पूर्वदिनचर्या – श्लोक – २

श्री:
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवर मुनये नमः

परिचय

श्लोक १                                                                                                                                   श्लोक  ३

श्लोक २

मयि प्रविशति श्रीमन्मन्दिरं रंगशायिनः ।
पत्यूः पदाम्बुजं द्रष्टुमायान्तमविदुरतः ॥ 2 ॥

मंगलाशासन के बाद अब आचार्य श्री वरवरमुनि स्वामीजी के कृपा कि बौछार कैसे हुयी इसका वर्णन करते हुये वे अपने जीवन का उदेश्य बता रहे है कि आचार्य का भजन सुनते हुये इनके सन्मुख होकर रहना , जिससे संसार कि सभी परेशानियाँ स्वयं मीट जायेगी । एक शिष्य का कर्तव्य है कि अपने आचार्य कि प्रशंसा करना , इस कर्तव्य को निभाते हुये श्री देवराज गुरुजी “ मायि प्रविशति ” से लेकर “ अनस्पदम ” श्लोक तक श्री वरवरमुनि स्वामीजी कि दिनचर्या का वर्णन कर रहे है ।

शब्दार्थ

मयि                –      अडियन , दास
प्रविशति          –      प्रवेश करते समय
श्रीमान            –      कैंकर्य रूपी धन के स्वामी ( भगवान के दास ) श्री वरवरमुनि स्वामीजी
मन्मन्दिरं       –      मंदिर के बारे में
रंगशायिनः      –      श्रीरंगम में शयन शैया में विराजमान श्रीरंगनाथ भगवान
पत्यूः              –      श्रीरंगनाथ भगवान के
पदाम्बुजं         –      कमल कि तरह श्री चरण
द्रष्टुम             –      सेवा करने के लिये
आयान्तम       –      पहुँचने तक
अविदूरतः        –      नजदीक

श्रीमान और मंदिरम शब्दों को अलग किये बिना, श्रीमत शब्द मंदिरम के लिये विशेषण के रूप में उपयोग कर सकते है । इस प्रकार श्रीरंगम मंदिर कैंकर्य करने के लिये सही स्थल और परमधन है , इसको दर्शाता है । देवराज गुरुजी कहते है “ मै वरवरमुनि स्वामीजी के पहिले श्रीरंगनाथ भगवान के दर्शन करने के लिये गया , लेकिन जब मैने भगवान के दर्शन करने के लिये मंदिर में प्रवेश किया जो कि आचार्य के दर्शन से ज्यादा महत्व नहीं है , आश्चर्य कि बात है कि श्री वरवरमुनि स्वामीजी श्रीरंगनाथ भगवान के दर्शन करते हुये मेरे सामने ही खड़े थे। ”

अतः आचार्य के दर्शन पहिले न करके जो पाप मुझे लगा था, उस पाप को श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दर्शन करते ही मिट गया । श्री उ.वे.अण्णा अप्पागंर स्वामी अपने व्याख्या में कहते है कि आचार्य भगवान से भी श्रेष्ठ है ,जैसे जंगल में कुल्हाड़ी अपने आय सम्पादन हेतु पेड़ों को काटने के लिये ढूँढता रहता है और अनायास उसे कोई धन का खजाना मिल जाता है , ऐसे आचार्य कि पूजा करने कि चाहना रखनेवाले श्री देवराज स्वामीजी को आचार्य स्वयं दर्शन देने के लिये सामने प्रकट हो गये ।

वरवरमुनि स्वामीजी सोचते है कि श्रीरामानुज स्वामीजी के श्रीचरणों में सेवा करना ही परम पुरुषार्थ है और उसके लिये श्रीचरण ही एक साधन है । इसी विश्वास के साथ वरवरमुनि स्वामीजी रंगनाथ भगवान कि सेवा करते हुये मंगलाशासन करते है अपने पुरुषार्थ के लिये नहीं करते है ।जो केवल भगवान के मंगलाशासन करने में ध्यान देते  है और अन्य विषय  ( देवतांतर, प्रयोजनान्तर, विषयांतर, मोक्ष के लिये भगवान कि शरणागति करनेवाले यह सभी विषय समान है ) उनके लिये कोई मान्य नहीं रखते है उन्हे परमैकान्ती कहते है । यह सब विशेष लक्षण श्री वरवरमुनी स्वामीजी में रहने के कारण उन्हे परमैकान्ती कहते है ।

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