यतिराज विंशति – श्लोक – २०

श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनय् नमः

यतिराज विंशति

श्लोक  १९

श्लोक  २०

विज्ञापनम यदिदमद्द्य तु मामकीनम् अङ्गिकुरुष्व यतिराज! दयाम्बुराशे! ।
अग्न्योSयमात्मगुणलेशविवर्जितश्च तमादन्नयशरणो भवतीति मत्वा ॥ २०॥ 

दया अम्बुराशे                   : सागर के समान दयालु
यतिराज                           : हे यतिराज
अध्य                                : अभी
मामकीनम                       : मेरा
यद् विज्ञापनम                  : तीसरे श्लोक से पूर्व श्लोक तक जो प्रार्थना किया गया था
इदं                                 : उन प्रार्थनाओं को
अग्न्य अयं                        : यह शुद्ध ज्ञान नहीं होनेवाला
आत्मगुणलेश विवर्जितश्च    :  मानसिक नियंत्रण या शारीरिक नियंत्रण  जैसे कोई आत्म अनुशासन कुछ भी नही
तस्मात्                            : इसलिए
अनन्य शरणः भवति         : इसको आपके अलावा और कोई सहायक नहीं
इति मथवा                       : यह सोचकर
अंगी कुरुष्व                     : मुझे स्वीकार कीजिये |

अब तक उनसे किया गया प्रार्थना को श्री यतिराज स्वीकार करने का विचार करते हैं इस श्लोक में । उनका विचार यह है कि श्री यतिराज के सिवा उनकी सहायता करनेवाला और कोई नहीं है| दयाम्बुरासे – इससे ये प्रकटित होता है कि कभी भी न सूखने वाला सागर के समान दयालु हैं श्री रामानुज | और यह भी प्रस्तावित होता है कि श्री रामानुज का दया स्वाभाविक होता है | और कोई बाहरी कारणों से नहीं | उनकी दया को बहुत बार उल्लिखित करते हैं – १) दयैकसिंधो (६ स्लोक में) २) रामानुजार्य करुणैवतु (१४ स्लोक में) ३) भवददयया (१५ स्लोक में) ४) करुणापरिणाम (१६ स्लोक में) ५) दयाम्बुरासे (२० स्लोक में) | इससे यह प्रकटित होता है कि श्री यतिराज एक “कृपा मात्र प्रसन्नाचार्या” हैं ( इसका अर्थ यह है कि अन्यत्र कोई कारण के बिना अपने स्वाभाविक कृपा से सब लोगों को उपदेश देकर उनको मोक्ष का मार्ग दिखाते हैं |)

रामानुज नूट्रन्दादि और यतिराज विम्शति का सद्रुश्यता

यतिराज विम्शति का पहला स्लोक है “श्री माधवांग्री जलजद्वय नित्य सेवा प्रेमा विलासय परांकुस पाद भक्तम्” । रामानुज नूट्रन्दादि का पहला स्लोक है “पूमन्नु मादु पोरुन्दिय मार्बन्, पुगळ् मलिन्द पामन्नु मारन् अडि पणिन्दु उयिन्दवन्” । ये दोनो स्लोकों समानार्थक होते हैं ।

इसी तरह , यतिराज विम्शति का उपांत्य स्लोक (श्रीमन् यतीन्द्र तव दिव्य पदाब्ज सेवाम्..)और रामानुज नूट्रनदादि का उपांत्य स्लोक(…उन् तोन्डर्गट्के अन्बुतिरुक्कुम्पडि एन्नै आक्कि अण्गाट्पडुत्ते ) समानार्थक होते हैं ।

इससे हम यह सोचकर निःसन्देह से रह सकते हैं कि जिस प्रकार श्री रामानुज मुनि रामानुज नूट्रन्दादि को स्वयं सुनकर आनन्दित हुए उसी प्रकार यतिराज विम्शति को हमसे सुनकर आनन्दित होंगे |

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