ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) ३२

श्री:
श्रीमते शठकोपाय नम:
श्रीमते रामानुजाय नम:
श्रीमत् वरवरमुनये नम:

ज्ञान सारं

ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) ३१                                                            ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) ३३

पाशुर-३२

मानिडवन एन्रुम गुरुवै मलर मगल कोन
तान उगन्द कोलम उलोगम एन्रुम – ईनमदा
एण्णुगिन्रु नीसर इरुवरुमे एक्कालुम
नण्णिडुवर कीलाम नरगु

३०वें पाशुर में (माडुम मनैयुम), श्रीदेवराज मुनि स्वामीजी उस विधी विधान शास्त्र के बारें में बात करते हैं जो यह कहता है कि हमें उन लोगों के साथ सम्बन्ध नहीं रखना चाहिये जो अपने उस आचार्य को सन्मान नहीं देते हैं जिन्होंने हमें आठ अक्षरों वाला तिरुमन्त्रं समझाया है। ३१वें पाशुर में (वेदमोरू नान्किन) यह बताया गया है कि हमारे आचार्य जिन्होंने हमें द्वय महामन्त्रं कहा है जिसमे शरणागति शास्त्र भी है उनके चरण कमल हीं किसी व्यक्ति के लिये उपाय हैं। इन दो पाशुरों में इस तरह आचार्य कि बढाई की गयी है। ऐसे आचार्य को भगवान के अन्य अवतार जैसे रामावतार, कृष्णावतार आदि के जैसे समझना चाहिये। हमें आचार्य अवतार को भगवान श्रीमन्नारायण के विशेष अवतार समझकर आनंदित होना चाहिये। अगर कोई व्यक्ति अपने आचार्य को भगवान श्रीमन्नारायण का अवतार न समझता हो और उनको वह दूसरे इन्सानों के जैसे ही समझता है तो ऐसे विचारों के परिणाम को इस पाशुर में समझाया गया है। इसके अलावा अगर कोई व्यक्ति भगवान के दिव्य मंगल विग्रह (भगवान का अर्चा रूप जिसमें भगवान मंदिरों में विराजमान हैं) किस धातु या उस तरीके से बने हैं इसके खोज या तलाश में लगा हो तो उसके परिणाम को भी इस पाशुर में समझाया गया है।

 गुरुवै – अगर कोई व्यक्ति अपने आचार्य के बारें जिन्होंने हमें मन्त्रं सिखाया और समझाया हैं यह सोचता है कि | मानिडवन एन्रुम – वह हमारे जैसे दूसरे इन्सान हैं | मलर मगल कोन – अगर कोई व्यक्ति भगवान श्रीमन्नारायण के बारें में यह सोचते हैं कि | तान उगन्द कोलम – मूर्ति समझते हैं जिसमें वह स्पष्ट रूप से प्रसन्न हैं | उलोगम एन्रुम – एक मूर्ति जो एक धातु जैसे “पञ्चलोकं” आदि से बना हैं | ईनमदा – और उनके (आचार्य और भगवान के श्रीविग्रह) साथ व्यवहार करना / निकाल देना जैसे अल्पमूल्य / अयोग्य | एण्णुगिन्रु – ऐसे लोग जो ऐसा विचार करते हैं | नीसर – वे नीचे से भी नीचे लोग हटे हैं | एक्कालुम – यह दो प्रकार के लोग (एक जो अपने आचार्य का निरादार करते हैं और एक जो भगवान का निरादार करते हैं) | एक्कालुम – वह सदैव के लिये | नण्णिडुवर – पहुँचेंगे | कीलाम नरगु – नरक में और हमेशा के लिये वहीं रहेंगे।

स्पष्टीकरण:

मानिडवन एन्रुम गुरुवै: हर एक को यह विश्वास करना चाहिये कि भगवान श्रीमन्नारायण ने इस सन्सार में जो निरन्तर जन्म मरण के चक्कर में फँसे हैं ऐसे लोगों का दु:ख दूर करने के लिये “आचार्य” के रूप में अवतार ग्रहण किया है। बहुत से ग्रन्थों में विस्तृत रूप से भगवान नारायण के बारें में कहा गया हैं जिन्होंने मनुष्य रूप में जन्म लिया (जो आचार्य हीं हैं)। अत: आचार्य और कोई नहीं स्वयं भगवान श्रीमन्नारायण हीं हैं। हमारे शास्त्र यह कहते हैं अगर कोई अपने आचार्य को दूसरे मनुष्य के जैसे हीं व्यवहार करता हैं तो जो कुछ भी ज्ञान उसने अपने आचार्य से प्राप्त किया है वह सम्पूर्ण निष्फल है। मलर मगल कोन तान उगन्द कोलम उलोगम एन्रुम: पेरिया पिरट्टी के स्वामी भगवान श्रीमन्नारायण खुशी से अर्चा रूप में मन्दिर में वास करते हैं। वह हमेशा हम सब में रहते हैं। परन्तु अगर कोई व्यक्ति इस बात कि खोज करना शुरु करता है वह मूर्ति किस संयोजन और धातु जैसे पञ्चलोकं, लकड़ी आदि से बनी है वहीं अपने आप में एक अपचार है। श्री शठकोप स्वामीजी अपने सहस्त्रगीति ८-१-४ “उमर उगन्धा उरुवं निनुरुवं” में भगवान श्रीमन्नारायण के इस अर्चा रूप के बारें में समझाया हैं। इसका यह अर्थ हैं कि अगर भक्त कौनसे भी रूप में भगवान श्रीमन्नारायण की आराधना करता है तो भगवान उसे उसी रूप में खुशी से उसकी प्रार्थना स्वीकार करते हैं और विराजमान होते हैं। उस अर्चा रूप में भगवान अपने आप को स्पष्टता से अपने दूसरे श्रेष्ठ रूप के जैसे परमपदधाम, तिरुपार्कदल आदि में दर्शन देते हैं। यह रूप और कुछ नहीं वह रूप है जो उनके भक्त जन उनसे अपेक्षा करते हैं और इसलिये यह उनका रूप श्रेष्ठ हो जाता है। ऐसे अर्चा रूप में जिनसे उनके भक्त जन उनसे अपेक्षा करते हैं वह खुशी से आकर उनके पास अपने श्रेष्ठ गुणों के साथ रहते हैं। इसलिये वह अर्चा रूप तुरन्त हीं श्रेष्ठ हो जाते हैं। इसके अलावा जो भी शृंगार आभूषण भगवान ने उनके इस अर्चा रूप में धारण किये हो वह भी भगवान के समान दिव्य हो जाते हैं न कि इसके प्रतिकुल जो सांसारिक विचार और सम्बन्ध होने से। शास्त्र के अनुसार इसको “अप्राकृतं” कहते है। वहीं शास्त्र उनका पूरे कठोरता से विरोध करते हैं जो भगवान के अर्चा रूप का बाह्य दर्शन करते हैं और उस मूर्ति के बारें में खोज शुरू कर देते हैं कि वह किस धातु से बनी हैं और उसका संयोजन क्या हैं। वह उसको केवल एक धातु / लकड़ी समझते हैं और यह विश्वास नहीं करते कि वह सच में वहाँ विराजमान हैं। यह एक बहुत निर्दयी अपचार हैं। इसके लिए एक उदाहरण देते हुए शास्त्र कहते हैं कि यह पाप उसी तरह हैं कि जिस तरह उस कि खोज करना कि एक शिशु अपने माँ के गर्भ से पहिली बार कहाँ से बाहर आया था।

ईनमदा एण्णुगिन्रु नीसर: – यह आदर करना कि वह नीच / तुच्छ है। यह दोनों प्रकार के लोगों को शामिल करता है वह जो अपने आचार्य को मनुष्य समझता है और वह जो भगवान के विग्रह को धातु जो पञ्चलोकं आदि से बना है ऐसा समझता है। “नीसर” शब्द यह समझाता है कि वह लोग जिनके नीचे और कोई व्यक्ति कहीं भी नहीं हैं। यहाँ दोनों को तीक्ष्ण अपराधी कहा गया है और इसलिये योग्यता अनुसार उन्हें “कर्म चांडालर्गल” कहते हैं क्योंकि उन्होंने अपने आचार्य को मनुष्य और भगवान के अर्चा विग्रह को एक धातु के जैसे देखा हैं। इन दोनों प्रकार के व्यक्तियों को उनके अत्यन्त नीच विचार के कारण (नीसर) सबसे नीच ऐसा देखा है। तमील पद “उल्लुवधेल्लां उयर वल्लाल” को फिर से यहाँ एकत्रित करना उचित होगा। अगर कोई बढाई के बारें में सोचता हैं और अगर उसके विपरित सोचता हैं तो वह अपचार हैं।

इरुवरुमे: उपर बताये गये दोनों प्रकार के लोगों को एक साथ जोड़कर उनके दोष के कारण उन्हें एक वर्ग “अपराधी” में रखा गया हैं। जबकि एक अपने आचार्य को मनुष्य मानकर अपमान करता है और दूसरा केवल यह प्रश्न करता है और खोज करता है कि भगवान का अर्चा विग्रह किस धातु से बना है और यह ध्यान नहीं देता है कि उस अर्चा रूप में कौन विराजमान हैं। यह दोनों अपराधी को एक ही परिणाम भोगना पड़ेगा जिसकी आगे चर्चा करेंगे।

एक्कालुम नण्णिडुवर कीलाम नरगु: यह दोनों अपराधी नरक हीं जायेंगे और हमेशा के लिये वहाँ हीं रहेंगे। यहाँ हमेशा के लिये का अर्थ है जब भी समय का विचार होगा। जिस प्रकार का नरक यहाँ बताया गया हैं वह बहुत निर्दयी है। वह इतना निर्दयी हैं कि इससे निर्दयी नरक और कौनसा भी हो हीं नहीं सकता। नरक वह जगह है जहां केवल दु:ख ही है यानि यहाँ कण मात्र भी खुशी नहीं हैं जो एक व्यक्ति अनुभव कर सकता हैं न हीं एक पल भी दु:ख से बाहर आ सकता है। नरक वह जगह हैं जहां एक व्यक्ति बिना रुके दु:खों को भोगता हैं। ये अपराधी इस नरक में कोई नियमित समय के लिये नहीं बल्कि आजीवन वहीं रहते हैं। वे उस नरक में हीं पैदा होते हैं, वहीं रहते हैं और वहीं मर जाते हैं। यह जीवन का चक्र ऐसे ही चलता जाता है। इस चक्र का कोई अन्त नहीं है। यह वह लोग हैं जो संसार सागर के चक्र से कभी बाहर नहीं आते हैं और सागर के दूसरे किनारे में नहीं पहुँचते। यह ऐसे मुर्ख हैं जो सन्सार सागर के दु:खों में ही रहते हैं। अत: इन दोनों अपराधियों को बचने के लिये और कोई रास्ता हीं नहीं है। यह दोनों अपराधियों को जोड़ने का विचार यानि अपने आचार्य को मनुष्य समझना और भगवान के अर्चा रूप को धातु कहना तमील व्याकरण “उड़ान नवीर्चि पोरुल” मे बताया गया हैं।

हिन्दी अनुवादक – केशव रामानुज दासन्

Source: http://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2015/02/gyana-saram-32-manidavan-ennum/

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