श्री:
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवर मुनये नमः
श्लोक ३
सुधानिधिमिव स्वैरस्वीकृतोदग्रविग्रहम ।
प्रसन्नार्क प्रतिकाश प्रकाश परिवेष्टितम ॥ ३ ॥
शब्दार्थ
सुधानिधिमिव – क्षीरसागर कि तरह श्वैत रंग में प्रतीत होता है ।
स्वैरस्वीकृतोदग्रविग्रहम – सुन्दर शरीर जिसे उन्होने स्वयं स्वीकारना चाहा ।
प्रसन्नार्क प्रतिकाश प्रकाश परिवेष्टितम – वरवरमुनी स्वामीजी चमकदार सूर्य की तरह है जिसका अनुभव बिना किसी भ्रम निवृत्ति के इन नेत्रों से होता है ।
शिष्य का कर्तव्य है कि सदैव आचार्य के दिव्य मंगल विग्रह का श्रीचरणों से लेकर मुखारविन्द तक ध्यान करते रहना और साष्ठांग करने में रुचि रखना । इसीके अनुसार देवराज स्वामीजी अपने आचार्य श्री वरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य मंगल विग्रह का वर्णन कर रहे है । वरवरमुनि स्वामीजी अनंतालवान स्वामीजी के अवतार माने जाते है , जिनका दिव्य मंगल विग्रह अत्यन्त सफ़ेद है , और वे सफ़ेद दिव्य मंगल विग्रह को क्षीरसागर कि तरह समझ रहे है । क्षीरसागर अत्यन्त सफ़ेद न होने के कारण सूर्य के तेज को श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य मंगल विग्रह के साथ किया जाता है । सूर्य का प्रकाश अत्यन्त उग्र और प्रखर है , इसको मिटाने के लिये सूर्य के साथ विशेषण के रूप में प्रसन्न शब्द का उपयोग किया जाता है । प्रसन्न शब्द स्पष्ट और ताजगी को सूचित करता है , जिस प्रकार सूर्य उभरता है उसी तरह श्री वरवरमुनि स्वामीजी आलंकारीक होते है ।
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