यतिराज विंशति – श्लोक – १८

श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनय् नमः

यतिराज विंशति

श्लोक  १७                                                                                                श्लोक  १९

श्लोक  १८

कालत्रयेऽपि करणत्रयनिर्मिताति पापक्रियस्य शरणं भगवत्क्षमैव |
सा च त्वयैव कमलारमणेऽर्थिता यत् क्षेम: स एव हि यतीन्द्र! भवच्र्छितानाम्| १८ |

यतीन्द्र                                 : रामानुज स्वामिन्!
कालत्रये                                : भूत भविष्य वर्तमान तीनों कालों में
करणत्रय निर्मित अतिपाप      : मनो वाक् काय से जिसने बहुत
भगवत् क्षमा एव शरणम्        : भगवान की क्षमा एक ही गति है
सा च त्वया एव                     :  वह क्षमा भी आप से
कमलारमणे अर्थिता इति यत् : श्रीरंगनाथ की सेवा में प्रार्थित थी
स एव भवत् श्रितानां              : वह प्रार्थना ही आपकी शरण में आए हुए मनुष्यों की
क्षेम:                                    :     कुशलता का कारण है||

पिछले श्लोक में उक्त विषय का समर्थन इस श्लोक में किया जाता है| यध्यपि शास्त्रों में कहा जाता है कि अपराधी चेतनों को परमात्मा की क्षमा एक ही गति है, मेरे जैसे अपराधियों को भगवान तक जाने की आवश्यकता नहीं|

एक फाल्गुन उत्तरफाल्गुनी के उत्सव के दिन दिव्यदम्पति के सामने गध्यत्रय का अनुसन्धान करके आपने जो प्रार्थना की थी उसका जो उत्तर आपको भगवान की ओर से प्राप्त हुआ वह विश्वविख्यात है| भगवान तथा लक्ष्मी का यही प्रतिवचन था कि आपको और आपके सम्बन्धी के सम्बन्धी लोगों को भी किसी तरह की कमी नहीं है| जब वह है, तब भगवान के सामने जाकर मुँह बाए बैठने की क्या जरूरत है?

यहाँ पर आचार्य श्रीनिगमान्तदेशिक के न्यासतिलक का श्लोक अनुसन्धेय है;

उक्त्या धनञ्जयविभीषणलक्ष्यया ते, प्रत्याय्य लक्ष्मणमुनेर्भवता वितीर्णम् |
श्रुत्वा वरं तदनुबन्धमदावलिप्ते , नित्यं प्रसीद भगवन्! मयि रंगनाथ
|| ”

अर्थात् अर्जुन और विभीषण सूरि को लक्षित करके आपकी जो उक्ति हुई थी,
अर्जुन के लिये        : सर्वधर्मान् पारित्यज्य मामेकं शरणंव्रज | अहंत्वा सर्व पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि माशुचः ||
विभीषण के लिये    : सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते | अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतत् व्रतं मम ||
लक्ष्मणमुनि को, रामानुज स्वामीजी को भी भगवान ने कह दिया था कि रामानुज! :
अस्योचिंता परम वैदिक दर्शनस्य रामानुजार्य कृतिनोऽपि कृतं कृतज्ञ:रंगेश्वर: प्रथयितुं प्रथयाञ्चकार-रामानुजास्य मतमित्यभिधानमस्य ||

श्रीरामानुज स्वामीजी द्वारा श्रीभाष्य, गीताभाष्य आदि प्रस्थानत्रयी जो कृति पर तथा उनके द्वारा की गई अद्भुत सेवाओं, जीवों का संरक्षण भाव इत्यादि से प्रसन्न होकर कृतज्ञता ज्ञापन करते हुये श्री रंगनाथ भगवान ने उन्हें एक बड़ा वरदान दिया था कि परम वैदिक दर्शन, विशिष्टाद्वैत दर्शन श्रीरामानुज मत के नाम से कहा जायेगा, अर्थात् आपके नाम से ही यह सम्प्रदाय चलेगा, श्रीरामानुज सम्प्रदाय कहा जायेगा|

(विशिष्टाद्वैत या श्री सम्प्रदाय इसका नाम है और लक्ष्मीनाथ समारम्भां नाथयामुन मध्यमाम् , के अनुसार पहले लक्ष्मीनारायण भगवान हैं, फिर श्रीजी हैं, विष्वक्सेनजी हैं श्रीशठकोप स्वामीजी हैं, फिर नाथमुनि, यामुनमुनि हैम, फिर महापूर्ण स्वामीजी तब रामानुज स्वामीजी हैं, कितना दूर हैं फिर भी श्री रंगनाथ भगवान ने आपसे किये अनेक कृत्यों से उपकृत हो उन्हें यह वरदान दिया था )

कालत्रयेऽपि – अच्छे चालचलन के लिए कोई भी समय न रख कर सभी कालों में मन वाक् शरीर तीनों से पाप ही पाप कराते रहने वाला, भगवान की क्षमा का ही पात्र बन कर ठहरेगा| जो पाप प्रायश्चित्तों से या अनुभव से नहीं कट सकते, उन्हें तो भगवान की क्षमा के सिवाय दूसरी गति नहीं| वह क्षमा भी आज हमको नये सिर से प्रार्थना करके नहीं प्राप्त करनी है| पहले ही आपने प्रार्थना कर ले राखी है| अब आपके अभिमान में अन्तर्भूत होने के अतिरिक्त हमें तो कुछ करना नहीं है || १८ ||

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