श्री: श्रीमते शठकोपाय नम: श्रीमते रामानुजाय नम: श्रीमत् वरवरमुनये नम:
रामानुस नूट्रन्दादि (रामानुज नूत्तन्दादि) – सरल व्याख्या
पाशूर १: श्रीरंगामृत स्वामीजी अपने हृदय को आमंत्रित करते हैं “हम सब श्रीरामानुज स्वामीजी के दिव्य नामों का स्मरण करें ताकि हम उनके दिव्य पादारविन्दों में कुशलतापूर्वक रह सके।”
पू मन्नु मादु पोरुन्दिय मार्बन् पुगळ् मलिन्द
पा मन्नु माऱन् अडि पणिन्दु उय्न्दवन् पल् कलैयोर्
ताम् मन्न वन्द इरामानुसन् चरणारविन्दम्
नाम् मन्नि वाळ नेञ्जे सोल्लुवोम् अवन् नामङ्गळे
हे मन! श्रीमहालक्ष्मीजी जो कमल पुष्प पर निवास करती है, भगवान के दिव्य वक्षस्थल का अनुभव कर, कमल पुष्प का त्याग कर , उस दिव्य वक्षस्थल पर निवास करने लगी। श्रीशठकोप स्वामीजी ,भगवान के दिव्य गुणों से पूर्ण तिरुवाय्मोळि में लीन हैं। श्रीरामानुज स्वामीजी, श्रीशठकोप स्वामीजी के दिव्य पादारविन्दों में समर्पण कर स्वयंको उद्धार किये। अनेक शास्त्रोंको सीखनेके बावज़ूत्, बहुत से विद्वान, जो श्रीरामानुज स्वामीजी के पहले थे, उनके अंतरिय अर्थों को समझ न सके। श्रीरामानुज स्वामीजी को उन अंतरिय अर्थों का पता था और उसे अच्छी तरह स्थापित किया। हम सब (श्रीरंगामृत स्वामीजी अपने हृदय से कहते हैं) श्रीरामानुज स्वामीजी के दिव्य चरण कमलों को अपना लक्ष्य बनाकर श्रीरामानुज स्वामीजी के दिव्य नामों का संकीर्तन करते रहे ताकि हम एक उद्देश से जीवन व्यतीत कर सके।
पाशूर २: पिछले पाशुर में श्रीरंगामृत स्वामीजी अपने हृदय को श्रीरामानुज स्वामीजी के दिव्य नामों का संकीर्तन करने के पश्चात कहते हैं सब कैंकर्य भूलकर उनका हृदय श्रीरामानुज स्वामीजी के दिव्य चरण कमलों का आनन्द ले रहा है । यह देख श्रीरंगामृत स्वामीजी आश्चर्य हो जाते हैं।
कळ् आर् पोळिल् तेन्नरङ्गन् कमलप् पदङ्गळ् नेञ्जिल्
कोळ्ळा मनिसरै नीन्गि कुऱैयल् पिरान् अडिक्कीळ्
विळ्ळादअन्बन् इरामानुसन् मिक्क सीलम् अल्लाल्
उळ्ळादु एन् नेंजु ओन्ऱु अरियेन् एनक्कुऱ्ऱ पेरियिल्वे
मधुस्यंदि उध्यानवनों से परिवृत श्रीरंगम दिव्यधाम में विराजमान भगवान के पादारविंदों का ध्यान न करनेवाले मानवों को छोड़कर, (तिरुमंगै आळ्वार )श्रीपरकाल स्वामीजी (जिन्होने तिरुक्कूरैयलूर में अवतार लिया और जिन्हें दिव्य प्रबन्ध रचने का लाभ मिला) के पादों में अविच्छिन्न भक्ति करनेवाले श्रीरामानुज स्वामीजी के शीलगुण के सिवा, मेरा मन, दूसरी किसी वस्तु का स्मरण नहीं करता; मैं अपने इस श्रेष्ठ स्वभाव का कोई कारण भी नही जान सकता।
पाशूर ३: श्रीरंगामृत स्वामीजी अपने हृदय को कहते है “मैं आपके नत मस्तक होता हूँ कि, जो संसार में लगे हुए हैं उन जनों से मेरा सम्बन्ध तोड़कर जो श्रीरामानुज स्वामीजी के चरण कमलों कि सेवा करते हैं उनमें संलिप्त होने के लिये मुझपर इतना कृपा किये ।
पेर् इयल नेञ्जे! अडि पणिन्देन् उन्नै पेय्प्पिरविप्
पूरियरोड़ु उळ्ळ सुऱ्ऱम् पुलर्त्ति पोरुवु अरुम् सीर्
आरियन् सेम्मै इरामानुस मुनिक्कु अन्बु सेय्युम्
सीऱिय पेरु उडैयार् अडिक्कीळ् एन्नैच् चेर्त्तदऱ्के
हे हृदय जिसका बहुत उत्तम गुण हैं! मुझे बहुत लाभ देने के लिये मैं आपके नतमस्तक होता हूँ – क्योंकि आसुरी जन्मवाले नीचों के साथ लगा हुआ मेरा सम्बन्ध तोड़ डालकर, अद्वितीय कल्याणगुणवाले, श्रेष्ठ अनुष्ठानवाले एवं निष्कपट स्वभावले श्रीरामानुज स्वामीजी के विषय में की जानेवाली भक्ति को ही परमपुरुषार्थ माननेवाले आर्य जनों के पादारविंदो के नीचे मुझको लगा दिया।
पाशूर ४: वह कहते हैं श्रीरामानुज स्वामीजी की निर्हेतुक कृपा से उनका अपने पहले का नैच्यानुसंधान कि स्थिति पर पहूंचने की संभावना नहीं हैं और उनमें कोई दोष भी नहीं है।
एन्नैप् पुवियिल् ओरु पोरुळाक्कि मरुळ् सुरन्द
मुन्नैप् पळविनै वेर् अऱुत्तु ऊळि मुदल्वनैये
पन्नप् पणित्त इरामानुसन् परम् पादमुम् एन्
सेन्नित् तरिक्क वैत्तान् एनक्कु एदुम् सिदैवु इल्लैये
एम्पेरुमानार ने सभी को उस परमात्मा का एहसास और जो सभी तत्वों ( चेतनों औरअचेतनों) का कारण है, उसपर ध्यान करने के लिए प्रेरित किये उन्होंने यह श्रीभाष्य (उनके द्वारा रचित एक ग्रन्थ) द्वारा प्राप्त किया। श्रीरामानुज स्वामीजी जो सभी से श्रेष्ठ हैं मुझे जो अचेतन जैसा था को चेतन बनाया। श्रीरामानुज स्वामीजी ने अपने पादों को भी मेरे सिरपर स्थापित किया। ऐसे महा प्रसाद के पात्र बननेवाले मुझको अब किसी प्रकार की हानि न होगी।
पाशूर ५: श्रीरंगामृत स्वामीजी जिन्होंने यह प्रबन्धम श्रीरामानुज स्वामीजी के दिव्य नामों का संकीर्तन करते हुए प्रारम्भ किया और अब यही कर रहे हैं। यह कहते हुए कि कुदृष्टिवाले (जो गलत तरीके से वेदों की व्याख्या करते हैं) इनकी निंदा कर सकते हैं , वह हिचकिचाते हैं और तत्पश्चात स्वयं को आश्वासन देकर जिस कार्य को उन्हें करना हैं उसमे निरत हो जाते हैं।
एनक्कु उऱ्ऱ सेल्वम् इरामानुसन् एन्ऱु इसैयगिल्ला
मनक् कुऱ्ऱ मान्दर् पळिक्किल् पुगळ् अवन् मन्निय सीर्
तनक्कु उऱ्ऱ अन्बर् अवन् तिरुनामन्गळ् साऱ्ऱुम् एन् पा
इनक् कुऱ्ऱम् काणगिल्लार् पत्ति एय्न्द इयल्वु इदु एन्ऱे
कुदृष्टिवाले यदि मेरे इस ग्रन्थ की निंदा करेंगे तो यह निंदा ही वास्तव में इसकी प्रशंसा होगी और श्रीरामानुज स्वामीजी हीं हमारे स्वरूप का धन है, मेरे इस प्रयास को उपहास बनायेंगे। परंतु जो महात्मा लोग श्रीरामानुज स्वामीजी के दिव्य शुभगुणों के अनुरूप, उन पर प्रेम करते हैं, वें उन आचार्य के श्रीनामों से विभूषित इन मेरी गाथाओं में विध्यमान दोषों पर भी नजर नहीं डालेंगे।
पाशूर ६: पिछले पाशूर में श्रीरंगामृत स्वामीजी कहते हैं कि यह उनका श्रीरामानुज स्वामीजी के प्रति भक्ति का प्रचार हैं। अब वें स्वयं को दोष देकर कहते हैं कि उनका श्रीरामानुज स्वामीजी के महानता के साथ समान भक्ति नहीं हैं।
इयलुम् पोरुळुम् इसैयत् तोडुत्तु ईन् कविगळ् अन्बाल्
मयल् कोण्डु वाळ्त्तुम् इरामानुसनै मदि इन्मैयाल्
पयिलुम् कविगळिल् पत्ति इल्लाद एन् पावि नेन्जाल्
मुयल्गिन्ऱनन् अवन् तन् पेरुम् कीर्त्ति मोळिन्दिडवे
अतिविलक्षण सामार्थ्यवाले कविलोग, प्रेमके मारे पागल बनकर, परस्पर अनुरूप शब्द व अर्थ मिलाकर जिन काव्यों से श्रीरामानुज स्वामीजी की स्तुति करते हैं, उन काव्यों में सर्वथा भक्तिशून्य और बुद्धिशून्य मैं अपने पापिष्ठ मन से उन आचार्य सार्वभौम के असीम यश की स्तुति करने का प्रयत्न कर रहा हूँ।
पाशूर ७: श्रीरंगामृत स्वामीजी अपनी दीनता को देखकर पीछे हठते हैं, श्रीकूरेश स्वामीजी (श्रीरामानुज स्वामीजी के प्रमुख शिष्यों में से एक) के दिव्य चरण कमलों को स्मरण करते हैं और यह तय करते हैं कि यह कठिन कार्य नहीं हैं और उसे प्रारम्भ करते हैं।
मोळियैक् कडक्कुम् पेरुम् पुगळान् वन्ज मुक्कुऱुम्बाम्
कुळियैक् कडक्कुम् नम् कूरत्ताळ्वान् चरण् कूडिय पिन्
पळियैक् कडत्तुम् इरामानुसन् पुगळ् पाडि अल्ला
वळियैक् कडत्तल् एनक्कु इनि यादुम् वरुत्तम् अन्ऱे
वाचामगोचर, महायशवाले एवं कुलमद-धनमद-विध्यामद नामक तीन प्रकार के मदरूपी गड्ढों का पार करनेवाले, हमारे नाथ श्रीकूरेश स्वामीजी के श्रीपादों का आश्रय लेने के बाद, सर्वपापनिवार्तक श्री रामानुज स्वामीजी के दिव्य यशोगान करके, स्वरूपविरुद्ध दुष्ट मार्गों से बचना अब मेरे लिए बिलकुल कठिन नहीं हैं।
पाशूर ८: श्रीरंगामृत स्वामीजी कहते हैं श्रीरामानुज स्वामीजी श्रीसरोयोगी (पोय्गै आळ्वार्) स्वामीजी द्वारा बड़ी कृपा से रचित प्रबन्धम को ध्यानमग्न होकर संकीर्तन करते थे, वें उनके भगवान हैं।
वरुत्तुम् पुऱ इरुळ् माऱ्ऱ एम् पोय्गैप्पिरान् मऱैयिन्
कुरुत्तिन् पोरुळैयुम् सेन्दमिळ् तन्नियुम् कूट्टि ओन्ऱत्
तिरित्तु अन्ऱु एरित्त तिरुविळक्कैत् तन् तिरु उळ्ळत्ते
इरुत्त्म् परमन् इरामानुसन् एम् इऱैयवने
नानाप्रकार के दु:ख देनेवाले सांसारिक क्षुद्र पदार्थ विषयक अज्ञानरूपी अंधकार मिटाने के लिए हमारे प्रपन्न कुल (वह कुल जो पूर्ण रूप से भगवान के शरण हो गये हैं) के नाथ श्रीसरोयोगी (पोय्गै आळ्वार्) स्वामीजी ने पूर्वकाल में, वेदांतों के निगूढ़ अर्थों तथा द्राविड भाषा को मिलाकर, बत्ती बनाकर (मुदल तिरुवंदादि नामक प्रबन्धम) जो दीप जलाया, इसका अपने हृदय से ठीक धारण करनेवाले भगवान श्रीरामानुज स्वामीजी हमारे नाथ हैं।
पाशूर ९: श्रीरंगामृत स्वामीजी कहते हैं जो श्रीरामानुज स्वामीजी के दिव्य गुणों का संकीर्तन करते हैं, जो श्रीभूतयोगी स्वामीजी के दिव्य चरण कमलों को अपने दिव्य मन में स्मरण करते हैं, वें इस संसार में वेदों की रक्षा कर उसे स्थापित करेंगें ।
इऱैवनैक् काणुम् इदयत्तु इरुळ् केड ज्ञानं एन्नुम्
निऱैविळक्कु एट्रिय भूदत् तिरुवडि ताळ्गळ् नेन्जत्तु
उऱैय वैत्तु आळुम् इरामानुसन् पुगळ् ओदुम् नल्लोर्
मऱैयिनैक् कात्तु इन्द मण्णगत्ते मन्नवैप्पवरे
सर्वस्वामी भगवान का साक्षात्कार पाने के उपकरण हृदय के अंधकार मिटाने के लिए (‘इरण्डाम् तिरुवंदादि’ नामक प्रबन्ध) पूर्ण दीप जलानेवाले श्री भूतयोगी स्वामीजी के श्रीपादों को अपने मन में सुदृढ़ प्रतिष्ठापित करके, उन्हींका अनुभव करनेवाले श्रीरामानुज स्वामीजी के दिव्यगुणों का ही नित्य अनुसंधान करनेवाले विलक्षण महात्मालोग वेदों की रक्षा भाह्योऔर कुदृष्टिवालो से कर उनको शाश्वत प्रतिष्ठापित भी करनेवाले हैं।
पाशूर १०: श्रीरंगामृत स्वामीजी कहते हैं जो श्रीमहामहिम श्रीमहद्योगी स्वामीजी के भक्त श्रीरामानुज स्वामीजी के परमभक्तों के पादभक्त हैं वास्तव में हीं नित्यश्रीमान है।
मन्निय पेरिरुळ् माण्डपिन् कोवलुळ् मामलराळ्
तन्नोडुम् आयनैक् कण्डमै काट्टुम् तमिळ्त् तलैवन्
पोन् अडि पोऱ्ऱुम् इरामानुसर्कु अन्बु पूण्डवर् ताळ्
सेन्नियिल् सूडुम् तिरुवुडैयार् एन्ऱुम् सीरियरे
पहले दो आळ्वारों ने दीप जलाकर (अपने प्रबन्ध से) विशाल और अविचलनिय अज्ञान को दूर किया। मिटाने अशक्त महान अंधकार के निवृत्त हो जानेपर तिरुक्कोंवलूर नामक दिव्यदेश के अधिपति ‘आयनार’ नामक भगवान को महालक्ष्मी के साथ दर्शनकर, उस दर्शन प्रकार का वर्णन करनेवाले द्राविड भाषा के सार्वभौम श्रीमहाद्योगी स्वामीजी के सुंदर श्रीपादों की स्तुति करनेवाले श्रीरामानुज स्वामीजी के बारे में भक्ति करनेवालों के श्रीपादों को अपने सिरपर धारण करनेवाले भाग्यवान नित्यश्री-विभूषित हैं।
अगले अनुच्छेद में इस प्रबन्धम के अगले भाग पर चर्चा करेंगे।
आधार : https://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2020/04/ramanusa-nurrandhadhi-pasurams-1-10-simple/
अडियेन् केशव् रामानुज दास्
archived in https://divyaprabandham.koyil.org
pramEyam (goal) – https://koyil.org
pramANam (scriptures) – http://granthams.koyil.org
pramAthA (preceptors) – http://acharyas.koyil.org
SrIvaishNava education/kids portal – http://pillai.koyil.org