सप्त गाथा (सप्त कादै) – अवतारिका (परिचय) – भाग २

श्री: श्रीमते शठकोप नम: श्रीमते रामानुजाय नम: श्रीमद् वरवर मुनये नम:

शृंखला

<<अवतारिका (परिचय) – भाग १

पहले भाग से आगे बढ़ते हुए

अपनी अपार करुणा से, विळान्जोलैप् पिळ्ळै ने अपने अलौकिक हृदय में नम्माळ्वार के तिरुवाय्मोळि का सार है और परम रहस्य विषय-  श्रीवचन भूषण दिव्य शास्त्र के गूढ़ अर्थों की भिन्न रुप में व्याख्या करने की अभिलाषा की, एक संक्षिप्त विषय के रूप में जिसे सरलता से समझा जा सकें। जो व्यापक रूप से दिखाए गए थे, जो कि है, । जैसे श्रीमद्भगवत गीता में चरम श्लोक सबसे महत्वपूर्ण अंश है, उसी प्रकार, श्रीवचनभूषणम् का अन्तिम प्रकरणम् (भाग) में अन्ततः दी गई प्रमाणम्(शास्त्र), प्रमेय(लक्ष्य) और प्रमाता(आचार्य) की व्याख्या महत्वपूर्ण विषय है। इसलिए, वे कृपापूर्वक इस विषय के रहस्य अर्थों और पहले के विषयों में बताए हुए गूढ़ अर्थों की व्याख्या इस प्रबन्ध “सप्त गाथा”नामक के द्वारा सात पासुरों में, बिना किसी विस्तार के करते हैं, जो हमें इस विषय को समझने में सहायक हैं, जो सब प्रकार से रमणीक है, जैसे इसके तनियन में ही कहा गया है- “वाऴि अवन् अमुद वाय् मोऴिगळ्”

जब पूछा गया “वह कैसे?”

श्रीवचनभूषणम् में, प्रारम्भिक सूत्र “वेदार्थम् अऱुदियिडुवदु” से प्रारम्भ होकर २२वें सूत्र तक “प्रपत्युपदेशम् पण्णिटृम् इवळुक्काग”, तक विशिष्ट अर्थ जो पुरुषकार प्रकरणम् (पिराट्टि संस्तुति अधिकार) में विस्तृत है, उसके सार के रूप में पहला पासुरम् “अम्बोन् अरङ्गर्क्कुम्” में है, वैसे ही जैसे लक्ष्मी तन्त्रम् की सूक्ति “अहंता ब्रह्मणस्तस्य” (मैं ब्रह्म की चेतना हूँ) में है।

२३वें सूत्र “प्रपत्तिक्कु” से आरम्भ होकर ७९वें सूत्र तक “एकान्ती व्यपदेष्टव्य” विशिष्ट अर्थ जो उपाय प्रकरणम् (भगवान ही माध्यम है) में प्रस्तुत किया गया था, उसे पहला पासुरम् में “उम्बर् तिवम् एन्नुम् वाऴ्वुक्कुच् चेर्न्द नेऱि” में दिखाया गया है। 

८०वें सूत्रम् “उपायत्तुक्कु” से आरंभ होकर ३०७वें सूत्रम् तक “उपेय विरोधिगळुमाय् इरुक्कुम्” अधिकारी निष्ठा प्रकरणम् (प्रपन्न की गुणवत्ता) में प्रस्तुत किए गए रहस्य अर्थ पासुरों “अञ्जु पोरुळुम्”, “पार्थ गुरुविन् अळविल्” और “तन्नै इऱैयै” में प्रस्तुत किए हैं।

३०८वें सूत्र “तान् हितोपदेशम् पण्णुम्बोदु” से आरम्भ होकर ३६५वें सूत्र तक “उगप्प उपकार स्मृत्युम् नडक्क वेणुम्” आचार्य अनुवर्तन प्रकरणम् (आचार्य सेवा) में दिखाए गए विशिष्ट अर्थ “एन् पक्कल् ओदिनार्…..” पासुरम् में प्रस्तुत किए गए हैं।

३६६वें सूत्र “स्वदोष अनुसन्धानम् भय हेतु” से आरम्भ होकर ४०६वें सूत्र तक “निवर्तक ज्ञानम् अभय हेतु” तक भगवत निर्हेतुक कृपा प्रभावम्‌ (भगवान की अप्रतिबन्ध कृपा की महानता), पासुरम् “अऴुक्केन्ऱु इवै अऱिन्देन्” में प्रस्तुत की है।

४०७वें सूत्र “स्वतन्त्रनै उपायमागत् तान् पट्रिन पोदिऱे इप्प्रसङ्गन्दान् उळ्ळदु” से आरम्भ होकर ४६३वें सूत्र “अनन्तरम् पलपर्यन्तम् आक्कुम्” तक अन्तिम प्रकरणम् (आचार्य वैभवम्) में प्रस्तुत किए गए विशिष्ट अर्थ “अम्बोन् अरङ्गर्क्कुम्” से प्रारम्भ होकर “तीङ्गेदुमिल्ला” तक सभी सात पासुरों में संक्षिप्त वर्णन किया है।

इस प्रकार, जिस प्रकार से वे करुणामय रूप में संक्षिप्त, सकारात्मक व्याख्या और निषेध के माध्यम से समझाते हैं, यह कहते हुए कुछ भी अनुचित नहीं है कि यह प्रबन्ध श्रीवचनभूषणम् में प्रस्तुत अर्थों का संक्षिप्तिकरण है।

जैसे कि कृपापूर्वक नम्माऴवार् ने तिरुवासिरियम् के प्रथम पर्व (प्रारम्भिक चरण-भगवत भक्ति) को “चेक्कर् मामुगिल्” से आरम्भ करके समझाया, विळान्जोलैप्पिळ्ळै भी “अम्बोन् अरङ्गर्क्कुम्” से आरम्भ करके कृपापूर्वक इस प्रबन्ध में चरम पर्व (अन्तिम चरण -आचार्य भक्ति) की व्याख्या कर रहे हैं।

उस प्रबन्ध और इस प्रबन्ध में बहुत अन्तर है।

जब पूछा गया “वे क्या हैं?”

तिरुवासिरियम् की रचना आसिरियप्पा (तमिऴ् में एक प्रकार का काव्य रचना का नियम) में की गई थी जिसमें पंक्तियों की संख्या का पालन आदि जैसे कठोर नियम नहीं हैं। साथ ही इसमें प्रथम पर्व के विषय में भी बताया गया है जो बन्धम् (बन्धन) और मोक्षम् (मुक्ति) के लिए सामान्य कारण है जैसे बताया गया है श्वेतश्वतर उपनिषद में “संसार बन्ध स्थिति मोक्ष हेतु” (बन्धन और मुक्ति दोनों का यही कारण), स्कन्द पुराणम् “सिद्धिर् भवतिवानेति संश्योच्युत सेविनाम्” (अच्युत की पूजा करने वाले अपनी इच्छाओं की सफलता या विफलता के लिए चिंता करेंगे), तिरुवाय्मोऴि ३.२.१ में “अन्नाळ् नी तन्द आक्कै” (सृष्टि के समय आपने जो शरीर दिया), तिरुवाय्मोऴि १०.७.१० “मङ्गवोट्टु उन् मामायै” [यह महान प्रकृति (मेरा शरीर) जो आपकी है, भस्मीभूत हो जाने दें]।

परन्तु, यह सप्त गाथा वेण्बा में है जिसमें पंक्तियों की संख्या के लिए नियम हैं। यह चरम पर्व को भी पूर्णतया प्रस्तुत कर रहा है जैसे कि छांदोग्य उपनिषद में कहा गया है “तमस:पारम् दर्शयति आचार्यस्तु ते गतिम् वक्ता” (अब आपके आचार्य आपको मोक्ष के लिए निर्देश देंगे), न संशयोस्ति तद्भक्त परिचर्यारतात्मनाम्” (भगवान के भक्तों की सेवा करने से निस्संदेह अभिलषित फल प्राप्त होंगे) और प्रमेय सारम् ९ “नीदियाल् वन्दिप्पार्क्कुण्डु इऴियावान्” (जो आचार्य की पूजा विशेष रूप से करते हैं, वे श्रीवैकुण्ठम् को प्राप्त करेंगे, जहाँ पुनर्जन्म नहीं होता)

ऐच्छिक रुप से, आण्डाळ् के दिव्य शब्दों द्वारा समर्थित (आण्डाळ् ने नाच्चियार् तिरुमोळि १०.१० में कहा “विट्टुचित्तर् तङ्गळ् देवरै वरविप्परेल् अदु काण्डुमे” (यदि पेरियाऴ्वार्, जो श्रीविल्लिपुत्तुर् के प्रधान हैं, उनसे संभव माध्यम से उनके नियंत्रण में होनेवाले एम्पेरुमान् को आमन्त्रित करे) इस प्रबन्धम् में, जो कि वाक्य गुरुपरम्परा (अस्मत् गुरुभ्यो नम: …. श्री धराय नम:) के चौथे वाक्य (श्रीमते रामानुजाय नम:) का ठोस रूप है, पहले वाक्य (अस्मत् गुरुभ्यो नम) को क्रमानुसार टीकाकरण किया है (सप्त गाथा में)।

वह है,

  • पहला अक्षर “अस” पहली पंक्ति में “अम्बोन्अरङ्गर्क्कुम्”और पहले पासुर में समझाया गया है।
  • दूसरा अक्षर “मत्” “अञ्जु पोरुळुम् अळित्तवन्” पासुरम् में वर्णित है।
  • तीसरा अक्षर “गु” “पार्त्त गुरु” पासुरम् में वर्णित है।
  • चौथा अक्षर “रुभ्” “ओरु मन्दिरत्तिन्” पासुरम् में वर्णित है।
  • पाँचवां अक्षर “यो” की व्याख्या पासुरम् “एन् पक्कल् ओदिनार्” में की गई है।
  • छठवां अक्षर “न” की व्याख्या “अम्बोनरङ्गा” के छठे पासुरम् में की है।
  • सातवां अक्षर “म” को पासुरम् “सेरुवरे अन्दामन्दान्” में वर्णित है।

जैसे कि श्री रामायण में २४००० श्लोक २४ अक्षरी गायत्री छंदों पर आधारित हैं, यह प्रबन्ध इन ७ अक्षरों को ७ पासुरों में विस्तृत करता है।

जैसे श्री मधुरकविगळ् स्वामी जी और वडुग नम्बि स्वामी जी ने चरम पर्व को अपने शब्दों और कैङ्कर्य के माध्यम से विशेष रूप से प्रस्तुत किया, उसी प्रकार विळान्जोलैप्पिळ्ळै इसे अपनी वाणी और कृत्यों में स्पष्ट कर रहे हैं।

अडियेन् अमिता रामानुजदासी 

आधार : http://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2022/12/saptha-kadhai-introduction-2/

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