, और (४) वे विशेष सार और गूढ़ रहस्य, जो तात्पर्य, शब्दों की रसानुभूति, अर्थों की रसानुभूति, मनोदशा की रसानुभूति और गुप्त अर्थों को प्रकट करते हैं।
जैसे पिळ्ळै उऱङ्गा विल्लि दासर उडयवर के नज़दीक अनन्य सेवक थे, एऱु तिरुवुडैयान् दासर नम्पिळ्ळै के लिए और नडुविल् तिरुवीदिप्पिळ्ळै भट्टर् के लिए पिळ्ळै वानमामलै दासर, उसी प्रकार विळान्जोलैप्पिळ्ळै पिळ्ळै लोकाचार्य की आत्मा, जीवन, दृष्टि, कन्धे, आभूषण, दिव्य चरण, दिव्य पाद रेखा, दिव्य पाद छाया, दिव्य पादुकाएँ और दिव्य पाद के लिए एक शैय्या के रूप में बने रहे।
उनका उत्तम जन्म होने के कारण उनमें दासता स्वाभाविक था, जिससे नीचे गिरने की कोई सम्भावना नहीं थी, इतना कि तिरुवाय्मोळि पिळ्ळै जैसे महान सर्वज्ञ (तत्वज्ञ) जो शास्त्रों, तत्वज्ञों के अंत को देख चुके थे और जैसे आर्ति प्रबन्ध २२ में “तीदट्र ज्ञानत् तिरुवाय्मोळि पिळ्ळै” (तिरुवाय्मोळिप् पिळ्ळै जिनके पास अविरल ज्ञान है) कहा गया है बहुत पूजनीय थे, वे उनके पास (विळाञ्जोलैप्पिळ्ळै के पास) गए और उनसे गहन अर्थों को जाने; उनकी महिमा का गुणगान परम आदरणीय ज्येष्ठ पुरुषों ने उनके तनियन् में “वाऴि नलम् तिगऴ् नारण तादन् अरुळ्”, ऐसे सुशोभित किया है, जो उनकी घटनाओं और शुद्ध आचरण जानते थे, जैसे आचार्य हृदयम् ८५ में उल्लेख किया गया है, “याग अनुयाग उत्तर वीदिगळिल् काय अन्न स्थल शुद्धि पण्णिन” (एम्पेरुमानार् ने तिरुवाराधन से पहले पिळ्ळै उऱङ्गा विल्लि दासर को स्पर्श करके अपने दिव्य स्वरूप को शुद्ध किया, नम्पिळ्ळै ने पिळ्ळै एऱु तिरुवुडैयार् दासर् को प्रसाद लेने से पहले स्पर्श किया, नडुविल् तिरुवीदिप् पिळ्ळै भट्टर् ने पिळ्ळै वानमामलै दासर को शुद्धिकरण अनुष्ठान के रूप में अपने नवीन निवास के चारों ओर घुमाया); उनको अन्तिम समय अन्तिम श्वास तक तिरुवनंतपुरम में रहने के लिए उनके आचार्य पिळ्ळै लोकाचार्य ने करुणापूर्ण आदेश दिया, उस करुणामय आदेशानुसार वे वहाँ गए और एक विशेष विधि से वहाँ रहे, यह सोचते हुए कि तिरुवाय्मोळि १०.२.८ “नडमिनो नमर्गळ् उळ्ळीर्” (हे हमारे शिष्यों! तिरुवनंतपुरम जाओ) में नम्माऴ्वार् के निर्देशों का पालन करने वालों में वे अग्रगण्य हैं; तिरुवाय्मोळि १०.२.८ में जैसे कहा गया है “पडमुडै अरविल् पळ्ळि पयिन्ऱवन्”(वह जो छत्र वाले आदिशेष पर आसीन है) उस एम्पेरुमान् के श्रीचरणों में उन्होंने आत्म समर्पण किया, तथा क्रमानुसार तीन प्रवेश द्वारों के माध्यम से भगवान के दिव्य मुख, दिव्य नाभि, भगवान के दिव्य पाद का आनन्द लिया। तदुपरान्त, वे दिव्यदेश के आसपास के उद्यान में एक विशेष/एकान्त स्थान पर गए; जैसे कहा गया हऐ “गुरु पादाम्बुजम् ध्यायेत्”( गुरु के चरण कमलों का निरन्तर ध्यान करना चाहिए), “विग्रहालोकनपर:”(गुरु के दिव्य रूप को देखना चाहिए) और “श्रीलोकार्य मुखारविन्दम् अखिल श्रृत्यार्थ कोशम् सदाम्। ताम् गोष्ठीञ्च तदेक लीनमनसासम् चिन्तयन्तम् सदा।।” (पिळ्ळै लोकाचार्य के मुख में वेद के सभी अर्थ विद्यमान हैं। मैं सदा उनके विषय में और उनकी गोष्ठी के विषय में सोचता रहता हूँ……), उन्होंने पिळ्ळै लोकाचार्य के दिव्य स्वरूप का ध्यान किया जिनके लालिमा भरे, भृंगों से आच्छादित, दिव्य चरण कमल हैं, कमर उत्तम रेशमी वस्त्रों से सुसज्जित हैं, दिव्य वक्षस्थल पवित्र सूत्रों और कमल बीजों की माला से युक्त, पूर्वाचार्यों के करुणामय शब्दों के साथ दिव्य मुस्कान, दया की वर्षा करने वाले नेत्र, सुन्दर केश, अर्धचंद्राकार दिव्य मस्तक, दिव्य नेत्र और लाल मुख, सुनहरा शीर्ष बढ़ती हुई चमक के साथ, पवित्र सूत्रों, सुनहरे स्कन्द, शुभ दिव्य वक्षस्थल, मोतियों की माला, कमर का वस्त्र, दिव्य चरण कमल, बैठने की पद्मासन मुद्रा, बारह तिरुमण (ऊर्ध्व पुंड्र तिलक) की सुंदरता, हाथ की सुन्दर ज्ञान मुद्रा; उन्होंने पिळ्ळै लोकाचार्य के इस दिव्य स्वरूप का आनन्द लिया और स्पष्ट, अति स्पष्ट और अत्यंत स्पष्ट से उरुवु वेळिप्पाडु (दृष्य़) के माध्यम से शीर्ष से पाद (केशादिपादम्) और पाद से शीर्ष (पादादिकेशम्) तक उस स्वरूप पर एकाग्र किया।
वे पिळ्ळै लोकाचार्य की गोष्ठी में होने के उत्तम जीवन पर एकाग्र रहे, जो नम्पिळ्ळै की गोष्ठी की एक प्रतिकृति है, जिसे “वार्तोंच वृत्त्यापि यधीय गोष्ठ्याम् गोष्ठ्यांतराणाम् प्रथमाभवन्ति … ”[मैं तिरुक्कलिकन्ऱि दासर् (नम्पिळ्ळै) की पूजा करता हूँ जिनके शब्दों को उठाया और प्रयोग किया जा सकता है, अन्य गोष्ठियों में नेता बनने के लिए] में कहा गया है, बिना किसी और विषय के विचार किए, जैसा कि श्री रामायणम उत्तर कांडम 40.14 में हनुमान ने कहा है, “भावो नान्यात्र गच्छति “ (मेरा हृदय किसी और चीज़ के बारे में नहीं सोचेगा); इस प्रक्रिया में, मकड़ियाँ उनके दिव्य रूप पर एक जाला बनातीं और वे समाधि (पूर्ण एकाग्रता) में रहने के कारण उन्हें कुछ भी पता न चलता कि उन पर कोई रेंग रहा है और कई दिनों तक काट रहा है, जैसा कि श्री रामायणम् सुंदर कांडम् 36.42 में कहा गया है “नैवदम्शन” (उसे अपने दिव्य रूप पर मक्खियों और मच्छरों की उपस्थिति का आभास नहीं है); वे निरंतर पिळ्ळै लोकाचार्य के कैङ्कर्य जैसे कि श्रीवचन भूषणम् आदि के विशेष, परम सार पर एकाग्र रहते थे, जिन्हें उनके तनियन में महिमामंडित किया जाता है “एऱु तिरुवुडैयान् एन्दै उलगारियन् सोल् तेऱु तिरुवुडैयान् सीर्“; उन्होंने वास्तव में ऐसा आनंद लिया जैसे मानो संसार और परमपदम के बीच कोई अंतर नहीं हो, जैसा कि उन्होंने स्वयं कहा है, “पारुलगैप् पोन्नुलगाप् पार्क्कवम् पेट्रोम ” (इस भौतिक संसार को आध्यात्मिक संसार के रूप में देखने मिला)
हम अवतारिका के आगे का भाग अगले लेख में देखेंगे।
अडियेन् अमिता रामानुज दासी
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