श्री:
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवर मुनये नमः
श्लोक ३२
ततश्शुभाश्रये तस्मिन्निमग्मं निभृतं मनः ।
यतीन्द्रप्रणवं कर्तुम् यतमानम् नमामि तं ॥ ३२॥
शब्दार्थ –
ततः – योग का अभ्यास के बाद अन्यथा जिसे भगवान का ध्यान कहते है,
तस्मिन् – पूर्व मे जिस प्रकार कहा गया,
सुभाश्रये – वो परमपुरुष भगवान जिनका ध्यान योगी करते है,
निमग्नम् – पूर्णरूप से निमग्न,
निभृतम् – निष्ठा से,
मनः – अपने मन को,
यतीन्द्रप्रणवम् – श्री यतिराज (यतीन्द्र) पर अत्यन्त अनुरक्त होकर,
यतमानम् – कोशिश करते हुए,
तम् – ऐसे श्री वरवरमुनि ,
नमामि – मै भजता हूँ ।
भावार्थ (टिप्पणि) –
यहाँ यतीन्द्रप्रणवंकर्तुम् अर्थात यतीन्द्रप्रवणमेवकर्तुम् । माने श्री वरवरमुनि ने सारे नित्यकर्मानुष्ठान जैसे भगवदभिगमन और अन्य विधियाँ को श्री यतिराज के दिव्यचरणकमलों का ध्यान करते हुए सम्पूर्ण किया जो सौलह्वे श्लोक मे पूर्व ही प्रतिपादित है – “यतीन्द्रच्चरणात् द्वन्त प्रवणेनैव चेतसा” । अतः आप श्रीमन ने अपने प्रिय श्री-भविष्यदाचार्य-श्रीरामानुजाचार्य की प्रतिमा का ध्यान किया । भगवान का वह दिव्यमंगलस्वरूप जिसका केवल स्मरण मात्र से सर्वदुःखों का नाश होता है, जो ध्यान के योग्य है और ध्यानावस्था को प्रभावित करता है, ऐसा स्वरूप हमारे श्री वरवरमुनि को अपनी ओर आकर्शित कर रहा है । केवल चरमपर्व (आचार्याभिमान – पंञ्चमोपाय) के उपाय के आधारपर अगर श्री एरुम्बियप्पा श्री वरवरमुनि को भजते है , तो वह आसानी से चरमपर्व को सिद्ध करते है और इसी कारण उन्होने “यतीन्द्र प्रवणम् कर्तुम् यतमानम् नमामि तम्” का प्रयोग किया है ।
जीयर तिरुवडिगले शरणम
पूर्व दिनचर्या सम्पन्न
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