श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनय् नमः
श्लोक १५
शुद्धात्म यामुनगुरूत्तम कूरनाथ भट्टाख्य देशिकवरोक्त समस्तनैच्यम् |
अध्यास्त्यसंकुचितमेव मयीह लोकेतस्माद्यतीन्द्र करूणैव तु मद्गतिस्ते | १५ |
यतीन्द्र : श्रीरामानुज !
शुद्धात्मयामुनगुरूत्तम : परमपवित्र उत्तमयामुन गुरू (आलवंदार)
कूरनाथ भट्टाख्य : कूरनाथ (आल्वान्) भट्ट आदि
देशिक वर उक्त समस्त नैच्यम् : उत्तम आचार्यों ने जो नैच्यानुसंधान किया था वह सब
इह लोक अध्य : इस संसार में परिपूर्ण रूप से है
मयि एव असंकुचितम् अस्ति : मुझ ही में परिपूर्ण रूप से है
तस्मात् ते करूणा एव तू मद्गति: : इसलिये आपकी करूणा ही मेरी शरण है; अथवा आपकी करूणा की शरण मैं एक ही हूँ |
पिछले श्लोक में उक्त रीति से कूरेशजी एक का नैच्य ही नहीं, परन्तु आलवन्दार, कूरेशजी भट्ट इन आचार्यों के नैच्य भी उनमें तो कुछ नहीं, सब मुझ में ही हैं| इस समय इस संसार में जहाँ भी देखिये मुझ जैसा दूसरा नीच व्यक्ति आप को नहीं मिलेगा| इसलिए, अपनी कृपा का पात्र मुझे बना कर मेरी रक्षा कीजिए|
आलवन्दार का नैच्यानुसन्धान “न निन्दितं कर्म तदस्ति लोके” “अमर्याद: क्षुद्र:” इत्यादि श्लोकों में देखने में आता है| कूरेशजी का नैच्यानुसन्धान “तापत्रयीमयदावानलदह्यामान” से लेकर बीस पचीस श्लोकों में उपलभ्य है| भट्ट का नैच्यानुसन्धान “गर्भजन्मजरामृति” “असन्निकृष्टस्य निकृष्टजंतो:” इत्यादि श्लोकों में है|
“शुद्धात्म” यह विशेषण तीनों आचार्यों के लिए लागू है| इसका तात्पर्य यह है की उस नैच्यानुसन्धान की उनके पास संभावना नहीं है || १५ ||
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