श्री: श्रीमते शठकोपाय नम: श्रीमते रामानुजाय नम: श्रीमत् वरवरमुनये नम:
रामानुस नूट्रन्दादि (रामानुज नूत्तन्दादि) – सरल व्याख्या
पाशूर ४१: श्रीरंगामृत स्वामीजी कहते हैं इस संसार को जिसे भगवान नहीं सुधार सके, उसे श्रीरामानुज स्वामीजी के अवतार ने सुधार दिया।
मण्मिसै योनिगळ् तोऱुम् पिऱन्दु एन्गळ् मादवने
कण् उऱ निऱ्किलुम् काणगिल्ला उलगोर्गळ् एल्लाम्
अण्णल् इरामानुसन् वन्दु तोन्ऱिय अप्पोळुदे
नण्णरुम् ग्यानम् तलैक्कोण्डु नारणऱ्कु आयिनरे
हमारे स्वामी लक्ष्मीपति श्रीमन्नारायण ही इस भूतल पर अलग अलग रूपों में अवतार लेकर सबके नयनगोचर होकर विराजमान हुए थे। तो भी इस भूमंडलनिवासी लोग उनको अपने नाथ नहीं समझ सके। ऐसे रहनेवाले ये लोग, सर्वस्वामी श्रीरामानुज स्वामीजी के यहां पर अवतार लेने के बाद ही दुर्लभ ज्ञान प्राप्त कर श्रीमन्नारायण के शेष बन गये।
पाशूर ४२: श्रीरंगामृत स्वामीजी आनंदित है यह कहकर कि श्रीरामानुज स्वामीजी अपने श्रेष्ठ कृपा से उनकी रक्षा किये जब वें सांसारिक कार्यों में निरत थे।
आयिळियार् कोन्गै तन्गुम् अक्कादल् अळऱ्ऱु अळुन्दि
मायुम् एन् आवियै वन्दु एडुत्तान् इन्ऱु मामलराळ्
नायगन् एल्ला उयिर्गट्कुम् नादन् अरन्गन् एन्नुम्
तूयवन् तीदु इल् इरामानुसन् तोल् अरुळ् सुरन्दे
‘लक्ष्मीपति श्रीरंगनाथ भगवान ही सब के स्वामी हैं,’ यह उपदेश सबको देनेवाले, परमपवित्र और सकलविध दोषरहित श्री रामानुज स्वामीजी ने अपनी निर्हेतुक कृपासे, सुंदर आभूषण पहनने वाली स्त्रियों के स्तनों पर की जानेवाली आशारूपी कीचड़ में पड़कर विनाश पानेवाली मेरी आत्मा का, उद्धार किया ।
पाशूर ४३: जिस प्रकार श्रीरामानुज स्वामीजी ने उन्हें अपने छत्र में लिया, उससे बहुत खुश होकर और इस संसार के लोगों को देखकर वें उन्हें कहते हैं कि, श्रीरामानुज स्वामीजी के दिव्य नामों का संकीर्तन करें और उन्हें इसका पूर्ण लाभ प्राप्त होगा ।
सुरक्कुम् तिरुवुम् उणर्वुम् सोलप्पुगिल् वाय् अमुदम्
परक्कुम् इरु विनै पऱ्ऱु अऱ ओडुम् पडियिल् उळ्ळीर्
उरैक्किन्ऱनन् उमक्कु यान् अऱम् सीऱुम् उऱु कलैयैत्
तुरक्कुम् पेरुमै इरामानुसन् एन्ऱु सोल्लुमिने
हे भूतल निवासी जनों! मैं तुमसे एक हित बचन कहूंगा; सुनो। धर्ममार्ग पर नाराज होनेवाले प्रबल कलिपुरुष का ध्वंस करने वाले श्रीरामानुज स्वामीजी के शुभ नामों का संकीर्तन करो। उससे भक्तिसंपत् और ज्ञान बढ़ेंगे; नामसंकीर्तन करने के प्रारंभ में ही जीभ में अमृतरस बहेगा और महापाप समूल नष्ट हो जायेंगे।
पाशूर ४४: यह देखते हुए श्रीरामानुज स्वामीजी के महानता का दिशा निर्देश देते हुए उनसे सम्बंधीत विषयों में निरत नहीं हैं, उनके इस स्वभाव को देखकर उन्हें दुख हुआ।
सोल् आर् तमिळ् ओरु मून्ऱुम् सुरुदिगळ् नान्गुम् एल्लै
इल्ला अऱनेऱि यावुम् तेरिन्दवन् एण्णरुम् सीर्
नल्लार् परवुम् इरामानुसन् तिरुनामम् नम्बिक्
कल्लार् अगल् इडत्तोर् एदु पेऱु एन्ऱु कामिप्परे
समस्त सज्जनों से संस्तुत श्रीरामानुज स्वामीजी तीन प्रकार के द्राविड़शास्त्रों (गद्य,पद्य व नाटक), चार वेदों (ऋग, यजुर, साम, अथर्व) और अपरिमित धर्मशास्त्रों के वेत्ता हैं। संसारी लोग तो (ऐसे सकल शास्त्रवेत्ता एवं) असंख्येय कल्याण गुण विभूषित इनके नामसंकीर्तन नहीं करते; और (यह अर्थ भी नहीं जानते हुए कि यह नामसंकीर्तन ही परम पुरुषार्थ है) यों चिंता करते करते दुःख पाते हैं कि हमारे योग्य पुरुषार्थ कौनसा है।
पाशूर ४५: यह स्मरण करना कि कैसे श्रीरामानुज स्वामीजी ने श्रीरंगामृत स्वामीजी को अकारण हीं सही किया जब वें इस संसार के लोगों जैसे थे जो श्रीरामानुज स्वामीजी के प्रति अनिच्छुक थे। वें कहते हैं कि वों यह कह नहीं सकते कि कैसे श्रीरामानुज स्वामीजी ने उन पर कृपा कर लाभ दिया हैं।
पेऱु ओन्ऱु मऱ्ऱु इल्लै निन् चरण् इन्ऱि अप्पेऱु अळित्तऱ्कु
आऱु ओन्ऱुम् इल्लै मऱ्ऱु अच्चरण् अन्ऱि एन्ऱु इप्पोरुळैत्
तेऱुम् अवर्क्कुम् एनक्कुम् उनैत् तन्द सेम्मै सोल्लाल्
कूऱुम् परम् अन्ऱु इरामानुस मेय्म्मै कूऱिडिले
हे रामानुज स्वामिन्। सत्य कहूंगा। आपके चरणारविन्दों के सिवा दूसरी कोई प्राप्य वस्तु नहीं होगी; और उसका साधन भी आपके वे ही श्रीचरण हैं। यह तत्वार्थ ठीक जाननेवाले महात्मालोगों, और इस निश्चय से विरहित मुझको एकसम ही आपने जो अपनी कृपा का पात्र बना दिया, यह आपका आर्जवगुण वाचामगोचर वैभववाला है।
पाशूर ४६: श्रीरंगामृत स्वामीजी पर श्रीरामानुज स्वामीजी द्वारा लाभ पहुँचाने को
स्मरण करते उनके गुणों को गाते हुए, वें श्रीरामानुज स्वामीजी के दिव्य चरण कमलों कि पूजा करते हैं।
कूऱुम् समयन्गळ् आरुम् कुलैय कुवलयत्ते
माऱन् पणित्त मऱै उणर्न्दोनै मदियिलेन्
तेऱुम्पडि एन् मनम् पुगुन्दानै तिसै अनैत्तुम्
एऱुम् गुणनै इरामानुसनै इऱैन्जिनमे
श्रीशठकोप स्वामीजी ,इस संसार पर कृपा कर श्रीसहस्त्रगीति को दिया हैं जो द्राविड वेदम के नाम से सुप्रसिद्ध हैं और ६ बाह्य धर्मों को पूर्णत: नष्ट कर दिया। श्रीरामानुज स्वामीजी जिन्होंने यह श्रीसहस्त्रगीति को पढ़ा और यह जाना कि यह पूर्णत: मेरे हृदय कृपा कर प्रवेश किया ताकि मैं जिसे इसके बारे में कुछ भी ज्ञान नहीं हैं स्पष्टता प्राप्त कर सकू। हम ऐसे श्रीरामानुज स्वामीजी के नत मस्तक होते हैं जिनके पास ऐसे दिव्य गुण हैं जो सभी दिशा में फैल रही हैं।
पाशूर ४७: श्रीरामानुज स्वामीजी सभी को भगवान के प्रति रुचि उत्तपन्न करते हैं। श्रीरामानुज स्वामीजी द्वारा प्रदान किए गए लाभ को स्मरण करते हुए श्रीरंगामृत स्वामीजी कहते हैं कि उनके समान (बरा बर) कोई नहीं हैं।
इऱैन्जप्पडुम् परन् ईसन् अरन्गन् एन्ऱु इव्वुलगत्तु
अऱम् सेप्पुम् अण्णल् इरामानुसन् एन् अरुविनैयिन्
तिऱम् सेऱ्ऱु इरवुम् पगलुम् विडादु एन्दन् सिन्दैयुळ्ळे
निऱैन्दु ओप्पु अऱ इरुन्दान् एनक्कु आरुम् निगर् इल्लैये
इस भूमंडल पर इस साक्षात् परमधर्म, “सब के प्रणम्य परदेवता साक्षात् श्रीरंगनाथ भगवान ही हैं” का उपदेश करनेवाले सर्वस्वामी श्री रामानुजस्वामीजी मेरा प्रबल पापसमूह मिटा कर, मेरे हृदय में ही ऐसे दिनरात अविच्छिन्न विराजमान हैं कि मानों आप और कहीं रहते ही नहीं। अतः दूसरा कोई मेरे सदृश (भाग्यवान) नहीं है।
पाशूर ४८: श्रीरंगामृत स्वामीजी के शब्दों को सुनकर श्रीरामानुज स्वामीजी कहते हैं कि उनकी खुशी उनके साथ नहीं रहेगी अगर श्रीरंगामृत स्वामीजी श्रीरामानुज स्वामीजी को या इसके विपरीत हो जाये। इसको बताते हुए श्रीरंगामृत स्वामीजी कहते हैं कि उनका आश्रय की दीनता श्रीरामानुज स्वामीजी की कृपा हैं और श्रीरामानुज स्वामीजी के कृपा का लक्ष्य उनको शरण देने का उनकी दीनता है। दोनों को अलग करने का कोई कारण हीं नहीं हैं।
निगर् इन्ऱि निन्ऱ एन् नीसदैक्कु निन् अरुळिन् कण् अन्ऱिप्
पुगल् ओन्ऱुम् इल्लै अरुट्कुम् अह्दे पुगल् पुन्मैयिलोर्
पगरुम् पेरुमाइ इरामानुस इनि नाम् पळुदे
अगलुम् पोरुळ् एन् पयन् इरुवोमुक्कुम् आन पिन्ने
हे महात्माओं की स्तुती पाने योग्य वैभववाले श्री रामानुज स्वामिन् ! मेरी असदृश नीचता की शरण, आपकी कृपा के सिवा दूसरी कोई नहीं होगी; और आपकी उस कृपा की भी मेरी नीचता ही शरण है। इस प्रकार, जब यह अर्थ सिद्ध हुआ कि आपसे मेरा लाभ, और मेरे से आपका लाभ है, फिर, अब से हम दोनों क्यों व्यर्थ ही एक दूसरे को छोडेंगे ?
पाशूर ४९: श्रीरामानुज स्वामीजी के अवतार के पश्चात जो आधिक्य प्राप्त हुआ उसे स्मरण कर वें खुश हुए।
आनदु सेम्मै अऱनेऱि पोय्म्मै अऱु समयम्
पोनदु पोन्ऱि इऱन्ददु वेम् कलि पून्गमलत्
तेन् नदि पाय् वयल् तेन् अरन्गन् कळल् सेन्नि वैत्तुत्
तान् अदिल् मन्नुम् इरामानुसन् इत् तलत्तु उदित्ते
कमलपुष्पों से बहनेवाले मधु के प्रवाह से परिपूर्ण खेतों से परिवृत श्रीरंगक्षेत्र के स्वामी श्रीरंगनाथ भगवान के श्रीचरणों को अपने सिर पर धारण करते हुए, उन पर ही भक्ति करनेवाले श्री रामानुज स्वामीजी के इस धरातल पर अवतरित होने से, सीधा धर्ममार्ग प्रतिष्ठित हुआ; असत्यार्थ का वर्णन करनेवाले ६ मत नष्ट हो गये और क्रूर कलियुगने भी विनाश पाया।
पाशूर ५०: श्रीरंगामृत स्वामीजी श्रीरामानुज स्वामीजी के दिव्य चरणों के प्रति गहरा प्रेम देखकर आनंदित होते हैं।
उदिप्पन उत्तमर् सिन्दैयुळ् ओन्नलर् नेन्जम् अन्जिक्
कोदित्तिड माऱि नडप्पन कोळ्ळै वन् कुऱ्ऱम् एल्लाम्
पदित्त एन् पुन् कविप् पा इनम् पूण्डन पावु तोल् सीर्
एदित् तलै नादन् इरामानुसन् तन् इणै अडिये
सारे भूतल पर विस्तृत यशवाले यतिराज श्री रामानुज स्वामीजी के उभय श्रीपाद उत्तम पुरुषों के हृदयों में चमकते हैं, प्रतिपक्षियों के लिए भयंकर संचार करते हैं; और अपार व असह्य दोषों से परिपूर्ण मेरी इस स्तोत्ररूपी क्षुद्र कविता को स्वीकार करते हैं ।
आधार : https://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2020/05/ramanusa-nurrandhadhi-pasurams-41-50-simple/
अडियेन् केशव् रामानुज दास्
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