श्री: श्रीमते शठकोपाय नम: श्रीमते रामानुजाय नम: श्रीमत् वरवरमुनये नम:
रामानुस नूट्रन्दादि (रामानुज नूत्तन्दादि) – सरल व्याख्या
पाशुर ७१: श्रीरामानुज स्वामीजी ने भी उनकी प्रार्थना स्वीकार की और उन्हें उत्कृष्ट झलक देखा और इस तरह श्रीरंगामृत स्वामीजी के ज्ञान को बढ़ाया ताकि वें उनके संग बड़ी दृड़ता से निरत रहे। श्रीरंगामृत स्वामीजी अपने भविष्य को उज्ज्वल माना और संतोष का एहसास किया।
सार्न्ददु एन् सिन्दै उन् ताळिणैक्कीळ् अन्बु तान् मिगवुम्
कूर्न्ददु अत्तामरैत् ताळ्गळुक्कु उन् तन् गुणन्गलुक्के
तीर्न्ददु एन् सेय्गै मुन् सेय्विनै नी सेय्विनै अदनाल्
पेर्न्ददु वण्मै इरामानुस एम् पेरुम् तगैये
हे औदार्य गुणवाले, हमारे स्वामिन्, महात्मन् श्री रामानुज स्वामीजी! मेरा मन आपके उभय पादारविन्दों में लग्न हुआ; उन्हीं पादारविन्दों के विषय में भक्ति भी बढ़ गयी; मेरा काम भी आपके कल्याण गुण समूह का ध्यान बन गया, और मेरे जन्मांतर कृत सभी पाप आपके कटाक्षवीक्षण से नष्ट हो गये ।
पाशुर ७२: श्रीरंगामृत स्वामीजी प्रसन्न होते हैं यह सोचकर कि श्रीरामानुज स्वामीजी ने एक और महान लाभ उनपर बरसाया हैं।
कैत्तनन् तीय समयक् कलगरै कासिनिक्के
उय्त्तनन् तूय मऱै नेऱि तन्नै एन्ऱु उन्नि उळ्ळम्
नेय्त्त अन्बोडु इरुन्दु एत्तुम् निऱै पुगळोरुडने
वैत्तनन् एन्नै इरामानुसन् मिक्क वण्मै सेय्दे
श्रीरामानुज स्वामीजी ने मुझको भी उन कीर्तिमान महात्माओं की गोष्ठी में मिला दिया जो यह अनुसंधान करते हुए, परमप्रीति के परवश होकर उनकी स्तुति कर रहे हैं कि, “श्रीस्वामीजी ने अपने विशेष औदार्य गुण से कलह करने में निरत दुर्मतवादियों का नाश कराया; और इस धरतालपर परमपवित्र वेदमार्ग को प्रतिष्ठापित किया ।”
पाशुर ७३: जब श्रीरंगामृत स्वामीजी से यह कहा गया कि वें श्रीरामानुज स्वामीजी द्वारा उन्हें जो ज्ञान और प्रेम प्रदान किया गया हैं उससे वें पोषण कर सकते हैं तब श्रीरंगामृत स्वामीजी यह कहते हैं कि वें बिना श्रीरामानुज स्वामीजी का चिंतन कराते हुए स्वयं से किसी भी उपाय से नहीं रह सकते हैं।
वण्मैयिनालुम् तन् मादगवालुम् मदि पुरैयुम्
तण्मैयिनालुम् इत् तारणियोर्गट्कुत् तान् सरणाय्
उण्मै नल् ज्ञानम् उरैत्त इरामानुसनै उन्नुम्
तिण्मै अल्लाल् एनक्कु इल्लै मऱ्ऱु ओर् निलै तेर्न्दिडिले
अपने औदार्यगुण, परम कृपा और चंद्रमा के समान मन की शीतलता से, स्वयं इस धरतालनिवासी सभी लोगों के रक्षक बनकर, उन्हें सत्य व विलक्षण ज्ञान का उपदेश देनेवाले श्री रामानुज स्वामीजी का ही अनवरतध्यान करने के सिवाय मेरा दूसरा कोई अध्यवसाय नहीं है। सुगाढ विमर्श करने के बाद यह बात कर रहा हूँ ।
पाशुर ७४: श्रीरंगामृत स्वामीजी यह सोचकर आनन्द होते हैं कि भगवान के तुलना में कैसे श्रीरामानुज स्वामीजी अन्य तत्त्वों पर विजय प्राप्त करते हैं।
तेरार् मऱैयिन् तिऱम् एन्ऱु मायवन् तीयवरैक्
कूर् आळि कोण्डु कुऱैप्पदु कोण्डल् अनैय वण्मै
एर् आर् गुणत्तु एम् इरामानुसन् अव्वेळिल् मऱैयिल्
सेरादवरैच् चिदैप्पदु अप्पोदु ओरु सिन्दै सेय्दे
भगवान ठीक वेदमार्ग के समझने में अशक्त पापियों को अपने तेज चक्रायुध से दंड देते हैं; मेघके सदृश परमौदार्यवान एवं अनेक शुभगुणों से परिपूर्ण हमारे श्री रामानुज स्वामीजी तो उस श्रेष्ठ वेदमार्ग में संबंध न पानेवालों (बाह्यों व कुदृष्टियों) को, तभी चिंतित अपूर्व शास्त्रीय युक्तिबल से अपने वश कर लेते हैं। भगवान लोगों को वेदोपदिष्ट सन्मार्ग में लाने के लिए सर्वदा नानाप्रकार के प्रयत्न करते ही रहते हैं; परंतु कभी कभी किसी प्रबल पापी चेतन के विषय में उनके ये सभी प्रयत्न व्यर्थ हो जाते हैं; अर्थात् कंस, रावण जैसे वे पापीलोग अपना दुर्मार्ग छोड़ सन्मार्ग में नहीं आते। तब भगवान रुष्ट होकर चक्रायुध से उनके सिर काट डालते हैं। परंतु श्री रामानुज स्वामीजी कभी किसीको ऐसे दंड नहीं देते; किंतु तत्कालचिंतित किसी अपूर्वयुक्तिसे उन्हें सन्मार्ग में लाते हैं।
.पाशुर ७५: यह कल्पना करना कि श्रीरामानुज स्वामीजी कहते हैं कि श्रीरंगामृत स्वामीजी अपने गुणों में तभी निरत रहेंगे जब वें भगवान कि महानता को देखेंगे। श्रीरंगामृत स्वामीजी कहते हैं अगर भगवान स्वयं प्रगट होकर अपनी सुन्दरता को दिखाते हैं और कहते हैं मैं तुम्हें कभी नहीं छोड़ूँगा, केवल श्रीरामानुज स्वामीजी के दिव्य गुण हीं उन्हें बाँध सकते हैं।
सेय्त्तलैच् चन्गम् सेळु मुत्तम् ईनुम् तिरु अरन्गर्
कैत्तलत्तु आळियुम् सन्गमुम् एन्दि नम् कण् मुगप्पे
मोय्त्तु अलैत्तु उन्नै विडेन् एन्ऱु इरुक्किलुम् निन् पुगळे
मोय्त्तु अलैक्कुम् वन्दु इरामानुस एन्नै मुऱ्ऱुम् निन्ऱे
श्लाध्य मोतियों को जन्म देनेवाले शंखों से युक्त खेतों से परिवृत श्रीरंगक्षेत्र में विराजमान श्रीरंगनाथ भगवान अपनी हथेलियों में शंखचक्र लेकर, हमारे सामने पधारकर,दबाते और लुभाते हुए भले ही यों कहें कि मैं तुझे नही छोडूंगा; तो भी हे श्रीरामानुज स्वामिन्! (मैं उनकी ओर न देखूंगा); आपके शुभगुण ही मुझे घेर कर अपनी ओर खींच लेते हैं। मधुरकवि स्वामीजी जैसे आचार्य निष्ठावालों का यह स्वभाव है कि वे भगवान की भी उपेक्षा करते हुए अपने गुरु का ही ध्यान,सेवन इत्यादि करते हैं। यही निष्ठा इस गाथा में भी उपवर्णित है।
पाशुर ७६: श्रीरंगामृत स्वामीजी से यह सुनकर आनंदित होकर श्रीरामानुज स्वामीजी बड़ी कृपा से सोचते हैं कि वें उनके लिए क्या कर सकते हैं। श्रीरंगामृत स्वामीजी अपनी इच्छा को बड़ी दृढ़ता से प्रगट करते हैं।
निन्ऱ वण् कीर्त्तियुम् नीळ् पुनलुम् निऱै वेन्गडप् पोऱ्
कुन्ऱमुम् वैगुन्द नाडुम् कुलविय पाऱ्कडलुम्
उन् तनक्कु एत्तनै इन्बम् तरुम् उन् इणै मलर्त्ताळ्
एन् तनक्कुम् अदु इरामानुस इवै ईन्दु अरुळे
हे श्रीरामानुज स्वामिन्! शाश्वत विपुल यशवाला व नाना तीर्थभरित श्रीवेंकटाद्रि नामक दिव्य पर्वत, श्रीवैकुंठ दिव्यधाम, और श्लाध्य क्षीरसागर, ये सभी आपको जैसा आनंद देते हैं; आपके उभय पादारविन्द मुझे ठीक वैसा ही आनंद दे रहे हैं। अतः आप कृपया मुझे इन्हींको प्रदान करें।
पाशुर ७७: श्रीरामानुज स्वामीजी अपने चरण कमल को श्रीरंगामृत स्वामीजी को प्रदान करने के पश्चात वें संतोष प्रगट करते हैं कि उन्हें जो इच्छा हैं वह प्राप्त हो गई हैं आप श्रीमान और मुझ पर क्या कृपा करेंगे।
ईन्दनन् ईयाद इन्नरुळ् एण्णिल् मऱैक् कुऱुम्बैप्
पाय्न्दनन् अम् मऱैप् पल् पोरुळाल् इप्पडि अनैत्तुम्
एय्न्दनन् कीर्त्तियिनाल् एन् विनैगळै वेर् पऱियक्
काय्न्दनन् वण्मै इरामानुसर्क्कु एन् करुत्तु इनिये
मुझ पर ऐसा विलक्षण कृपा करनेवाले, जो कि दूसरे किसी पर नहीं की गयी हो, वेदों के सच्चे अर्थों का प्रकाशन करते हुए असंख्य वेदविरुद्ध मतों का निरास करनेवाले, भूमंडलव्यापी दिव्यकीर्तिवाले, मेरे पापों को सजड मिटा देनेवाले और औदार्य के अपरावतार श्री रामानुज स्वामीजी, न जाने और भी क्या क्या कल्याण करने वाले हैं। श्री रामानुजस्वामीजी का औदार्य इतना विलक्षण है कि वे नाना प्रकार के लोककल्याण करने पर भी तृप्त न होते; किंतु और भी कुछ न कुछ उपकार करने की चिंता में ही मग्न रहते हैं।
पाशुर ७८: श्रीरामानुज स्वामीजी द्वारा श्रीरंगामृत स्वामीजी को सही मार्ग पर लाने के लिए, लिये गये कष्टों के विषय में बोलते हैं और आगे कहते हैं कि श्रीरामानुज स्वामीजी ने उन्हें सही किया हैं और उनका हृदय कोई गलत कार्य के बारें में नही विचारेगा।
करुत्तिल् पुगुन्दु उळ्ळिल् कळ्ळम् कळऱ्ऱि करुदरिय
वरुत्तत्तिनाल् मिग वन्जित्तु नी इन्द मण्णगत्ते
तिरुत्तित् तिरुमगळ् केळ्वनुक्कु आक्कियपिन् एन् नेन्जिल्
पोरुत्तप्पडादु एम् इरामानुस! मऱ्ऱोर् पोय्प्पोरुले
हे श्रीरामानुज स्वामीजी! आपने वाचामगोचर परिश्रम उठाकर, छलसे मेरे हृदय में घुसकर, तत्रत्य आत्मापहार-नामक दोष मिटाकर, उसे सुधारकर लक्ष्मीपति का दास बना दिया। अतः इसके (आपके उपकार के) सिवाय दूसरी कोई चिंता मेरे मनमें प्रवेश नहीं कर सकेगी। मैं तो किसी प्रकार से भगवान का दास बनने अथवा श्रीरामानुज स्वामीजी की चिंता करने को तैयार नहीं था; परंतु श्री स्वामीजी ने बहुत प्रयास से और विविध उपायों से, और अंततः छलसे मेरे हृदय में घुसकर उसे पापशून्य व परिशुद्ध बनाया और मुझको भगवान का दास बना दिया। इसलिए मैं आपके इस महोपकार के सिवाय दूसरे कौनसे विषयकी चिंता कर सकूं ? कुछ नहीं।
पाशुर ७९: सांसारियों के लिए श्रीरंगामृत स्वमीजी को बहुत दुख होता हैं, हालाकि संसार से मुक्त होने कि इच्छा हैं परन्तु बहुत दीन परिस्थिती में रहते हैं और ज्ञान प्राप्त करने कि क्षमता खो बैठे हैं।
पोय्यैच् चुरक्कुम् पोरुळैत् तुरन्दु इन्दप् पूदलत्ते
मेय्यैप् पुरक्कुम् इरामानुसन् निऱ्क वेऱु नम्मै
उय्यक् कोळ्ळ वल्ल देय्वम् इन्गु यादु एन्ऱु उलर्न्दु अवमे
ऐय्यप् पडा निऱ्पर् वैय्यत्तुळ्ळोर् नल्ल अऱिवु इळन्दे
इस भूतल पर असत्य अर्थों का ही प्रचार करनेवाले दुर्मतों का खंडन कर सत्य अर्थों की रक्षा करनेवाले भगवान श्रीरामानुज स्वामीजी के विराजमान रहते हुए ही, इनकी परवाह नहीं करते हुए पृथ्वी तल निवासी (भाग्यहीन) मानव यह चिंता करते हैं कि, ” हमारा उद्धार करने में समर्थ देव कौन हैं।” और दुःखी होकर, विवेक शून्य बनकर हाय ! व्यर्थ ही शंका कर रहे हैं।
पाशुर ८०: जब श्रीरामानुज स्वामीजी ने अन्यों के विषय में भूलने को और उनकी क्या धारणा हैं कहने को कहा तब श्रीरंगामृत स्वामीजी ने कहा कि वें जनों की निरंतर सेवा करते रहेंगे जो सभी जनों के विषय में प्रेम से हैं और श्रीरामानुज स्वामीजी के विषय में अंतग्रस्त हैं।
नल्लार् परवुम् इरामानुसन् तिरुनामम् नम्ब
वल्लार् तिऱत्तै मऱवादवर्गळ् यवर् अवर्क्के
एल्ला इडत्तिलुम् एन्ऱुम् एप्पोदिलुम् एत्तोळुम्बुम्
सोल्लाल् मनत्ताल् करुमत्तिनाल् सेय्वन् सोर्वु इन्ऱिये
सत्पुरुषों से सेवित श्रीरामानुजस्वामीजी के शुभ नामों का ही संकीर्तन करनेवालों के प्रभाव का, जो भूले बिना, सदा ध्यान करते हैं, ऐसे श्रीरामानुजभक्त – भक्तों का ही, मैं आलस्य छोड़कर सर्वदेश, सर्वावस्था और सर्वकालों में भी, वाचा मनसा और कर्मणा सकलविध कैंकर्य करूं।
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अडियेन् केशव् रामानुज दास्
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