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तिरुवाय्मोळि नूट्रन्दाधि (नूत्तन्दादि) – सरल व्याख्या– पाशुरम १ – १०

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।श्री: श्रीमते शठकोपाय नम: श्रीमते रामानुजाय नम: श्रीमत् वरवरमुनये नमः।।

श्रुंखला

paramapadhanathan

पहला पाशुरम : (उयर्वे परन् पडि…) यहाँ, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी आळ्वार के दिव्य शब्दों का अर्थ
समझा रहे हैं , अर्थात् तिरुवाय्मोळि का यह पहला दशक, जो एम्पेरुमान की सर्वोच्चता को प्रकट करता है और जो
निर्देश देता है कि “परमेश्वर के दिव्य चरणों का आश्रय लेने का और उत्थान होना ”, चेतन को
मोक्ष (मुक्ति) की ओर ले जाएगा।

उयर्वे परन् पडियै उळ्ळदेल्लाम् तान् कण्डु
उयर् वेद नेर् कोण्डुरैत्तु – मयर्वेदुम्
वारामल् मानिडरै वाळ्विक्कुम् माऱन् सोल्
वेरागवे विळैयुम् वीडु

सर्वोच्च भगवान की महानता वाली पूर्ण प्रकृति की कल्पना करते हुए नम्माळ्वार ने दयापूर्वक श्रुति की शैली में
बात की जो सबसे शीर्ष प्रमाण है; नम्माळ्वार के दिव्य वचन यह सुनिश्चित करेंगे कि मनुष्यों को उनका उत्थान
करने के लिए रत्ती भर भी अज्ञान नहीं होगा और वे उन्हें मोक्ष की ओर ले जाएंगे।

दूसरा पाशुरम : इस पाशुर में, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी आळ्वार के सन्सारियों को दिए गए निर्देशों के शब्दों
का आनंद ले रहे हैं, उनसे अनुरोध कर रहे हैं कि उन्हें सुधारा जाए और उनके अपने दिव्य हृदय की तरह एक
साथी के रूप में बने रहें, और दयापूर्वक इसके बारे में बोलते रहें ।

वीडु सेय्दु मऱ्ऱेवैयुम् मिक्क पुगळ् नारणन् ताळ्
नाडु नलत्ताल् अडैय नन्गुरैक्कुम् – नीडु पुगळ्
वण् कुरुगूर् माऱन् इन्द मानिलत्तोर् ताम् वाळप्
पण्बुडने पाडि अरुळ् पत्तु

इस विशाल पृथ्वी के निवासियों के उत्थान के लिए श्रेष्ठ तिरुक्कुरुगुर के नेता, महान गौरवशाली नम्माळ्वार
द्वारा दयालुता से गाए गए ये दस पाशुरम, दुनिया के निवासियों को अच्छी तरह से निर्देश देंगे कि वे सब कुछ
छोड़ दें और अपार महिमावाले भगवान श्रीमन्नारायण के दिव्य चरणों तक पहुँचने की इच्छा करें।

तीसरा पाशुरम : इस पाशुर में, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी [आळ्वार के] दिव्य वचनों का अनुसरण कर रहे हैं,
जिसमें भगवान के सौलभ्य (सादगी) का निर्देश दिया था और दयापूर्वक उसी की व्याख्या की थी।

पत्तुडैयोर्क्केन्ऱुम् परन् एळियनाम् पिऱप्पाल्
मुत्ति तरुम् मानिलत्तीर् मूण्डवन्पाल् – पत्ति सेय्युम्
एन्ऱुरैत्त माऱन् तनिन् सोल्लाल् पोम् नेडुगच्
चेन्ऱ पिऱप्पाम् अन्जिऱै

आळ्वार की मधुर तिरुवाय्मोळि के अभ्यास से, जैसा कि उन्होंने दयापूर्वक कहा था “सर्वेश्वरन अपने भक्तों के
लिए हमेशा आसानी से उपलब्ध होते हैं; वे दयापूर्वक अपने अवतारों के माध्यम से मोक्ष प्रदान करेंगे; हे विशाल
पृथ्वी के निवासियों! उनके प्रति परिपक्व प्रेम के साथ भक्ति में संलग्न हो जाओ”, यह जन्म का बंधन जो लंबे समय
से हमारे पीछे पड़ा है, छूट जाएगा।

चौथा पाशुरम : इस पाशुर में, श्रीवरवरमुनी स्वामीजी आळ्वार के पाशुरम का अनुसरण कर रहे हैं जिसमें
पक्षियों से अनुरोध किया गया है कि वे एम्पेरुमान के दूत के रूप में जाकर उन्हें उनके अपराध सहत्व (अपराधों
को सहन करना) के बारे में सूचित करें और दयापूर्वक समझाएं।

अन्जिऱैय पुट्कळ् तमै आळियानुक्कु नीर्
एन् सेयलैच् चोल्लुम् एन इरन्दु – विन्ज
नलन्गियदुम् माऱनिन्गे नायगनैत् तेडि
मलन्गियदुम् पत्ति वळम्

आळ्वार ने सुंदर पंखों वाले पक्षियों को देखा, और प्रार्थना की “तुम जाओ और मेरी स्थिति की सर्वेश्वरन को
बताओ जिनके पास चक्रायुध है”, बहुत असक्त हो गए, इस दुनिया में भगवान की खोज की
और भ्रमित हो गए; यह उनकी भक्ति की महानता है।

पांचवां पाशुरम । इस पाशुर में, श्रीवरवरमुनी स्वामीजी आळ्वार के पाशुरम का अनुसरण कर रहे हैं जो
एम्पेरुमान की सौशील्य (सरलता) के बारे में बताते हैं जो हर किसी को उनकी शरण लेने की सुविधा प्रदान
करता है और दयापूर्वक इसे समझा रहे हैं।

वळमिक्क माल् पेरुमै मन् उयिरिन् तण्मै
उळामुऱ्ऱन्गूडुरुव ओर्न्दु – तळर्वुऱ्ऱु
नीन्ग निनै माऱनै माल् नीडिलगु सीलत्ताल्
पान्गुडने सेर्त्तान् परिन्दु

आळ्वार ने अपने दिल में ,प्रचुर मात्रा में धनवान , एम्पेरुमान की महानता और अपनी आत्मा की नीचता को महसूस किया,
इसका गहराई से विश्लेषण किया और कमजोर हो गए और एम्पेरुमान को छोड़ने के बारे में सोचा;
सर्वेश्वरन ने, अपने अत्यधिक चमकदार शीलगुण के साथ, खुशी से आळ्वार को एक दोस्ताना तरीके से गले
लगा लिया।

छठा पाशुरम : इस पाशुर में, श्रीवरवरमुनी स्वामीजी आऴ्वार के पाशुरम का अनुसरण करते हुए कह रहे हैं कि
एम्पेरुमान के पास जाना और उनकी पूजा करना मुश्किल नहीं है और दयापूर्वक इसे समझा रहे हैं।

परिवदिल् ईसन् पडियैप् पण्बुडने पेसि
अरियन् अलन् आरादनैक्केन्ऱु – उरिमैयुडन्
ओदि अरुळ् माऱन् ओळिवित्तान् इव्वुलगिल्
पेदैयर्गळ् तन्गळ् पिऱप्पु

आळ्वार, जिन्होंने दयापूर्वक घनिष्ठ मित्रता के साथ बात की, ने सर्वेश्वर की प्रकृति की व्याख्या की, जो सभी
दोषों के विपरीत है, “सर्वेश्वरन, स्वभाव से पूर्ण होने के कारण, जो कुछ भी उन्हें दिया जाता है उससे संतुष्ट हैं,
और तिरुवाराधनम करना मुश्किल नहीं है” और दयापूर्वक इस दुनिया में अज्ञानी लोगों के जन्म
[वृद्धावस्था, बीमारी और मृत्यु] समाप्त कर दिया।

सातवां पाशुरम : इस पाशुर में, श्रीवरवरमुनी स्वामीजी आळ्वार के पाशुरों का पालन कर रहे हैं और भगवान
के प्रति समर्पण करने के आनंद को महिमामंडित कर रहे हैं और दयापूर्वक इसे समझा रहे हैं।

पिऱवि अऱ्ऱु नीळ् विसुम्बिल् पेर् इन्बम् उय्क्कुम्
तिऱम् अळिक्कुम् सीलत् तिरुमाल् – अऱविनियन्
पऱ्ऱुमवर्क्केन्ऱु पगर्माऱन् पादमे
उऱ्ऱ तुणै एन्ऱु उळमे ओडु

हे हृदय! आळ्वार के दिव्य चरणों को ध्यान में रखते हुए, जिन्होंने दयापूर्वक कहा ,”श्रीमन नारायण,जो अपने शरणागतों को पुनर्जन्म लेने से मुक्त करते हैं ;और परमपद धाम में परमानंद का आनंद लेने का मार्ग प्रदान करने का गुण रखते हैं, उनके (शरणागतोंके ) लिए बहुत सुखद है।”, एकमात्र उपयुक्त साथी हैं | जल्दी जाओ और [उन्हें ] समर्पण करो

आठवां पाशुरम : इस पाशुर में, श्रीवरवरमुनी स्वामीजी आऴ्वार के दिव्य पाशुरों का अनुसरण कर रहे हैं जो
एम्पेरुमान की ईमानदारी को उजागर करते हैं जहाँ वे ईमानदार और बेईमान लोगों के साथ समान व्यवहार
करते हैं और जिसे दयापूर्वक समझा रहे हैं।

ओडु मनम् सेय्गै उरै ओन्ऱि निल्लादारुडने
कूडि नेडुमाल् अडिमै कोळ्ळुनिलै – नाडऱिय
ओर्न्दवन् तन् सेम्मै उरै सेय्द माऱन् एन
एय्न्दु निऱ्कुम् वाळ्वाम् इवै

आळ्वार , जिन्होंने सर्वेश्वरन के ,उन बेईमान व्यक्तियों, जिनके मन,शरीर और वाणी में सामंजस्य नहीं है, को स्वीकार करने की गुणवत्ता का विश्लेषण किया , और लोगों को अच्छी तरह से जागरूक बनाने के लिए भगवान की ईमानदारी के बारे में दयापूर्वक बात की, उस आळ्वार के अनुसन्धान करनेवालोंको उनके स्वरूप के उचित (कैंकर्य ) ऐश्वर्य प्राप्त कर, हमेशा सुखी रहेंगें।

नौवां पाशुरम : इस पाशुर में, श्रीवरवरमुनी स्वामीजी आऴ्वार के पाशुरों का पालन कर रहे हैं, जिसमें
एम्पेरुमान के आनंद प्रदान करने के गुणों को चरणबद्ध तरीके से उजागर किया गया है और दयापूर्वक इसकी
व्याख्या कर रहे हैं।

इवै अऱिन्दोर् तम् अळविल् ईसन् उवन्दाऱ्ऱ
अवयन्गळ् तोऱुम् अणैयुम् सुवै अदनैप्
पेऱ्ऱार्वत्ताल् माऱन् पेसिन सोल् पेस, माल्
पोऱ्ऱाळ् नम् सेन्नि पोरुम्

जिन लोगों ने पिछले दशक में बताये गए सर्वेश्वर के धार्मिकता (आर्जव) जैसे गुणों को महसूस किया ,उनके साथ भगवान कदम दर कदम उनके प्रत्येक अंग के साथ खुशीसे एकजुट होनेकी आनंद का अनुभव करते हुए, आळ्वार उसे दयापूर्वक समझाए । आळ्वार की ऐसी श्रीसूक्तियों को बोलनेसे सर्वेश्वरन के दिव्य चरण हमारे सिर के साथ जुड़ जाएंगे।

दसवां पाशुरम : इस पाशुर में, श्री वरवरमुनि, उन पाशुरोंका , जिनमे आळ्वार, इस बात से संतुष्ट हैं कि “भगवान के सभी अंगों के साथ एक जुट होने का कोई विशेष कारण नहीं है, सिर्फ निर्हेतुक ( कारणहीन) कृपा है ” अनुसरण करते हुए, दयापूर्वक समझातें हैं|

पोरुम् आळि सन्गुडैयोन् पूदलत्ते वन्दु
तरुमाऱोरेदुवऱत्तन्नै – तिरमागप्
पार्त्तुरै सेय् माऱन् पदम् पणिग एन् सेन्नि
वाळ्त्तिडुग एन्नुडैय वाय्

जिस आळ्वार ने , भगवान, जिनके हाथ में श्री सुदर्शन चक्र और श्रीपांचजन्य हैं, बड़ी कृपा से बिना किसी कारण इस दुनिया में अवतरित हुए, और दूसरों को खुद को देने की प्रकृति का आनंद लिए और दयापूर्वक बात की , मेरा सिर ऐसे आळ्वार के दिव्य चरणों में नतमस्तक हो; मेरा मुख उनके लिए मंगलासासनम करे।

अडियेन् रोमेश चंदर रामानुज दासन

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उपदेश रत्तिनमालै – सरल व्याख्या – पासुर ४ – ६

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उपदेश रत्तिनमालै

<< पासुर १ – ३

पासुर ४

चौथे पासुर में मामुनिगळ् ,आऴ्वार् जिस क्रम में अवतरित हुए, उस क्रम को बताया है |

पोय्गैयार् भूतत्तार् पेयार् पुगऴ् मऴिसै
अय्यन् अरुळ् माऱन् सेरलर् कोन् – तुय्य भट्ट
नादन् अन्बर् ताळ् दूळि नऱ्पाणन् नऱ्कलियन्
ईदु इवर् तोट्रदु अडैवाम् इङ्गु॥॥ ४॥ 

आळ्वारों के अवतरण का क्रम बताया गया पोय्गै आऴ्वार्, भूतत् आऴ्वार्, पेय् आऴ्वार्, तिरुमऴिसै आळ्वार्  जो चिरस्थायी प्रसिद्धि प्राप्त कर चुके हैं। नम्माऴ्वार् जो अनुग्रह से परिपूर्ण हैं ,कुलशेखरप्  पेरुमाळ् जो चेर राजाओं के राजा हैं,  पेरियाऴ्वार्  जिनके पास शुद्ध हृदय है, तोण्डरडिप्पोडि आऴ्वार् , तिरुप्पाण् आऴ्वार् और तिरुमंङ्गै आऴ्वार् जो पूरी तरह से पवित्र हैं । 

पासुर ५

पांचवे पासुर में उन महीनों और नक्षत्रों को करुणा पूर्वक सूचीबद्ध किया जाएगा , जिनमें आऴ्वार् का अवतरण हुआ था। 

अन्दमिऴाल् नऱ्कलैगळ् आय्न्दुरैत्त आऴ्वार्गळ्
इन्द उलगिल् इरुळ् नीङ्ग – वन्दु उदित्त
मादङ्गळ् नाळ्गळ् तम्मै मण्णुलगोर् ताम् अऱिय
ईदु एन्ऱु सोल्लुवोम् याम् ॥ ५॥ 

आऴ्वारों ने वेद (पवित्र ग्रंथों) के गूढ़ अर्थों का विशलेषण कर, उच्चतर अर्थों का निर्देश दिया, जिससे अज्ञान का अंधकार इस पृथ्वी से हट गया।आगे उन महीनों और दिनों को सूचित किया जाएगा, जिनमें आऴ्वारों का अवतरण हुआ था, ताकि समस्त संसार उन्हें जान सके। 

पासुर ६ 

छठे पासुर में पहले तीन आऴ्वारों के अवतार की महानता का वर्णन किया है, जिन्हें सामूहिक रुप से मुदलाऴ्वार् (पहले आऴ्वार्) कहा जाता हैं। 

ऐप्पसियिल् ओणम् अविट्टम् सदयम् इवै
ओप्पिलवा नाळ्गळ् उलगत्तीर् – एप्पुवियुम्
पेसु पुगऴ् पोय्गैयार् भूतत्तार् पेयाऴ्वार्
तेसुडने तोन्ऱु सिऱप्पाल् ॥ ६॥ 

ऐ दुनिया के लोगों! जान लो। ऐप्पसी (आश्विन) महीने के तिरुवोणम् (श्रवण), अविट्टम् (धनिष्ठा), सधयम् (शतभिषा) नक्षत्रों के दिन अद्वितीय हैं। यह क्रमशः– वैभवशाली पोय्गै आऴ्वार्, भूतत्ताऴ्वार्, पेयाऴ्वार् के अवतार के कारण है। इन तीन आऴ्वारों को सभी के द्वारा मनाया जाता है।

अडियेन् दीपिका रामान्ज दासि

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उपदेश रत्तिनमालै – सरल व्याख्या – पासुर १ – ३

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उपदेश रत्तिनमालै

<< तनियन्

इस पासुर में मामुनिगळ् अपने आचार्य ( शिक्षक) को प्रणाम करते हैं, और स्पष्ट रूप से इस ग्रंथ को दया पूर्वक रचने के अपने उद्देश्य को बताते हैं। 

एन्दै तिरुवाय्मोऴि पिळ्ळै इन्नरुळाल्
वन्द उपदेस मार्गत्तैच् चिन्दै सेय्दु
पिन्नवरुम् कऱ्क उपदेसमाय्प् पेसुगिन्ऱेन्
मन्निय सीर् वेण्बाविल् वैत्तु ||१||

मुझे मेरे स्वामी ( उनके आचार्य को संदर्भित करता है) और पिता दृष्टि जिन्होंने मुझे अपनी महान दया से ज्ञान प्रदान किया, तिरुवाय्मोऴि पिळ्ळै, से निर्देश प्राप्त हुए। इसका विशलेषण करने के बाद, मैं इसे वेण्बा (VENBA) के महान काव्य के रूप में संकलित कर रहा हूँ, ताकि मेरे बाद आने वाले लोग इसे अच्छी तरह से सीख सकें और स्पष्टता प्राप्त कर सकें। 

पासुर २

यह मानते हुए कि उनका दिव्य मन उनसे एक प्रशन पूछ रहा है, “क्या वे लोग, जो इसे पसंद नहीं करते इसका उपहास नहीं करेंगे “? मामुनिगळ् अपने दिव्य मन को समझाते हुए कहते हैं कि ऐसे उपहासों का उनकी रचना पर कोई असर नहीं पडेगा। 

कट्रोर्गळ् ताम् उगप्पर् कल्वि तन्निल् आसै उळ्ळोर्
पेट्रोम् एन उगन्दु पिन्बु कऱ्पर् – मट्रोर्गळ्
माच्चरियत्ताल् इगऴिल् वन्ददु एन् नेञ्चे इगऴ्गै
आच्चरियमो तान् अवर्क्कु ॥ २॥ 

जो हमारे अच्छे दर्शन के ज्ञाता हैं, उन्हें प्रसन्नता होगी कि यह बहुत प्रमाणिक और सुन्दर है। जो हमारे पूर्वजों से अच्छे मूल्य सीखना चाहते हैं वे इसे सम्मान के साथ ग्रहण करेंगे। जो इन दोनों समूहों के नहीं हैं वे इसे जलन से उड़ा देंगे । यह उनकी प्राकृतिक  गुणवत्ता है। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। हमें इसमें दुखी होने की ज़रूरत नहीं है । 

पासुर ३ 

तीसरे पासुर में अपने मन को सांत्वना देने के बाद कृपापूर्वक पासुर की रचना करने का फैसला कर, मंगलाशासन से शुरू किया ताकि सभी अशुभ लक्षण दूर हो जाऐं। 

आऴ्वार्गळ् वाळि अरुळिच्चेयल् वाऴि
ताऴ्वादुमिल् कुरवर् ताम् वाऴि- एऴ्पारुम्
उय्य अवर्गळ् उरैत्तवैगळ् ताम् वाऴि
सेय्य मऱै तन्नुडने सेर्न्दु ॥ ३॥ 

आऴ्वार् युग युग जियें। दिव्य प्रबंध (दिव्यांग रचनायें) जिनकी उन्होंने दया पूर्वक रचना की चिरकाल तक रहें। 

जो यथोचित शब्द सारे संसार का उद्धार करते हैं जिन्हें हमारे आचार्यों ने कहा, जो आऴ्वारों के पथ पर आये चिरकाल तक रहें। इन सबका आधार वेद हैं, जो अपने आप में श्रेष्ठ हैं, युग युग तक रहें। 

अडियेन् दीपिका रामान्ज दासि

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उपदेश रत्तिनमालै – सरल व्याख्या – तनियन्

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उपदेश रत्तिनमालै

मुन्नम् तिरुवाय्मोऴिप्पिळ्ळै ताम् उपदेसित्त नेर्
तन्निन् पडियैत् तणवाद सोल् मणवाळ मुनि
तन् अन्बुडन् सेय् उपदेस रत्तिन मालै तन्नैत्
तन् नेञ्जु तन्निल् दरिप्पवर् ताळ्गळ् शरण् नमक्के

यह तनियन् ( एक अकेली स्तुति) जो ग्रंथ में एक अंतर्दृष्टि प्रदान करता है, जो मामुनिगळ् के महत्वपूर्ण शिष्यों में से एक, कोयिल कंदाडै अण्णन द्वारा दयालु रूप से रचित किया गया है। मामुनिगळ् वे हैं जिन्होंने तिरुवाय्मोऴि पिळ्ळै से हमारे आचार्यों के निर्देशों को अच्छे से ग्रहण किये और उन निर्देशों के अनुसार अपना जीवन व्यतीत किया। इस प्रकार मामुनिगळ् ने बहुत स्नेह के साथ, इस ग्रंथ के माध्यम से उन निर्देशों को सरलता से समझाया है। जो उन निर्देशों को अपने हृदय में अच्छे से संजोते हैं, उन मनुष्यों के दिव्य चरण ही हमारे शरण स्थान हैं। 

अडियेन् दीपिका रामानुज दासी

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उपदेश रत्तिनमालै – सरल व्याख्या

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अन्य प्रबंध

पिळ्ळै  लोकाचार्य और मणवाळ मामुनिगळ (श्रीपेरुम्बुतूर)

उपदेश रत्तिनमालै एक अद्भुत तमिल ग्रंथ (दिव्य संरचना) है, जिसे दया पूर्वक हमारे मणवाळ मामुनिगळ द्वारा रचित किया गया है। जो “विशधवाक शिखामणि “(एक प्रभावशाली वाणी, और जो मुकुट में जडे आभूषण के समान हैं )। यह एक अद्भुत रचना है जिसमें संक्षेप में पिळ्ळै लोकाचार्य (हमारे एक आचार्य) का दिव्य कार्य ,श्री वचनभूषणम का सार है । श्री वचनभूषणम का सार -“आचार्य अभिमानमे उद्धारकम”(आचार्य द्वारा दिखाया गया स्नेह एक ही है जो शिष्य का उत्थान करेगा । जब एक शिष्य आचार्य के पास जाता है , आचार्य शिष्य पर दया करके उसका उत्थान करते हैं | यह हमारे आचार्य द्वारा सबसे विशाल और सरल साधन के रूप में मनाया जाता है । शब्द जीवनम् – मनुष्य के शारीरिक पोषण और संरक्षण को दर्शाता है ।” उज्जीवनम् “- उस पथ को दर्शाता है जो आत्म उद्धार के लिए उपयुक्त है। आत्म स्वरूप (स्वभाव) के लिए सर्वोच्च लाभ परमपद (श्री वैकुंठ) में स्थित ऐम्पेरुमान (सर्वोच्च सत्ता) को प्राप्त करना , और उनके अनुयायियों के बीच रहते हुए उनका कैंकर्य करना। 

जब किसी ग्रंथ (रचना) का आंतरिक अर्थ समझाया जाता है तब उससे संबंधित विषयोंका अर्थ समझाना समान्य होता है । इसी प्रकार मामुनिगळ १) अपने आचार्य (तिरुवाय्मोळि पिळ्ळै) को प्रणाम करते हैं । २) आळवार और उन दिव्य स्थानों का कालानुक्रमिक विवरण बताया जहाँ वह अवतरित हुए। ३) उन आचायों (गुरों) का एक परिचय देते हैं जो आळवार द्वारा दिखाये मार्ग में आये। ४) रामानुजाचार्य की महानता की व्याख्या करते हैं, जिन्हें पूरे विश्व का उत्थान करने में, आचार्यों के बीच पथ प्रदर्शक के रुप में माना जाता है, ५) नम्पेरुमाळ (उत्सव मूर्ति, श्रीरंगम) की महिमा बताते हुए इस सम्प्रदाय (पारंपरिक मान्यताओं की प्रणाली) को नाम दिया “ऐम्पेरुमानार दर्शनम्” (रामानुजाचार्य का दर्शन) क्योंकि नम्पेरुमाळ रामानुजाचार्य की स्तुति करना चाहते थे । ६) तिरुवाय्मोळि (नम्मालवार द्वारा कृपा पूर्वक दी गई एक दिव्य रचना) के लिए टिप्पणियों को सूचिबद्ध करतें हैं, जो हमारे दर्शन का मूल है। ७) नम्पिळ्ळै (हमारे गुरूओं में से एक) की महिमा की व्याख्या करतें हैं । ८) श्री वचनभूषणम के गौरव को बतातें हैं जिसे वडक्कुत् तिरुवीधिप् पिळ्ळै के दिव्य पुत्र पिळ्ळ लोकाचार्य द्वारा दया पूर्वक रचा गया। इसके आंतरिक अर्थ – इस दिव्य कार्य का अनुसरण करने वाले लोगों की महिमा और वैभव बताते हैं। ९) अंत में बताते हैं कि हमें हर दिन अपने आचार्यों के विवेक के साथ- साथ उनके अनुष्ठानों (वेदों के अनुरूप गतिविधियों) को ध्यान में रखना चाहिए, और ग्रंथ को यह कहते हुए पूरा करते हैं कि- जो लोग इस प्रकार जीते हैं वह महान संत ऐम्पेरुमानार की आलौकिक दया के पात्र होंगे, जिन्होंने मानव के उत्थान के लिए अवतार लिया ।

ग्रंथ के अंत में ऐरूंबियप्पा (मामुनिगळ के शिष्य) द्वारा रचित एक ही पासुर(स्तुति) समस्त सभी पासुरों के साथ पढा जाता है। इसमें ऐरूंबियप्पा कहते हैं कि – जिन मनुष्यों का मामुनिगळ के अलौकिक चरणों के साथ संबंध है, वह निश्चित ही ऐम्पेरुमान् द्वारा स्वीकार किये जायेंगे।

यह इस श्रेष्ठ ग्रंथ का सरल सपष्टीकरण का प्रयास है। जिसे पिळ्ळै लोकम जीयर द्वारा दिए गये व्याख्यानों के साथ किया जा रहा है।

अडियेन् दीपिका रामानुज दासी

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तिरुवाय्मोळि नूट्रन्दादि (नूत्तन्दादि) – तनियन्

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श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमत् वरवरमुनये नमः

पूरी श्रृंखला

तनियन् 1
अल्लुम् पगलुम् अनुबविप्पार् तन्गळुक्कुच्
चोल्लुम् पोरुळुम् तोगुत्तुरैत्तान् – नल्ल
मणवाळ मामुनिवन् माऱन् मऱैक्कुत्
तणवा नूऱ्ऱन्दादि तान्

जो लोग मीठे शब्दों और उनके अर्थों का आनंद लेने की इच्छा, हमेशा रात और दिन , रखते हैं, उनके लिए मणवळ मामुनिगळ् ने दयापूर्वक, तिरुवैमोझी का अर्थ , तमिळ् वेदं को, संक्षेप में , इस प्रबंध में 100 पाशुरामों के रूप में, दिया ।


तनियन् 2
मन्नु पुगळ् सेर् मणवाळ मामुनिवन्
तन् अरुळाल् उट्पोरुळ्गळ् तन्नुडने सोन्न
तिरुवाय्मोळि नूऱ्ऱन्दादियाम् तेनै
ओरुवादरुन्दु नेन्जे उऱ्ऱु

ओ मन ! तिरुवाय्मोळि नूत्तन्दादि नामक शहद को प्राप्त करें, जो कि अनंत काल के गौरवशाली मणवाळ मामुनिगळ् द्वारा दया से
बोला गया था, उनकी दया से, गहरे अर्थों को प्रकट करने के लिए [तिरुवाय्मोळि], और इसे लगातार पीते रहें |

अडियेन् रोमेश चंदर रामानुज दासन

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तिरुवाय्मोळि नूट्रन्दाधि (नूत्तन्दादि) – सरल व्याख्या

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श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमत् वरवरमुनये नमः

श्रीमन्नारायण ने नम्माळ्वार को उनके प्रति उत्तम ज्ञान और भक्ति का आशीर्वाद दिया। नम्माळ्वार की अपरिहार्य प्रवाह से
तिरुविरुत्तम, तिरुवासिरियम, पेरिय तिरुवन्दादी और तिरुवाय्मोळि नामक चार अद्भुत प्रबंध बन गए। इनमें से
तिरुवाय्मोळि को सामवेद का सार माना जाता है। तिरुवाय्मोळि में उन सभी महत्वपूर्ण सिद्धांतों को शामिल किया गया है
जिन्हें एक मुमुक्षु (मुक्ति साधक), अर्थात् अर्थ पंचकम द्वारा जाना जाता है। तिरुवाय्मोळि के लिए नम्पिळ्ळै के ईडु
व्याख्यान में तिरुवाय्मोळि के अर्थों को विस्तार से बताया गया है।

तिरुवाय्मोळि नूत्तन्दादि एक अद्भुत प्रबंध है जिसकी रचना अळगिय मणवाळ मामुनिगळ् (श्रीवरवरमुनि स्वामीजी) ने
की है। यह एक अद्भुत रचना है जो कई प्रतिबंधों से बनी है जैसे:

  • कविता अंदाधि प्रकार की होनी चाहिए जिससे उसका पठन /सीखना सरल हो
  • इस प्रबंध के प्रत्येक पाशुरम में तिरुवाय्मोळि के प्रत्येक दशक जैसा अर्थ ईडु व्याख्यान में बताया गया है |
  • प्रत्येक पाशुरम में नम्माळ्वार का दिव्य नाम और महिमा होनी चाहिए |

यह प्रबंध सबसे आनंददायक है और हम इस प्रबंध के लिए पिळ्ळै लोकम् जीयर् द्वारा दिए गए विस्तृत व्याख्यान की मदद से पाशुरमों के
सरल अर्थों का आनंद लेंगे।

  • तनियन
  • पाशुरम 1 to 10
  • पाशुरम 11 to 20
  • पाशुरम 21 to 30
  • पाशुरम 31 to 40
  • पाशुरम 41 to 50
  • पाशुरम 51 to 60
  • पाशुरम 61 to 70
  • पाशुरम 71 to 80
  • पाशुरम 81 to 90
  • पाशुरम 91 to 100

अडियेन् रोमेश चंदर रामानुज दासन

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अमलनादिपिरान् – सरल व्याख्या

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।।श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमत् वरवरमुनये नमः।।

मुदलायीरम्

श्री मणवाळ मामुनिगळ् स्वामीजी ने अपनी उपदेश रत्नमालै के दसवें पाशुर में अमलनादिपिरान् की महत्ता को बड़े ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत वर्णित किया है।

कार्त्तिगैयिल् रोहिणि नाळ् काण्मिनिन्ऱु कासियिनीर्
वाय्त्त पुगळ्प् पाणर् वन्दु उदिप्पाल् – आत्तियर्गळ्
अन्बुडने तान् अमलन् आदिपिरान् कऱ्ऱदऱ् पिन्
नन्गुडने कोण्डाडुम् नाळ्।

अरे दुनिया के लोगों! देखो, आज दक्षिणात्य माह, कार्तिक का रोहिणी नक्षत्र है। कार्तिक माह के रोहिणी नक्षत्र का यह दिवस महान आळ्वार संत तिरुप्पाणाळ्वार् का अवतरण दिवस है।

वेदों को मानने वाले और श्रद्धा और सम्मान करने वालों , तिरुप्पाणाळ्वार् द्वारा रचित अमलनादिपिरान् को पढ़ा तो जाना की आळ्वार संत ने सिर्फ १० प्रबंध पाशुरों में, वेदों का सार बहुत ही सुन्दर भाव से समझा दिया है। सदापश्यन्ति (सदा एम्पेरुमान को देखते रहना), बतला दिया इनके तिरुनक्षत्र को सभी उत्साह से मानते हैं।

तिरुप्पाणाळ्वार् द्वारा श्रीवैष्णवों पर अनुग्रह कर इन दस पाशुरों की रचनाकर इनमे , श्रीरंगम दिव्य धाम में शेष शैया पर लेटे हुये भगवान श्रीरंगनाथजी के दिव्य स्वरुप का वर्णन कर कह रहे है, उनके अपने आनंद के लिये बस यही एक मात्र साधन है।

श्री रंगेश के अर्चक पुरोहित (भगवान रंगनाथजी के प्रधान अर्चक) लोकसारंगमुनि द्वारा आळ्वार संत का अपचार हो गया था, जिससे पेरिय पेरुमाळ् ने अर्चक को आळ्वार संत को सम्मुख लाने का आदेश दिये। 

अर्चक तुरन्त तिरुप्पाणाळ्वार्के पास पहुँच, उन्हें अपने साथ मंदिर चलने का आग्रह किये,  पर आळ्वार संत ने दिव्य वैकुण्ठ श्रीरंगम में चरण रखने के योग्य नहीं हूँ, कह, चलने से मना कर दिये, तब लोकसारंगमुनि उन्हें अपने काँधे पर बैठाकर भगवान् पेरिय पेरुमाळ् के सम्मुख ले गये। इस कारण आळ्वार संत को मुनिवाहन योगी के नाम से बुलाने लगे,  सम्प्रदाय में ऐसी किवंदती है की, लोकसारंगमुनि के मंदिर में चरण रखते ही आळ्वार संत प्रबंध पाशुरों की रचना शुरू कर दिये, और जब भगवान् के सम्मुख पंहुचे तब दसवें पाशुर की रचना कर पेरिय पेरुमाळ् को सुनाये और उनके श्रीचरणों को प्राप्त कर, परमपद कि प्राप्ति कर लिये।

हमारे पूर्वाचार्य इन प्रबंधों का अनुभव दो प्रकार के सम्बन्ध से करते है,  

१. जैसे आळ्वार संत को पेरिय पेरुमाळ् ने अपने चरणों से दर्शन देते हुये किरीट तक क्रमशः दर्शन दिये।  

२. दूसरा पेरिय पेरुमाळ् द्वारा प्रसादित अनुग्रह का वर्णन,  इन प्रबंध पाशुरों को इन दोनों तरह के अनुभव को ध्यान में रख आनंद लेना चाहिये।

प्रस्तुत सरल भावार्थ पूर्वाचार्यों के उद्घृत व्याख्यानों पर आधारित है।

तनियन्

आपाद चूडम् अनुभूय हरीम् सयानम्
मद्ये कवेर दुहितुर् मुदितान्तरात्मा
अदृश्टृताम् नयनयोर् विशयान्तराणाम्
यो निश्चिकाय मनवै मुनिवाहनम् तम्।

मैं उन तिरुप्पाणाऴ्वार को प्रणाम करता हूँ, जिन्हें लोकसारंगमुनिवर ने अपने कंधों पर बिठाकर, दो कावेरी नदियों के बीचोबीच लेटे हुए पेरिय पेरुमाळ के सम्मुख उपस्थित किया; जिन्होंने पेरिय पेरुमाळ के श्रीचरणों से किरीट तक के दिव्य दर्शन का आनंदित अनुभव लिया; जिन्हें इस दर्शन के बाद संसार में और कुछ देखने की इच्छा ही नहीं थी।

काट्टवे कण्ड पाद कमलम् नल्लाडै उन्दि
तेट्टरुम् उदर बन्दम् तिरुमार्बु कण्डम् सेव्वाय्
वाट्टमिल् कण्गळ् मेनि मुनियेऱित् तनि पुगुन्दु
पाट्टिनाल् कण्डु वाळुम् पाणर् ताळ् परविनोमे।

हम उन तिरुपाणाळ्वार का मंगल गाते हैं, जिन्होंने लोकसारंगमुनि द्वारा ले आने के बाद अकेले ही पेरिय पेरुमाळ के गर्भगृह में प्रवेश किया और पेरिय पेरुमाळ का दर्शन कुछ इस प्रकार किया: उनके दिव्य श्रीचरणों से आरंभ कर, दिव्य वस्त्र का दर्शन कर, दिव्य नाभि कमल, सुन्दर दिव्य उदर, दिव्य वक्षस्थल, दिव्य कण्ठ, लालिमा लिए हुए सुन्दर श्रीमुख और दिव्य चक्षु जो नवखिले कमल की भाँति हैं।

आळ्वार संत ने अपने जीवन का लक्ष्य केवल पेरिय पेरुमाळ के गुणानुवाद ही रखा।

**********

प्रथम पाशुर:

आळ्वार संत पेरिय पेरुमाळ् के द्वारा उन्हें प्रसादित दिव्य श्रीचरणों के दर्शन का अनुभव करते है।

उन्हें अपने श्रीचरणों का सेवक और उनके भक्तों का भी सेवक बनाने के पेरिय पेरुमाळ् के इस कल्याण मंगल गुण का अनुभव कर रहे है।

अमलन् आदिपिरान् अडियार्क्कु एन्नै आट्पडुत्त
विमलन् विण्णवर् कोन् विरैयार् पोऴिल् वेङ्गडवन्
निमलन् निन्मलन् नीदि वानवन् नीळ् मदिळ् अरङ्गत्तु अम्मान् तिरुक्
कमल पादम् वन्दु एन् कण्णिन् उळ्ळन ओक्किन्ऱदे।

हे स्वामी (भगवन)! आप तिरुवरङ्गम् के ऊँचे परकोटों के मध्य लेटे हुए हैं। हे सर्व कल्याणगुण संपन्न! मुझसे कोई आशा रखे बगैर आपने मुझे अपना ही नहीं, अपने भक्तों का भी सेवक बनाने की कृपा की है। हे! नित्यसूरियों (श्रीवैकुण्ठ में नित्य निवास करनेवाले) के स्वामी, आप सुवासित पुष्पों के उद्यान से घिरे, तिरुवङ्गेटम् में निवास कर रहे हैं। आप अपने कारुण्य गुणों के कारण, अपने भक्तों द्वारा हुए अपचारों को ध्यान न देकर अपने सौलभ्य गुण के कारण बड़ी सुलभता से उन्हें उपलब्ध हैं। आपके परमपद में आपके सेवकों द्वारा नियमों का उल्लंघन कभी नहीं होता। आपके दिव्य श्रीचरणों की छवि मेरे नेत्रों में बस ग‌ई है।

दूसरा पाशुर:

आळ्वार संत पेरिय पेरुमाळ् के तिरुपीताम्बरम् के दर्शन का आनंद अनुभव कर रहे है।

जैसे समुद्र की लहरें नाव को आगे धकेलती है, ऐसे ही आळ्वार को पेरिय पेरुमाळ् ने अपने क्रमशः एक एक अंग के दर्शन दे रहे है।

आळ्वार को जब पूछा गया क्या भगवान ने कभी अकारण किसी पर कृपा की।

तब आळ्वार संत भगवान त्रिविक्रम का वर्णन कर आनन्द का अनुभव है।

उवन्द उळ्ळत्तनाय् उलगम् अळन्दु अण्डम् उऱ
निवन्द नीळ् मुडियन् अन्ऱु नेर्न्द निसासररैक्
कवर्न्द वेङ्गणैक् कागुत्तन् कडियार् पोऴिल् अरङ्गत्तु अम्मान् अरैच्
चिवन्द आडैयिन् मेल् चेन्ऱदाम् एन सिन्दनैये।

अपने त्रिविक्रम अवतार में, एम्पेरुमान ने जब तीनों लोको को नाप लिया तब उनका किरीट इस ब्रह्माण्ड के ऊपरी छोर को छू गया। अपने क्रूर बाणों से शत्रु राक्षसों दैत्यों का नाश करने वाले श्रीराम, सुगन्धित उद्यानों से घिरे श्रीरङ्गम् में पेरिय पेरुमाळ् के रूप में विराजमान हैं। मेरा ध्यान भगवान की कमर को सुशोभित करते उस कटी वस्त्र पर केन्द्रित है।

तीसरा पाशुर:

एम्पेरुमान आळ्वार संत भगवान की दिव्य सुन्दर नाभि के दर्शन कर आनन्द का अनुभव करते है, आळ्वार संत कहते है, ब्रह्माजी के प्राकट्य के बाद वह और भी सुन्दर दृष्टव्य हो गयी।

पिछले पाशुर में आळ्वार संत त्रिविक्रम भगवान का वर्णन किये है,  एम्पेरुमान तिरुवॅगडमुडैयन् का वर्णन कर रहे है।

आळ्वार संत कहते है, पेरिय पेरुमाळ्और तिरुवॅगडमुडैयान्, एम्पेरुमान के ही दो स्वरुप है।

मन्दि पाय् वड वेङ्गड मामलै वानवर्गळ्
सन्दि सेय्य निन्ऱान् अरङ्गत्तु अरविन् अणैयान्
अन्दि पोल् निऱत्ताडैयुम् अदन् मेल् अयनैप् पडैत्तदोर् एऴिल्
उन्दि मेल् अदन्ऱो अडियेन् उळ्ळत्तु इन्नुयिरे।

एम्पेरुमान तमिऴ देश के उत्तरी भाग तिरुवेङ्गटम् के पर्वत्त पर खड़े हैं, जहाँ वानर (बन्दर) उछल कूद करते रहते हैं और जहाँ नित्य सूरी भगवान श्रीनिवास की सेवा आराधना करने आते हैं। श्रीरङ्गम् में पेरिय पेरुमाळ् तिरुवनन्ताऴ्वान् (शेषजी) की कोमल शैय्या पर लेटे हुए हैं। भगवान पेरिय पेरुमाळ् के कटिभाग (कमर) का वस्त्र, जो उषा काल में आकाश में फैली हल्की लालिमा लिया हुआ है, जिसके ऊपर भगवान का नाभिकमल ब्रह्माजी के अवतरण के बाद और भी सुन्दर लग रहा है, उसकी सुंदरता पर मेरा मन मुग्ध हो गया है।

चतुर्थ पाशुर:

आळ्वार संत, एम्पेरुमान के दिव्य पेट के दर्शन का आनन्द ले रहे हैं, जो दिव्य नाभि के संग ही जुड़ा हुआ है।

जबकि दिव्य नाभि ने केवल ब्रह्मा को जन्म दिया है,  दिव्य पेट यह जतलाता है, “क्या मैंने पूरी दुनिया को अपने अंदर नहीं रखा है!”

क्या एम्पेरुमान किसी को स्वीकार करने से पहले,  उसके अहंकार और अधिकार भावना को दूर नहीं करेंगे?

आळ्वार संत कहते है की, जैसे एम्पेरुमान ने लंका के चारों ओर की सुरक्षात्मक दीवारों को ध्वस्त कर दिया,  वैसे ही वह अपने शत्रुओं, अहंकार और अधिकार भावना को भी मिटा देते है।

चदुर मामदिळ् सूऴ् इलङ्गैक्कु इऱैवन् तलै पत्तु
उदिर ओट्टि ओर् वेङ्गणै उय्त्तवन् ओद वण्णन्
मदुर मावण्डु पाड मामयिल् आडु अरङ्गत्तम्मान् तिरु वयिऱ्ऱु
उदर बन्दम् एन् उळ्ळत्तुळ् निन्ऱु उलागिन्ऱदे।

पेरिय पेरुमाळ्, मधुर स्वर में गुनगुनानेवाले भृंग और नृत्य करने वाले महान मोर से भरे श्रीरङ्गगम् में भगवान के रूप में शेष शैय्या पर लेटे हुये हैं। ऐसे पेरिय पेरुमाळ् ने चारों ओर अलग-अलग प्रकार की सुरक्षात्मक परतों से घिरी हुई लंका के राजा रावण को युद्ध के मैदान से दूर भगा दिया था। समुद्र जैसे रंग वाले एम्पेरुमान ने, बाद में एक क्रूर बाण से रावण के दस सिर काट दिए। उन दिव्य पेरिय पेरुमाळ् के दिव्य उदर को सुशोभित करने वाला दिव्य आभूषण उदरबन्ध, मेरे हृदय में दृढ़ता से स्थापित हो गया है और आँखों के सामने घूम रहा है।

पञ्चम पाशुर:

इस पाशुर में आळ्वार संत पेरिय पेरुमाळ् के दिव्य वक्षस्थल के दर्शन कर आनन्द का अनुभव ले रहे है।

एम्पेरुमान के दिव्य वक्षस्थल पर श्रीवत्स और कौस्तुभ चिन्हित है, यह उनकी पहचान है,

जो चित् और् अचित् तत्वों का प्रतिनिधित्व करती हैं।

इस पाशुर में आळ्वार  ने कहा है,  पेरिय पेरुमाळ् का वक्ष स्थल, उनका उदर (पेट) जिसमें जलप्रलय के समय सारा ब्रह्माण्ड उसके अंदर होता है, से भी अधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि  यह पेरिय पिराट्टी का निवास स्थान है, जो पेरुमाळ् की पहचान है।

आळ्वार उस दिव्य वक्षस्थल के दर्शन का आनन्द ले रहे है, यह उन्हें इसकी सुंदरता देखने के लिए आमंत्रित कर रहे है।

अहंकार और अधिकारिता नष्ट हो जाने के बाद भी, क्या पाप और पुण्य (क्रमशः दोष और गुण) जीव का पीछा छोड़ देते है?

`आळ्वार संत कहते हैं कि एम्पेरुमान उनसे भी छुटकारा दिला देते है।

बारम् आय पऴविनै पट्रऱुत्तु एन्नैत्तन्
वारमाक्कि वैत्तान् वैत्तदन्ऱि एन्नुळ् पुगुन्दान्
कोर मा तवम् सेय्दनन् कोल् अऱियेन् अरङ्गत्तु अम्मान् तिरु
आर मार्वु अदु अन्ऱो अडियेनै आट्कोण्डदे।

अनादि काल से बोझ बनकर मेरा पीछा करने वाले मेरे कर्मों से पेरिय पेरुमाळ् ने मुझे छुटकारा दिला दिया और उन्होंने मुझे अपने प्रति स्नेही बना दिया। इतने पर ही नहीं रुके- वे स्वयं मेरे मन में उतर ग‌ए! मुझे नहीं पता कि इस भाग्य को पाने के लिए मैंने अपने पिछले जन्मों में कितनी बड़ी तपस्या की होगी। या कदापि मैं इस भाग्य को पाने के लिए उन्होंने कितनी बड़ी तपस्या की होगी यह मुझे नहीं पता। श्रीरङ्गम् के स्वामी- पेरिय पेरुमाळ् का दिव्य वक्षस्थल जिसमें तिरु (श्री महालक्ष्मी) वास करतीं हैं और जिस पर एक हार सुशोभित है, उस वक्षस्थल ने इस दास को (मुझे) प्रेम से अपना बना लिया है।

छठवां पाशुर:

इस पाशुर में आळ्वार संत पेरिय पेरुमाळ् की ग्रीवा (गर्दन) के दर्शन अनुभव का आनंद ले रहे है।

आळ्वार संत अनुभव कर रहे है की , ग्रीवा कुछ इस तरह कह रही है, जबकि पिराट्टी, श्रीवत्स और कौस्तुभ उनके वक्षस्थल पर विराजित है, पर आपदा के समय में ही हूँ जो इस संसार को निगल कर उसकी रक्षा करता हूँ, यह सुन आळ्वार संत आनंदित हो उठते है।

क्या इस तरह एम्पेरुमान किसी को अपने कर्मो से छुटकारा दिलवाये है?

तब आळ्वार संत याद दिलवाते है,  रूद्र को ब्रह्माजी के श्राप से, और साथ में चंद्र को भी, जब उनकी छटा घट रही थी श्राप से मुक्त किया थे।

तुण्ड वेण् पिऱैयन् तुयर् तीर्त्तवन् अञ्चिरय
वण्डु वाऴ् पोऴिल् सूऴ् अरङ्ग नगर् मेय अप्पन्
अण्डरण्ड बगिरण्डत्तु ओरु मानिलम् एऴुमाल् वरै मुऱ्ऱुम्
उण्ड कण्डम् कण्डीर् अडियेनै उय्यक्कोण्डदे।

जिस एम्पेरुमान ने रुद्र के और उनके शीश पर अर्धचन्द्राकार रूप में विराजमान चंद्र के सन्ताप को मिटाया वे सुन्दर पंखों वाले भृंग से भरे उद्यानों से घिरे श्रीरङ्गम् के वासी “पेरिय पेरुमाळ्” ही हैं। आऴ्वार संत कहते हैं कि इस ब्रह्मांड, इतर ब्रह्मांड और सभी ब्रह्मांडों के बाहरी आवरण इन सब को अद्वितीय पृथ्वी और अन्य सभी स्थानों में रहने वालों के साथ निगलने वाले पेरिय पेरुमाळ् के दिव्य कंठ ने मेरा उत्थान किया है।

सातवां पाशुर:

इस पाशुर में आळ्वार संत, एम्पेरुमान के दिव्य मुख और ओष्ठ के दर्शन पाकर उनके दिव्य अनुभव का आनंद ले रहे है।

यह अनुभव कर रहे है की, मुख कह रहा है, निश्चय ही ग्रीवा (गर्दन) ने संसार को निगला है, पर वह उसी समय संभव हुआ जब में लेता हूँ, और कहता हूँ,  “मा  शुचः” (डरो मत) यह सुन, आळ्वार आनंद ले रहे है।

रुद्र और अन्य देव, देवता हैं, इसलिए एम्पेरुमान ने उनकी रक्षा की।

लेकिन क्या? वह आपकी रक्षा करेंगे?

आळ्वार संत जवाब देते हुये कहते हैं कि, एम्पेरुमान उसकी रक्षा करेंगे, जो केवल एम्पेरुमान की इच्छा रखता है, अन्य लाभों की इच्छा रख अन्य देवताओं की इच्छा रखने वालों से अधिक रक्षा करेंगे।

कैयिन् आर् सुरि सङ्गु अनल् आऴियर् नीळ् वरै पोल्
मेय्यनार् तुळब विरैयार् कमऴ् नीळ् मुडि एम्
अय्यनार् अणि अरङ्गनार् अरविन् अणैमिसै मेय मायनार्
सेय्य वाय् अय्यो एन्नैच् चिन्दै कवर्न्ददुवे।

पेरिय पेरुमाळ् के पास चक्करदार दिव्य
शंख है, दिव्य स्फूर्तिवान चक्र है, एक विशाल पर्वत की तरह दिव्य रूप है और उनके शीश पर दिव्य तुलसी की भाँति सुगंधित एक लंबा दिव्य मुकुट है। वे अद्भुत लीलाधारी, मेरे स्वामी (भगवान) हैं, जो सुंदर श्रीरङ्गम् में तिरुवनन्ताऴ्वान (आदिशेष) के कोमल नरम शैय्या पर लेटे हुए हैं। ऐसे एम्पेरुमान की हल्की लालिमा लिए मुखाकृति ने मुझे आकर्षित कर दिया है।

आठवाँ पाशुर:

इस पाशुर में आळ्वार संत एम्पेरुमान के दिव्य सुन्दर चक्षुओं (आँखों) के दर्शन का अनुभव और आनंद ले रहे है।

मुख चाहे जो कहे,  आँखे ही है जो वात्सल्य झलकाती है  और भगवानके दर्शन करवाती है।

इस लिए आळ्वार संत भगवान की आँखों के दर्शन का सुख अनुभव कर रहे है।

चतुर्थ और पंचम पाशुर में आळ्वार संत ने कहा, अहम्, अधिकार भावना और पिछले  कर्म मिटा दिये जायेंगे, पर यह मिटा दिये जाने के बाद भी अविद्या (अज्ञान) रह जाने से, क्या अहम्, अधिकार भावना वापस नहीं आयेंगे?

आळ्वार संत कहते है, जैसे एम्पेरुमान ने दैत्य हिरण्य कश्यप (तमोगुणी (अज्ञान और आलस्य) प्रवर्त्ती का प्रतिक)} का नाश किया, ऐसे ही एम्पेरुमान हमारे तमोगुणों का नाश करेंगे।

परियन् आगि वन्द अवुणन् उडल् कीण्ड अमरर्क्कु
अरिय आदिप् पिरान् अरङ्गत्तु अमलन् मुगत्तुक्
करियवागिप् पुडै परन्दु मिळिर्न्दु सेव्वरियोडि नीण्ड अप्
पेरिय आय कण्गळ् एन्नैप् पेदैमै सेय्दनवे।

श्रीरङ्गम् में शयनित, सब पर कृपा करनेवाले वे भगवान वहीं हैं जिन्होंने विशाल शरीर वाले राक्षस हिरण्यकश्यप को चीर दिया; जो ब्रह्मा जैसे दिव्य देवताओं के लिए भी प्राप्य नहीं हैं; जो सभी के अस्तित्व के कारण हैं। ऐसे परम पवित्र पेरिय पेरुमाळ् के कानों तक फैले, लाल रंग से रेखांकित, विशाल, तेजस्वी, प्रकाशित, लंबे, काले दिव्य नेत्रों ने मुझे भ्रमित कर दिया है!

नवम पाशुर:

इस पाशुर में आळ्वार संत भगवान् की दिव्य छवि के दर्शन कर उसका दिव्य आनन्द का अनुभव कर रहे है।

आळ्वार संत भगवान के अघटित को घटित करने के गुण का आनंद ले रहे है।

जब यह प्रश्न पूछा गया,  वेदांत (वेदों का सार, जिसे उपनिषद् भी कहते है) के ज्ञान से तमोगुण का भी नाश होता है, पर आळ्वार संत चतुर्थ वर्ण से थे जिन्हे वेद पढ़ने का भी अधिकार नहीं है।

तब आळ्वार संत ने कहा, एम्पेरुमान अपने अद्भुत गुण को दर्शाते है, प्रलय काल में सारे ब्रह्माण्ड को निगलकर, एक वटपत्र पर लेटे हुये है,   वह मेरे भी सभी तमोगुण का नाश करेंगे।

आल मामरत्तिन् इलै मेल् ओरु पालगनाय्
ज्ञालम् एऴुम् उण्डान् अरङ्गत्तु अरविन् अणैयान्
कोल मा मणि आरमुम् मुत्तुत् ताममुम् मुडिवु इल्लदु ओर् एऴिल्
नील मेनि अय्यो निऱै कोण्डदु एन् नेञ्जिनैये।

सभी लोकों को निगलने के पश्चात, बड़े वटवृक्ष के छोटे से एक पत्ते पर एक छोटे शिशु के रूप में शयनित भगवान, श्रीरङ्गम् में तिरुवनन्ताऴ्वान् (आदिशेष) की नरम शैय्या पर लेटे हुए पेरिय (बड़े) पेरुमाळ् हैं, जिनका सुंदर और रत्न जड़ित स्वर्णाभरणों से सुसज्जित, अद्वितीय सुंदरता वाला दिव्य काला शरीर मेरे मन को आकर्षित कर रहा है। ओह! इसपर मैं क्या कर सकता हूँ?

दसवां पाशुर:

अंत में आळ्वार संत ने पेरिय पेरुमाळ् में भगवान कृष्ण के दर्शन किये, तब आळ्वार संत ने मुझे और कुछ देखना नहीं कह, भगवान के श्रीचरणों को प्राप्त कर वैकुण्ठधाम  चले गये।

कोण्डल् वण्णनैक् कोवलनाय् वेण्णेय्
उण्ड वायन् एन् उळ्ळम् कवर्न्दानै
अण्डर् कोन् अणि अरङ्गन् एन् अमुदिनैक्
कण्ड कण्गळ् मऱ्ऱोन्ऱिनैक् काणावे।

वे जो मेघों के रंग हैं और सर्वगुण संपन्न हैं, जिन्होंने गोकुल में जन्म लिया है, जिनकी दिव्य मुखाकृति अति सुन्दर है, जो मक्खन चुराकर खाते हैं, जो नित्यसूरियों का नेता हैं, जिन्होंने मेरे मन को आकर्षित किया है, वे श्रीरङ्गम् में लेटे हुए हैं। अब जो मेरी अतृप्त आँखों ने उस एम्पेरुमान को देख लिए है, अब आगे और कुछ भी नहीं देखना है।

अडियेन श्याम सुन्दर रामानुज दास

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स्तोत्र रत्नम – श्लोक 1 – 10 – सरल व्याख्या

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श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

पूरी श्रृंखला

<<तनियन्

श्लोक 1

इस प्रथम श्लोक में श्री आळवन्दार् स्वामीजी, श्रीनाथमुनी स्वामीजी के ज्ञान और वैराग्य रूपी यथार्थ संपत्ति का वंदन करते है।  

नमो’चिंत्याद्भुधाक्लिष्ट ज्ञान वैराग्यराश्ये |
नाथाय मुनये’गाधभगवद् भक्तिसिंधवे ||

मैं श्रीनाथमुनि स्वामीजी को नमस्कार करता हूं, जो बुद्धि से परे अद्भुत ज्ञान और वैराग्य का संग्रह हैं, वह ज्ञान आर वैराग्य उन्हें (भगवान की कृपा से) सरलता से प्राप्त है, वह जो भगवान का ध्यान करते हैं और भगवान के प्रति असीम भक्ति के सागर हैं।

श्लोक 2 –

इस श्लोक में, भगवान के अवतारों से संबंधित श्रीनाथमुनि स्वामीजी के ज्ञान आदि की परम महानता का वर्णन किया गया है। वैकल्पिक रूप से, यह समझातें हैं कि “उनका ज्ञान आदि (जो पिछले श्लोक में समझाया गया है) उसमें सीमित रहने के बजाय, मुझ (आळवन्दार्) तक बह रहा है”।

तस्मै नमो मधुजिधंग्री सरोज तत्व:
ज्ञानानुराग महिमातीशयांतसीम्ने |

नाथाय नाथमुनये’त्र परत्र चापि
नित्यं यदीय  चरणौ शरणं मदीयम् ||

मधु नामक राक्षस का वध करने वाले भगवान श्रीमन्नारायण के दिव्य चरणकमलों में श्रीमान् श्रीनाथमुनि स्वामीजी का सच्चा ज्ञान और सच्ची भक्ति थी। ऐसे श्रीमान नाथमुनि स्वामीजी के दिव्य चरण हमेशा इस दुनिया में और दूसरी दुनिया में भी मेरी शरण हैं। वे [मेरे] नाथ/ स्वामी हैं। मेरा ऐसे श्रीनाथमुनि स्वामीजी के श्रीचरणों में नमस्कार।

श्लोक 3 – 

जैसे प्यासे की प्यास अधिक से अधिक पानी पीने से नहीं बुझती, वैसे ही श्रीआळवन्दार् कह रहे हैं कि “मैं उनका दास हूँ, बारंबार”।

भूयो  नमो’परिमिथाच्युत भक्ति तत्त्व
नामृताबद्धि परिवाह शुभैर्वचोभि: |

लोके’वतीर्ण परमार्थ समग्र भक्ति-
योगाया नाथमुनये यमिनाम् वराय ||

श्रीनाथमुनि स्वामीजी को फिर से मेरा नमस्कार, जिन्होंने भगवान के प्रति असीमित भक्ति और सच्चे ज्ञान के सागर से बहते हुए शुभ शब्दों के रूप में इस संसार में अवतार लिया है, जिनका अवतार हमारे लिए परम कृपा/उपकार है, जो पूर्ण हैं, जिनमें भक्ति योग है और जो योगियों में सबसे श्रेष्ठ हैं।

श्लोक 4

इस श्लोक में, श्रीआळवन्दार्, श्री पराशर भगवान को श्रीविष्णु पुराण के रूप में उनके योगदान के कारण प्रणाम करते हैं।

तत्वेन यश्चिदचिदीश्वर तत्स्वभाव:
भोगापवर्ग तधुपायगतीरुधार: |

संदर्शयन् निरमिमीत पुराणरत्नम
तस्मै नमो मुनिवराय पराशराय
||

उन उदार श्रीपराशर ऋषि को मेरा नमस्कार, जो ऋषियों में सर्वश्रेष्ठ हैं और जिन्होंने स्पष्ट रूप से तीन तत्वों- चित्, अचित् और ईश्वर (तत्व त्रय) की व्याख्या, उन तत्वों के गुण, सुख (इस भौतिक क्षेत्र के), मोक्ष (मुक्ति), इस भौतिक जगत में सुख के साधन और इस क्षेत्र से मुक्ति के साधन, और जो लक्ष्य जीवात्माओं द्वारा प्राप्त किया जा सकता है इन सब विषयों का स्पष्टीकरण देनेवाला, पुराणों में मणि (सर्वोत्तम)- श्रीविष्णु पुराण हमें दयापूर्वक प्रदान किया।

श्लोक 5

श्रीआळवन्दार्, श्रीशठकोप स्वामीजी के दिव्य चरणों में प्रणाम करते है और शरणागति करते है।

माता पिता  युवतयस्तनया  विभूति:
सर्वं यदेव नियमेन मदन्वयानाम् |

आध्यस्य न: कुलपतेर्वकुलाभिरामं 
श्रीमत् तदंघ्रियुगलम् प्रणमामि मुर्धना ||

श्रीशठकोप स्वामीजी के दिव्य चरण हमेशा [मेरे और] मेरे वंशजों के लिए माता, पिता, स्त्री [पति/पत्नी], बच्चे, महान-धन और बाकी वह सब कुछ हैं, जो यहां वर्णित नहीं है। मैं ऐसे आळ्वार के दिव्य चरणों में शीष झुकाकर नमन करता हूं, जो हमारे [वैष्णव] वंश के अग्रणी और मुखिया हैं, जो मजीझा के फूलों से सुशोभित हैं और जिनके पास श्रीवैष्णवश्री (कैंकर्य का धन) है।

श्लोक 6 – 

जैसा कि तिरुवाइयमौळी 7.9.7 में कहा गया है “वैगुन्तनागप् पुगळ” (आळ्वार  भगवान की कृपा से  उनकी स्तुति श्रीवैकुण्ठ के स्वामी के रूप में करते है)। क्योंकि भागवतों द्वारा की गयी स्तुति भगवान को प्रिय है, और भगवान का गुणगान करना आचार्यों को भी प्रिय है, तो भगवान की प्रशंसा करने के आशय से, संक्षेप में उपाय (साधन) और उपेय (लक्ष्य) की व्याख्या करते हुए, भगवान की स्तुति करने लगते हैं।

यन्मूर्ध्नि मे श्रुतिशिरस्सु च भाति यस्मिन्
अस्मन् मनोरथपथस् सकलस्समेति ।

स्तोश्यामि नः कुलधनम् कुलदैवतम् तत्
पादारविन्दम् अरविन्दविलोचनस्य ॥

मैं ,श्रीपुण्डरीकाक्ष  के दिव्य चरणकमलों की स्तुति करने जा रहा हूँ, जो हमारे कुल के धन हैं और हमारे कुल के (भरोसेमंद) आराध्य हैं, जिनके दिव्य चरणों में हमारा सारा प्रेम पहुँचता है, जिनके दिव्य चरण मेरे शीष पर है और वेदांत में भी है।

श्लोक 7

श्री भगवत गीता 1.47 में कहा गया है कि “विसृज्य सशरं चापं ” (बाणों के साथ धनुष को गिरा दिया) अर्थात अर्जुन ने युद्ध के लिए निकलने के बाद युद्ध का त्याग कर दिया, उसी प्रकार श्रीआळवन्दार् भी प्रयास से पीछे हट गए।

तत्वेन यस्य महिमार्णवशीकराणुः
शक्यो न मातुमपि शर्वपितामहाद्यैः ।

कर्तुम् तदीयमहिमस्तुतिमुद्यताय
मह्यम् नमो’स्तु कवये निरपत्रपाय ॥

भगवान की महानता के सागर की एक बूंद में व्याप्त एक छोटे से परमाणु को भी सही मायने में मापना शिव, ब्रह्मा आदि के लिए भी असंभव है। मैं, निर्लज्जतापूर्ण कवि होने का दावा करते हुए जो ऐसे भगवान की महानता का गुणगान करने [गाने] के लिए निकला हूँ, इसके लिए मुझे [इस हँसने योग्य प्रयास के लिए] स्वयं का अभिवादन करना चाहिए।

श्लोक 8

जैसे भगवान ने युद्ध से पीछे हट गये अर्जुन को प्रेरित किया, जिस पर अर्जुन ने श्रीभगवत गीता 18.73 में कहा “करिष्ये वचनं तव ” (जैसा आपने कहा था, मैं लड़ूंगा), उसी प्रकार यहाँ, भगवान श्रीआळवन्दार् को प्रेरित करते है और कहते है कि “मुख केवल भगवान की स्तुति करने के लिए उपस्थित है; जैसा कि श्रीविष्णु सहस्रनाम में कहा गया है ‘स्तव्य: स्तवप्रिय:’ (भगवान प्रशंसनीय है और उन्हें प्रशंसा पसंद है), प्रशंसा के लिए मुझे प्रिय है”। यह सुनकर, श्रीआळवन्दार् आश्वस्त हो जाते हैं [भगवान की स्तुति करने के लिए]।

यद्वा श्रमावधि यथामथि वाप्यशक्तः
स्तौम्येवमेव खलु ते’पि सदा स्तुवन्तः ।

वेदाश्चतुर्मुख मुखाश्च महार्णवान्तः
को मज्जतोरणुकुलाचलयोर्विशेषः ॥

या, मैं जो असमर्थ हूं, भगवान की  प्रशंसा तब तक करूंगा जब तक मैं  थक न जाऊँ अथवा जितना मैं जानता हूं; इस प्रकार सदा स्तुति करने वाले वेद, और चतुर्मुख ब्रह्मा आदि, जो स्तुति कर रहे हैं; तब एक (छोटे) परमाणु और एक (बड़े) पर्वत में क्या अंतर है, जो एक विशाल महासागर के अंदर डूबा हुआ है?

श्लोक 9

अब, श्रीआळवन्दार् कहते हैं कि वे ब्रह्मा आदि की तुलना में भगवान की स्तुति के लिए अधिक योग्य हैं।

किञ्चैष शक्त्यतिशयोन न ते’नुकम्प्यः
स्तोतापि तु स्तुति कृतेन परिश्रमेण ।

तत्र श्रमस्तु सुलभो मम मन्दबुद्देः
इत्युद्यमो’यमुचितो मम चाप्जनेत्र ॥

इसके अलावा, मैं आपकी प्रशंसा करने की अपनी क्षमताओं के कारण आप के द्वारा कृपा करने के योग्य नहीं हूं; परन्तु मैं इस विधि आपकी कृपा के योग्य हूँ क्योंकि आपकी स्तुति करते हुए मैं थक गया हूँ; थकान अर्थात अत्यंत कम बुद्धि होने के कारण मैं आसानी से थक जाऊँगा; इस प्रकार, यह प्रयास [आपकी स्तुति करने का] केवल मेरे लिए [ब्रह्मा वगैरह की तुलना में] उपयुक्त है।

श्लोक 10

भगवान के गुणगान से पीछे हटने और पुनः उनके गुणगान करने के लिए आश्वस्त होने के बाद, श्रीआळवन्दार् भगवान के परत्वम (सर्वोच्चता) की व्याख्या करते है, और बाद के पांच श्लोकों में शरणागति को दर्शाते है। इस पहले श्लोक (पांचों में से) में, श्रीआळवन्दार् दयापूर्वक “कारण वाक्य” (शास्त्र के वे अंश, जो भगवान ही आधारभूत है, इस बात की चर्चा करते हैं) के माध्यम से भगवान की सर्वोच्चता की व्याख्या करते हैं।

नावेक्षसे यदि ततो भुवनान्यमूनि
नालं प्रभो ! भवितुमेव कुतः प्रव्रुत्तिः

एवं निसर्ग सुह्रुदि त्वयि सर्वजन्तोः
स्वामिन् न चित्रम् इदं  आश्रित वत्सलत्वम् ॥

हे भगवान! यदि (आप) ने सम्पूर्ण जलप्रलय के बाद अपनी दया दृष्टि नहीं की होती, तो ये संसार नहीं बनते; यह स्पष्ट है कि कोई भी कार्य नहीं हुआ होता [यदि दुनिया को शुरू करने के लिए नहीं बनाया गया होता]। हे प्रभो! इस प्रकार, जब आप सभी प्राणियों के स्वाभाविक मित्र हैं, तो अपने भक्तों के प्रति मातृ स्नेह प्रकट करने के इस गुण को देखना असामान्य नहीं है।

– अडियेन भगवती रामानुजदासी

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रामानुस नूट्रन्ददि (रामानुज नूत्तन्दादि) – सरल व्याख्या – पाशुर 101 से 108

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श्री: श्रीमते शठकोपाय नम: श्रीमते रामानुजाय नम: श्रीमत् वरवरमुनये नम:

रामानुस नूट्रन्दादि (रामानुज नूत्तन्दादि) – सरल व्याख्या

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पाशुर १०१: श्रीरंगामृत स्वामीजी कहते हैं श्रीरामानुज स्वामीजी की मिठास उनके पवित्रता से भी उच्च हैं। 

मयक्कुम् इरु विनै वल्लियिल् पूण्डु मदि मयन्गित्
तुयक्कुम् पिऱवियिल् तोन्ऱिय एन्नै तुयर् अगऱ्ऱि
उयक्कोण्डु नल्गुम् इरामानुस एन्ऱदु उन्नै उन्नि
नयक्कुम् अवर्क्कु इदु इळुक्कु एन्बर् नल्लवर् एन्ऱु नैन्दे

अब मैं आपकी यह स्तुति कर रहा हूं कि “अज्ञानप्रद पुण्यपाप नामक दो प्रकारके कर्म रूपी बेडीमें फंसाकर, (उससे) विवेक को नाशकर भ्रम पैदा करनेवाले संसार में जन्म लेनेवाले मेरे दुःख दूरकर, कृपया मेरा उद्धार करनेवाले हे श्रीरामानुज स्वामिन्।” परंतु सत्पुरुष कहते हैं कि यों स्तुति करना, प्रेमपूर्वक आपका ही नित्यध्यान करनेवाले द्रुतहृदयों के लिए अनुचित है। श्रीरामानुज स्वामीजी के पावनत्व व भोग्यत्व नामक दो धर्म होते हैं। पावनत्व माने भक्तों के पाप मिटाकर उनको पवित्र बनाना, और भोग्यत्व माने नित्य अनुभव करने योग्य मधुर रहना। रसिक लोगों का यह मंतव्य है कि इन दोनों में पावनात्व की अपेक्षा भोग्यत्व का अनुसंधान करना ही श्रेष्ठ है। क्योंकि पावनत्व का अनुसंधान करने वाला कुछ स्वार्थका ख्याल करता है, अर्थात् अपने पाप मिटाने की इच्छा करता है; भोग्यत्व के अनुसंधान में यह स्वार्थभावना नहीं रहती। अतः हाल में अमुदनार कह रहे हैं कि मैंने श्रीस्वामीजी के पावनत्व का ही जो बहुत अनुसंधान किया यह कुछ अनुचित- सा लगेगा। इसका यह तात्पर्य नहीं कि पावनत्व का अनुसंधान सर्वथा अनुचित है। क्योंकि श्रीस्वामीजी के सभी गुणों का चिन्तन करना आवश्यक है ही। और गुरुजी ने जो हमारे पापों को समूल मिटा दिया, उसका अनुसंधान नहीं करने पर हम कृतघ्न भी बनेंगे। अतः एक दृष्टि से यह काम करना पड़ता है और दूसरी दृष्टि से इस पर जोर डालना कुछ अनुचित सा प्रतीत होता है।

पाशुर १०२: श्रीरंगामृत स्वामीजी स्वयं श्रीरामानुज स्वामीजी से उनके उदार गुण का कारण पूछते हैं ताकि वें इस संसार में उनके ओर बढ़ सके।

नैयुम् मनम् उन् गुणन्गळै उन्नि एन् ना इरुन्दु एम्
ऐयन् इरामानुसन् एन्ऱु अळैक्कुम् अरु विनैयेन्
कैयुम् तोळुम् कण् करुदिडुम् काणक् कडल् पुडै सूळ्
वैयम् इदनिल् उन् वण्मै एन् पाल् एन् वळर्न्ददुवे

(हे गुरुजी!) मेरा मन आपके गुणों का ही ध्यान करता हुआ पिघल जा रहा है; मेरी वाणी सुदृढ़ अध्यवसाय के साथ यों पुकार रही है कि, “हे हमारे नाथ श्री रामानुज स्वामिन् !” मुझ महापापी के हाथ भी (आपके लिए) अंजलि कर रहे हैं; आँख(आपके) दर्शन पाना चाहती हैं । समुद्र-परिवृत इस विशाल पृथ्वीतल पर मुझ पर ही आपकी दया जो इस प्रकार फैल रही है, इसका कारण क्या होगा ?

पाशुर १०३: श्रीरंगामृत स्वामीजी कहते हैं कि उनकी इंद्रीया श्रीरामानुज स्वामीजी की ओर शामिल हो गई क्योंकि वें बड़ी कृपा से अपने कर्मों से मुक्त हो गये और उन्होंने उन्हें बहुर अमूल्य ज्ञान प्रदान किया।

वळर्न्द वेम् कोबम् मडन्गल् ओन्ऱाय् अन्ऱु वाळ् अवुणन्
किळर्न्द पोन् आगम् किळित्तवन् कीर्त्तिप् पयिर् एळुन्दु
विळैन्दिडुम् सिन्दै इरामानुसन् एन्दन् मेय् विनै नोय्
कळैन्दु नल् ज्ञानम् अळित्तनन् कैयिल् कनि एन्नवे

पूर्वकाल में कठोर कोपवाले एक नरसिंगरूप को धारण कर, खङ्गधारी (हिरण्य) असुर का मत्त व दृढ़ वक्ष चीर डालने वाले भगवान का दिव्य यशरूपी सत्य जिसमें खूब उत्पन्न होता है, ऐसे (सुक्षेत्र) मनवाले श्रीरामानुज स्वामीजीने, मेरे शरीर में व्याप्त समस्त पाप मिटा कर, मुझ करतलामलक की तरह अतिस्पष्ट ज्ञान को भी प्रदान किया। श्रीरामानुज स्वामीजी के मनरूपी अच्छे क्षेत्र में भगवान के दिव्ययशरूपी सस्य खूब उपजते हैं; कहनेका यह तात्पर्य है कि श्री स्वामीजी के मन में सदा भगवान के दिव्य यश के सिवा दूसरी किसी वस्तु की चिंता नहीं रहती। ऐसे उन्होने अमुदनार के समस्त पाप मिटाकर उन्हें अतिविशद ज्ञान को प्रदान किया।

पाशुर १०४:  श्रीरामानुज स्वामीजी द्वारा हीं एक काल्पनिक प्रश्न का उत्तर देते हुए “अगर आप भगवान को देखेंगे तो क्या करेंगे?” श्रीरंगामृत स्वामीजी कहते हैं कि अगर भगवान स्वयं के विषय में भी प्रगट होते हैं तो भी वें कहते हैं कि वें श्रीरामानुज स्वामीजी के दिव्य गुणों को छोड़ और कुछ नहीं मांगेंगे जो उनके दिव्य स्वरूप में दीप्तिमान हैं।

कैयिल् कनि अन्न कण्णनैक् काट्टित् तरिलुम् उन्दन्
मेय्यिल् पिऱन्गिय सीर् अन्ऱि वेण्डिलन् यान् निरयत्
तोय्यिल् किडक्किलुम् सोदि विण् सेरिलुम् इव्वरुळ् नी
सेय्यिल् तरिप्पन् इरामानुस एन् सेळुम् कोण्डले

(औदार्य के विषय में) विलक्षण मेघ के समान विराजमान हे श्रीरामानुज स्वामिन्! यदि आप मुझे साक्षात् भगवान के ही हस्तामलक की भांति अतिविशद दर्शन करा दें, तो भी मैं (उनकी परवाह न करता हुआ) आपके दिव्यमंगलविग्रह के (सौन्दर्यादि) शुभगुणों के सिवा दूसरी किसी वस्तू पर अपनी नजर नहीं डालूंगा; मैं बेशक संसाररूपी इस नरक में ही पड़ा रहूंगा; अथवा ज्योतिर्मय परमधाम पहुँचूंगा, इसकी चिंता नहीं। परंतु आप यही कृपा करें (कि मैं उक्त प्रकार आपके श्रीविग्रह के ही दर्शन करता रहूं); यह कृपा पाकर ही मैं (संसार में ही अथवा मोक्षमें हो) शांति पा सकूंगा।

पाशुर १०५: जबकी सभी जन कहते हैं संसार को छोड़ना हैं और परमपद को प्राप्त करना हैं और उस परमपद को पाने की इच्छा के लिए दोनों को समान समझना चाहिए। आपका इच्छुक स्थान कौनसा हैं? वें इस पाशुर के जरिए बताते हैं।

सेळुम् तिरैप् पाऱ्कडल् कण् तुयिल् मायन् तिरुवडिक्कीळ्
विळुन्दिरुप्पार् नेन्जिल् मेवु नल् ज्ञानि नल् वेदियर्गळ्
तोळुम् तिरुप् पादन् इरामानुसनैत् तोळुम् पेरियोर्
एळुन्दु इरैत्तु आडुम् इडम् अडियेनुक्कु इरुप्पिडमे

सुंदर लहरों से समावृत क्षीरसागर में शयन करनेवाले अत्याश्चर्यचेष्टित भगवान के श्री पादों के आश्रय में रहनेवाले महात्माओं के हृदय में नित्यनिवास करनेवाले, श्रेष्ठ ज्ञानियों तथा परमवैदिकों से प्रणम्य श्रीपादवाले श्री रामानुज स्वामीजी के भक्त महात्मा लोग जिस स्थल में, आनंद के मारे उठकर नाचते, कूदते और कोलाहल मचाते हुए निवास करते हैं, वही स्थान मेरा भी निवासस्थान होगा। कितने ही महात्मा लोग क्षीराब्धिनाथ भगवान के भक्त होते हुए भी, उनकी उपेक्षा कर, श्रीरामानुज स्वामीजी के श्रीपादों का निरंतर ध्यान करते हैं, और उस आनंद से मस्त होकर नाचते कूदते और कोलाहल मचाते रहते हैं। ऐसे महात्मा श्रीरामानुज-भक्त लोग जहा विराजते हैं, मैं भी वहीं निवास करना चाहता हूं।

पाशुर १०६: श्रीरामानुज स्वामीजी श्रीरंगामृत स्वामीजी का उनके प्रति स्नेह को देखकर बड़ी कृपा से श्रीरंगामृत स्वामीजी के मन की इच्छा करते हैं। यह देखकर श्रीरंगामृत स्वामीजी प्रसन्नता से और शुक्र से यह पाशुर का पाठ करते हैं। 

इरुप्पिडम् वैगुन्दम् वेन्गडम् मालिरुन्जोलै एन्नुम्
पोरुप्पिडम् मायनक्कु एन्बर् नल्लोर् अवै तम्मोडुम् वन्दु
इरुप्पिडम् मायन् इरामानुसन् मनत्तु इन्ऱु अवन् वन्दु
इरुप्पिडम् एन्दन् इदयत्तुळ्ळे तनक्कु इन्बुऱवे

साधु पुरुष कहते हैं कि अत्याश्चर्य दिव्य चेष्टितवाले भगवान जिनके अद्भुत गतिविधियों के वासस्थान, श्रीवैकुंठ धाम, श्रीवेंकटाचल और श्रीवनगिरी (तिरुमालिरुन्जोलै) नामक पर्वत हैं; ऐसे भगवान उक्त समस्त स्थानों के साथ पधारकर श्रीरामानुज स्वामीजी के हृदय में निवास करते हैं; एवं वे गुरुजी हाल में यहां पधार कर मेरे हृदय में सानंद विराज रहे हैं।

पाशुर १०७:  श्रीरामानुज स्वामीजी के दिव्य मुखारविंद को देखकर जिन्होंने श्रीरंगामृत स्वामीजी के प्रति स्नेह प्रगट किया हैं, श्रीरंगामृत स्वामीजी कहते हैं कुछ हैं जो वें उन्हें प्रदान करना चाहते हैं और अपनी इच्छा को प्रगट करते हैं।

इन्बुऱ्ऱ सीलत्तु इरामानुस एन्ऱुम् एव्विडत्तुम्
एन्बुऱ्ऱ नोय् उडल् तोऱुम् पिऱन्दु इऱन्दु एण् अरिय
तुन्बुऱ्ऱु वीयिनुम् सोल्लुवदु ओन्ऱु उण्डु उन् तोण्डर्गट्के
अन्बुऱ्ऱु इरुक्कुम्बडि एन्नै आक्कि अन्गु आट्पडुत्ते

हे आनंदपूर्ण व सौशील्यगुणविभूषित श्रीरामानुज स्वामिन्। आपसे मेरी यह एक विनती है कि, हड्डी में घुसकर दुःख देने वाले रोगों के आस्पद अनेक शरीरों में जन्म लेना, फिर मरना, इस प्रकार अनंत दुःख पाते रहने पर भी, मुझे सर्वदेशों व सर्वकालों में आप अपने भक्तों का ही भक्त बनाकर उन्हीकी सेवा में लगा दीजिए, यही मेरी प्रार्थना है। (मैं जन्म व्याधि जरा मरण रूप अनंत दुःखपूर्ण इस संसार से डरता हुआ, इससे मुक्ति नहीं माँगूंगा। यह कैसा भी हो, इसकी चिंता नहीं; किंतु मैं आपके भक्तों का ही भक्त और नित्यसेवक हो जाऊं, यह एक ही मेरी प्रार्थना है।)

पाशुर १०८:  इस प्रबन्ध के प्रारम्भ में श्रीरंगामृत स्वामीजी ने “रामानुजन् चरणारविन्दम् नाम्मन्निवाळ नेञ्जे” के लाभ की प्रार्थना किए हैं (हमें श्रीरामानुज स्वामीजी के दिव्य चरण कमलों में उपयुक्त होकर रहना चाहिए), श्रीमहालक्ष्मीजी से प्रार्थना करते हैं कि उनकी इच्छा पूर्ण करने की पुरूषकार करे। अंतिम पाशुर में भी वें श्रीमहालक्ष्मीजी को पाने को पूछते हैं जो हमें कैंकर्य रूपी धन प्रदान करेंगे।

म् कयल् पाय् वयल् तेन्नरन्गन् अणि आगम् मन्नुम्
पन्गय मामलर्प् पावयैप् पोऱ्ऱुदुम् पत्ति एल्लाम्
तन्गियदु एन्नत् तळैत्तु नेन्जे नम् तलै मिसैये
पोन्गिय कीर्त्ति इरामानुसन् अडिप् पू मन्नवे

हे मन! मानों सारी भक्ति हमारें यहां ही स्थिर प्रतिष्ठित हुई होगी, ऐसा विलक्षण भाग्य पाने के लिए, और विशाल यशवाले श्रीरामानुज स्वामीजी के चरणारविन्दों को अपने शिरोभूषण के रूप में नित्य धारण करने के लिए, सुंदर मिनभरित खेतों से परिवृत श्रीरंगक्षेत्र में विराजमान भगवान के अतिमनोहर श्रीवक्ष में नित्यनिवास करनेवाली, श्रेष्ठ कमल पुष्प में अवतीर्ण, प्रतिमासदृश सुंदरी श्री महालक्ष्मीजी की हम स्तुति करेंगे। इस प्रार्थना के साथ यह दिव्यप्रबन्ध समाप्त किया गया। इसके आदि तथा अंत में श्री महालक्ष्मीजी का नामस्मरण मंगलार्थ किया गया है। इसमें कविनामांकन और फलश्रुति नहीं हैं। इसका गान स्वयंपुरुषार्थ है; अतः इसके लिए दूसरा फल ढूंढने की आवश्यकता नहीं है। और अत्यंत विनयपूर्ण होने से अमुदनार ने इसमें अपना नाम नहीं बताया।

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अडियेन् केशव् रामानुज दास्

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