यतिराज विंशति – श्लोक – १७

श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनय् नमः

यतिराज विंशति

श्लोक  १६                                                                                                 श्लोक  १८

श्लोक  १७

श्रुत्यग्र वेध्य निजदिव्य गुणस्वरूप: प्रत्यक्षतामुपगतस्त्विह रङ्गराज: |
वश्यस्सदा भवति ते यतिराज तस्मात् शक्त: स्वकीयाजनपापविमोचने त्वम्|| १७ ||

यतीन्द्र                                    : श्रीरामानुज !
श्रुत्यग्रेवध्य निज दिव्यगुण       : वेदान्तों से ही जिसके गुण
स्वरूप:                                    : स्वरूप आदि का ज्ञान हो सकता है
देशिक वर उक्त समस्त नैच्यम् : उत्तम आचार्यों ने जो नैच्यानुसंधान किया था वह सब
इह                                          : इस संसार में (जहाँ उसकी महिमा जान कर उसकी भक्ति करने वाला कोई नहीं)
प्रत्यक्षतां उपगत:                     : प्रत्यक्ष रूप से जो दीख पड़ता है
रङ्गराज:  सदा                        : वह भगवान श्रीरंगनाथ हमेशा
ते वश्य: भवति तस्मात्            : आपके वश में रहता है इसलिये
स्वकीय जन पाप विमोचन       : अपने दासों के पाप दूर करने में
त्वं शक्त:                               : आप शक्तियुक्त हैं

यह समझ कर कि अब तक के श्लोकों में जो प्रार्थना की गई थी, उसे सुन कर श्रीरामानुज कहते हैं – यह आप क्या कहते हैं, इष्ट की प्राप्ति और अनिष्ट की निवृत्ति करने वाला तो ईश्वर है| मैं उसे थोड़े ही कर सकता हूँ? इस दशा में मेरे पास प्रार्थना करने से क्या लाभ है यह उन्हीं के सामने की जानी चाहिए| आगे कहते हैं ‘यह प्रसिद्ध है कि वह परमात्मा जब श्रीरंगनाथ बनकर आया, तब सब प्रकार से आपके आधीन है और आप जो कुछ चाहते हैं उसे कर ही देता है| ऐसा हो तो प्रार्थनाएँ आपकी सेवा में ही की जानी चाहिए|’

पुरूषसूक्त नारायणानुवाक आदि ही में गुरूमुख से जिसका स्वरूप, रूप, गुण आदि विदित होता है, वह भगवान आज भूमि पर, संसार के मनुष्यों के उज्जीवन के लिए, सब दु:ख दूर होने एवं सुख अभिवृद्धि होने के लिए श्रीरंग में आकार दक्खिन की और मुहँ करके शयन कर रहा है| जैसे कूरेशजी लिखते हैं;

“ अखिलनेत्रपात्रमिह सन् सह्योद्भवायास्तटे |
श्रीरंगे निजधाम्नि शेषशयने शेष वनाद्रीश्वर || ”

अपनी विभव दशा एवं अर्चा दशा में वह आपका आज्ञाकारी है| तब अपनी इच्छा से उसे आज्ञा देकर काम कराने में क्या संकोच है ?

यह कैसे कहते हैं कि “ वश्यस्सदा भवति ते यतिराज” , इसका उत्तर हो सकता है; शरणागति गध्य में आपने जो जो प्रार्थनाएँ कीं, रंगनाथ ने सबके बारे में यही कहा कि वैसा ही हो| तथा अन्य कई इतिहास भी हैं जिनके बल से आप यह कहते हैं| श्रीशठकोप स्वामी की सहस्त्रगीति की ४.३.५ वीं गाथा की ३६००० व्याख्या में एक ऐतिह्य है – एक दिन एक श्रीवैष्णव धोबी भगवान के पीताम्बर बहुत ही सुन्दर ढंग से साफ कर लाया और रामानुज के सामने रखा| उसे देखकर वे बहुत प्रसन्न हुए और उसे रंगनाथ के सामने ले जाकर वस्त्रों को दिखा कर बोले – यह देखने की कृपा कीजिये कि कैसे सुन्दर रूप से इसने पीताम्बर साफ किया है|

वह देख कर भगवान तृप्त हुए और रामानुज से बोले; लीजिये, इसके बदले में उस दोष को क्षमा कर देता हूँ जिसे एक धोबी ने हमारे प्रति किया था| (धोबी का पिछला अपराध – अक्रूर के संग एक बार कृष्ण और बलराम मथुरा गये और वहाँ वीथि में कंस का धोबी कपड़ों की गठरी लाड़ कर आ रहा था| उसे देख दोनों ने उससे कुछ कपड़े माँगे, उसने इनकार कर दिया |)

श्रीरांगनाथ के सम्बन्ध में कुलशेखर कहते हैं कि ये वही श्रीराम हैं जिन्होंने विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा कर के उनका अवभृथ कराया| जब वे राम थे तब उनके किंकर बन कर उनकी सेवा करने के लिए विश्वामित्र के पीछे गये|

“ इमौ स्म मुनिशार्दूल किंकरौ समुपस्थितौ |
आज्ञापय यथेष्टं वै शासनं करवाव किम् ||”
श्रीराम होकर विश्वामित्र के विधेय रहे तो श्रीरामानुज के विषय में क्यों पूछें ? १७ ||

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