दिव्य प्रबंधम् – सरल मार्गदर्शिका – भाग ६

श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद् वरवरमुनये नमः 

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हमने अब तक इयऱ्-पा के पहले चार प्रबन्धम् देखे हैं, अर्थात् मुदल् तिरुवंदादि, इरंडाम् तिरुवंदादि, मून्ऱाम तिरुवंदादि और नानमुगन् तिरुवंदादि।

इयऱ्-पा के अगले प्रबन्धम् हैं: तिरुविरुत्तम्, तिरुवासिरियम् और पेरिय तिरुवंदादि, ये सभी श्री शठकोप स्वामी (नम्माऴ्वार्)  द्वारा रचित हैं। नम्माऴ्वार् ने चार प्रबन्धम् की रचना की है, जिनमें से तीन इयऱ्-पा में हैं और चौथा तिरुवाय्मोऴि है, जो दिव्य प्रबन्धम् के चौथे सहस्त्र का हिस्सा (गठन) है। इससे पहले कि हम इन प्रबंधों (प्रबन्धम्) के सार के अनुभव में प्रवेश करें, आइए हम नम्माऴ्वार् की महिमा की एक झलक देखें।

नम्माऴ्वार् ने आऴ्वार् तिरुनगरी नामक दिव्य स्थान पर अवतार लिया, इसे आऴ्वार् के जन्म से पहले तिरुक्कुरुगूर कहा जाता था, जो तमिऴ् नाडु के तिरुनेल्वेली जिले में ताम्रपरणी नदी के तट पर स्थित है।

आऴ्वार् के जन्म के समय, उनके माता-पिता उन्हें आऴ्वार् तिरुनगरी के मंदिर में लेकर आए थे, और आऴ्वार् ने इमली के पेड़ के नीचे शरण ली, जो तिरुप्पुळि आऴ्वार् के नाम से जाना जाता है, इस प्रकार वे केवल एम्पेरुमान् (भगवान्) के बना दिए गए। नम्माऴ्वार् वहाँ तिरुप्पुळि आऴ्वार् के खोखले (खोल) में ही रहे, बैठी मुद्रा (आसन) में भगवान् का गहन ध्यान करते हुए, इस भौतिकवादी संसार के किसी भी विषय में लिप्त (आसक्त) हुए बिना, और केवल भगवान् के दिव्य गुणों में ही लीन रहे। 

वह इस संसार में केवल ३२ तिरुनक्षत्र (वर्ष) तक रहे। जिनमें से प्रथम १६ वर्ष उन्होंने भगवान् के ध्यान में व्यतीत किये। उन १६ वर्षों के अंत में, मधुरकवि आऴ्वार् को नम्माऴ्वार् के दर्शन प्राप्त हुए। मधुरकवि आऴ्वार् का अवतार स्थल आऴ्वार् तिरुनगरी के समक्ष तिरुक्कोळूर् क्षेत्र है। वे उत्तर भारत में तीर्थयात्रा कर रहे थे, सारे दिव्य स्थलों के भगवान के दर्शन और दिव्यानुभव करते हुए, जब अचानक एक दिन उन्होंने आकाश में दक्षिण दिशा की ओर एक दिव्य ज्योति को देखा। उस दिव्य ज्योति को अनुसरण करने का‌ निश्चिय करके, वे दक्षिण की ओर प्रस्थान करते हैं और अंततः उस दिव्य ज्योति के मार्गदर्शन से तिरुप्पुलियाऴ्वार् तक आ पहुँचते हैं, जहाँ उन्होंने श्री शठकोप स्वामी को गहरे ध्यान-योग में पाया। जब मधुरकवि आऴ्वार् ने श्री शठकोप स्वामी के समीप एक पत्थर फेंककर उनसे प्रश्न किया, “सॆत्तदिन् वयिट्रिल् सिऱियदु पिऱन्दाल्, ऎत्तैत् तिन्ऱु ऎङ्गे किडक्कुम्”, तो उसके उत्तर में शठकोप स्वामी कहते हैं, “अत्तै तिन्ऱु अङ्गे किडक्कुम्”। इस दिव्य वार्तालाप में मधुरकवि आऴ्वार् का प्रश्न जीवात्मा, परमात्मा और अचेतन – तत्व त्रयम् के संबध में था। श्री शठकोप स्वामी के उत्तर को सुनकर मधुरकवि आऴ्वार् को ज्ञात होता है कि शठकोप स्वामी परम ज्ञानी हैं और उन्हें अपने आचार्य और सर्वस्व मानकर उनकी सेवा में क‌ई वर्ष काल व्यतीत करते हैं। आऴ्वार् और १६ वर्षों तक इस संसार में रहने के पश्चात परमपद धाम प्राप्त करने की इच्छा से श्री वैकुंठ आरोहण किया। 

ऐसे श्री शठकोप स्वामी ने चार दिव्यप्रबंधों की रचना की जिन्हें चार वेदों के समान माना जाता है:

१. तिरुविरुत्तम् – ऋग् वेद 
२. तिरुवासिरियम् – यजुर्वेद 
३. पेरिय‌ तिरुवन्दादी – अथर्ववेद 
४. तिरुवाय्मोऴि – सामवेद 

एक और संबंध जो कि श्री कलिवैरिदास स्वामी (आचार्य नम्पिळ्ळै) तिरुवाय्मोऴि के अपने भाष्य में दर्शाते हैं, श्रीशठकोप सूरी द्वारा रचित इन चार प्रबंधों में रहस्य त्रयम् का सार है, अर्थात तिरुमंत्रम् (अष्टाक्षरी मंत्र), द्वयम् और चरम श्लोक (गीता चरम श्लोक), जिन्हें वेद का सार माना जाता है। इस विश्लेषण के अनुसार – तिरुमंत्रम् के प्रणवम् और नमः पदों को तिरुविरुत्तम् दर्शाता है। तिरुमंत्रम् के नारायणाय पद को तिरुवासिरियम् दर्शाता है। पेरिय तिरुवन्दादी चरम श्लोकम् को और अंततः तिरुवाय्मोऴि द्वयम् को दर्शाता है। 

तिरुविरुत्तम् और तिरुवाय्मोऴि के बीच एक और रोचक संबंध भी है, अर्थात तिरुविरुत्तम् के १०० श्लोकों का तिरुवाय्मोऴि के १०० दशकों से स्पष्ट रूप से संबंध है। इसे बड़ी सुंदरता से आचार्य अऴगिय मणवाळप् पेरुमाळ् नायनार् (श्री रम्यजामातृ देव) ने अपने सर्वश्रेष्ठ कृति ‘आचार्य हृदयम्’ में दर्शाया है‌ और इसे अन्य आचार्यों‌ ने विस्तृत रूप से समझाया भी है। 

अब हम नम्माऴ्वार् के प्रथम प्रबंधम् के विषय में देखते हैं, तिरुविरुत्तम्

आऴ्वार् ने श्लोकों की‌ रचना सामान्यतः दो भावों में किया है – एक उनकी प्राकृतिक भाव में और दूसरा प्रेम भाव में, जहाँ आऴ्वार् स्वयं को स्त्री के रूप में (स्त्री-भाव) मानते हैं। स्त्री-भाव (पॆण् भावम्) में ३ स्थितियाँ हैं – माता (ताय्), सहेली (तोऴि) और नायिका (पत्नी/प्रेमिका/नायिका)। इन प्रत्येक स्थितियों में आऴ्वार् जीवात्मा और परमात्मा के संबंध के तीन गुणों को दर्शाते हैं, जो क्रमशः हैं – उपायम् (भगवान को प्राप्त करने का साधन), संबन्धम् (भगवान से जुड़े संबंध का स्वभाव) और प्रयोजनम् (भगवान को प्राप्त करने पर मिलने वाला फल/लक्ष्य)। 

इस प्रबंधम् में पहले और अंतिम पासुरम् (श्लोक) में आऴ्वार्‌ ने स्वयं के भाव (तानान निलै – आऴ्वार् को प्राप्त उच्चतम और अकलंकित ज्ञान की अवस्था में स्थित होना) से गाया है। बीच के इतर ९८ पासुरम् प्रेम भाव (आऴ्वार् की स्त्री अवस्था भगवान के प्रति प्रेम दर्शाते हुए) से। भगवान द्वारा ‘मयऱ्-वर मदिनलम्’ अर्थात अकलंकित ज्ञान और भक्ति का अनुग्रह पाकर, आऴ्वार् प्रथम पासुरम् में ही भगवान को एक संदेश (विरुत्तम्) भेजते हैं, जिसे तमिऴ् में विरुत्तम् कहा जाता है,‌ जो है – “मैं इस संसार में इससे मिलनेवाले ताप के कारण अपने आपको और नहीं बनाए रख सकता‌, और आपको (भगवान) पाने का इच्छुक हूँ”। क्योंकि यह एक संदेश है जो आऴ्वार् द्वारा भगवान को आऴ्वार् की अवस्था की दशा बताता है, इस प्रबंधम् को तिरुविरुत्तम् नाम मिला। प्रथम पासुरम् में आऴ्वार् भगवान से निवेदन करते हैं कि वे आएँ और इनकी विनती सुनें। आऴ्वार् जो वाक्यांश प्रयोग करते हैं, “अडियेन् सॆय्युम् विण्णप्पमे”, इसमें विण्णप्पम् यह तमिऴ् शब्द जिसे आचार्यों और श्रीवैष्णव पुरुषों से निवेदन/वार्तालाप में आदरणीय रूप में उपयोग करते हैं, आऴ्वार् द्वारा ही दिया‌ गया है। 

अगले ९८ श्लोकों में आऴ्वार् स्त्री-भाव धारण करते हुए गाते हैं, जिसमें हमें मातृ भाव, सहेली भाव और नायिका भाव तीनों स्थितियाँ प्रकट होते हुए, भगवान से बिछड़कर व्याकुल हुए आऴ्वार् की दशा का वर्णन करते हैं। 

प्रबंधम् के अंतिम पासुरम् (साट्रुमुरै पासुरम्) में आऴ्वार् दुहराते हैं कि किस प्रकार यह संसार (भौतिक जगत) माया से बना है और एक शक्तिशाली दल-दल है, और किस प्रकार भगवान ही एकमात्र रक्षक हैं। 

इस प्रबंधम् के लिए आचार्य पेरियवाच्चान् पिळ्ळै ने एक सुंदर भाष्य दिया है, जिसके प्रस्तावना में आऴ्वार् (श्री शठकोप स्वामी) कौन हैं इस प्रश्न पर विचार किया गया है। पेरियवाच्चान् पिळ्ळै के पूर्व आचार्यों में से किसी ने श्री शठकोप स्वामी को मुक्तात्मा (आत्मा जिसे मुक्ति मिली है) कहा है, तो किसी ने उन्हें मुक्तप्रायर (आत्मा जिसे मुक्ति मिलने वाली है), तो अन्य किसी ने कहा कि एक नित्यसूरि (आत्मा जो वैकुंठ में ही नित्य वास करता है) जो भगवान द्वारा धरती पर भेजा गया है और किसी ने साक्षात भगवान ही आऴ्वार् के रूप में अवतरित हुए हैं ऐसे भी कहा है। इस पर पेरियवाच्चान् पिळ्ळै कहते हैं, ये सारे विचार इसलिए आते‌ हैं क्योंकि श्री शठकोप स्वामी की कीर्ती, महिमा ही ऐसी है। वास्तव में, श्री शठकोप स्वामी एक जीवात्मा हैं, जैसे उन्होंने स्वयं ही तिरुविरुत्तम् के प्रथम पासुरम् में दर्शाया है, “इन्निन्ऱ नीर्मै इनि याम् उऱामै” (अब और इस संसार में पुनः पुनः जन्म लेने की रीति हम नहीं सहना चाहते), जिन्होंने इस संसार में क‌ई जन्म लिए और त्रस्त हुए हैं। भगवान की अहैतुक कृपा से आऴ्वार् को शुद्ध ज्ञान और भक्ति का वरदान प्राप्त हुआ, और वे आऴ्वार् बने। यह बदलाव केवल भगवान की इच्छा के कारण संभव रहा और मात्र उनकी कृपा से हुआ। इस परिमाण का बदलाव भगवान के वैभव पर प्रकाश डालता है। आऴ्वार् स्वयं कहते हैं कि वह भगवान ही हैं जो इनसे प्रबन्धम गँवा रहे हैं! और‌ वे यह भी कहते हैं कि भगवान उनकी जिह्वा पर विराजमान होकर स्वयं अपने गुणगान‌ करनेवाले पासुरम् गा रहे‌ हैं! 

जो ९८ पासुरम् स्त्री-भाव में गाए गए हैं, वे अन्यापदेशम् (बाह्य अर्थ) और स्वापदेशम् (अंतरंग अर्थ) दोनों प्रकार के हैं। आचार्य सुंदरजामातृ मुनि (वादि केसरी अऴगिय मणवाळ जीयर्) ने स्वापदेश व्याख्यानम् (भाष्य) लिखी है। इसी प्रकार, कलिवैरिदास स्वामी और पेरियवाच्चान् पिळ्ळै ने भी तिरुविरुत्तम् की व्याख्या दी है। 

हमने तिरुविरुत्तम की थोड़ी सी झाँकी देखी है। 

अब हम तिरुवासिरियम् का संक्षिप्त में अनुभव करेंगे।

तिरुवासिरियम् के अपने व्याख्यान (भाष्य) की प्रस्तावना में, पेरियवाच्चान् पिळ्ळै ने तिरुवासिरियम् की पृष्ठभूमि को उत्कृष्ट विधि से स्थापित किया है। तिरुविरुत्तम् में, आऴ्वार् भगवान से वियोग और संसार में कष्ट सहने के कारण अपने गुण, स्वरूप और आर्त्ति (दुःख) को व्यक्त करते हैं। आऴ्वार् से इस संसार को धारण करने की असमर्थता को समझते हुए, उन्हें इस संसार में कुछ और समय तक बनाये रखने के लिए, भगवान श्रीशठकोप सूरी को उसी दिव्य आनंदमय अनुभव का आशीर्वाद देते हैं जिसका आनंद नित्यसूरियों को वैकुंठ में मिलता है, जबकि आऴ्वार् स्वयं संसार में स्थित हैं। यद्यपि वे संसार में फँसे हुए हैं, भगवान की सुंदरता का आनंद लेने के पश्चात, आऴ्वार् इसके बारे में गाने का निर्णय लेते हैं, और इस प्रकार, तिरुवासिरियम् के सात सुंदर पाशुर अस्तित्व में आए। ये सात पाशुर यजुर्वेद के सात काण्डों के समतुल्य हैं। यह प्रबंध असिरियप् पा (तमिऴ् साहित्य में कविता की शैली का एक प्रकार) में स्थापित है, जो तमिऴ् साहित्य के अनुसार एक साहित्यिक संरचना है।

आऴ्वार् इन पासुरों को भगवान के दिव्य रूप और गुणों पर अर्पित करते हैं। भगवान का दिव्य विग्रह हरित वर्ण का है जैसे कि एक मरकत (पन्ना/हरित मणि) का पर्वत शयन कर रहा हो, ऐसे आऴ्वार् कहते हैं। आऴ्वार् समझाते हैं कि जब भगवान हमारे सच्चे बंधु के शाश्वत होते हुए यदि कोई अन्य देवता के पास जाकर उसकी आराधना करे, तो यह ठीक वैसे हुआ, जब कोई व्यक्ति अपनी माता जिसका वह ऋणी है, उसकी सेवा करने के बदले वह एक काष्ठफलक की देखभाल करता है। आऴ्वार् अंत में यह घोषित करते हैं कि पूरे ब्रह्मांड को निगलकर वट पत्र पर शयन करनेवाले (श्रीमन्नारायण वटपत्र शायी के रूप में) के अतिरिक्त और कौन बड़ा हो सकता है।  इस प्रकार, तिरुवासिरियम् में हमने देखा कि आऴ्वार् भगवान के अद्भुत दिव्य गुणों का और उनके सौंदर्य का वर्णन करते हैं। 

अंत में, हम पेरिय तिरुवन्दादि पर चर्चा करने जा रहे हैं, जो मुण्डक उपनिषद का सार है, जो अथर्वण वेद से संबंधित है। जैसा कि इस लेख में पहले उल्लेख किया गया है, पेरिय तिरुवन्दादि चरम श्लोक का सार है। श्री पुत्तुर स्वामी ने अपनी रचना में इस पर बहुत ही सुंदर ढंग से बल दिया है।

आऴ्वार् द्वारा तिरुविरुत्तम् की रचना करने के बाद, भगवान ने आऴ्वार् को अपने आनंदमय अनुभव का आशीर्वाद प्रदान किया, जो तिरुवासरियम् में अभिव्यक्त हुआ और पेरिय तिरुवन्दादि में और अधिक विस्तृत हो गया। प्रथम पाशुर, “मुयट्रि सुमन्दु ऎऴुन्दु…” में आऴ्वार् कहते हैं कि भगवान के अनुभवों को गाने में उनका उत्साह इतना अधिक है कि उनका हृदय इस विषय पर चर्चा करने के लिए उनसे एक पग आगे है। उपांत्य पाशुर (८६वाँ पाशुर), “कार् कलन्द मेनियान्…” में वे आश्चर्यचकित होकर सोचते हैं कि इस संसार के लोग कैसे और किस प्रकार अपना समय व्यतीत करते होंगे और कैसे अपने दुखों से छुटकारा पाते होंगे (यदि वे भगवान के दिव्य रूप और गुणों में लीन न हों)! आऴ्वार् अंतिम पाशुर, ८७वें पाशुर में, संसार में अपना समय बिताने के लिए भगवान और उनके दिव्य नामों का ध्यान करने पर बल देते हैं।
चूँकि यह अंदादि शैली में है (पाशुर का आरंभिक शब्द और पिछले पाशुर का अंतिम शब्द एक है), इसे पेरिय तिरुवन्दादि कहा जाता है। लेकिन प्रश्न यह है कि इसमें पेरिय (बड़ा) उपसर्ग क्यों लगाया गया है, जबकि यह न तो आकार में विशाल है और न ही विष्णुचित्त स्वामी (पेरिय आऴ्वार्) द्वारा रचित है?  अन्य तिरुवन्दादि में १०० पाशुर हैं, इसमें केवल ८७ हैं। इसका कारण बहुत सुन्दरता से समझाया गया है: नम्माऴ्वार्, पाशुर ७५ पुवियुम् इरुविसिम्बुम् में… भगवान से पूछते हैं, “आप दोनों लोकों के नियंत्रक हैं! यदि आप मेरे भीतर निवास कर रहे हैं, तो कौन बड़ी सत्ता है, आप या मैं, जो आपके बारे में श्रवण करके (शास्त्रों के माध्यम से) आपको अपने भीतर धारण कर रहा हूँ?” आऴ्वार् ने उनकी महानता के बारे में बताया इसलिए, इस प्रबंध को पेरिय तिरुवन्दादि के नाम से जाना जाता है। इसके अलावा, नम्माऴ्वार् का एक नाम पेरियन् भी है। यह भी पेरिय तिरुवन्दादि नाम को उचित ठहराता है।

अडियेन् गीता रामानुज दासी
अडियेन् दीपिका रामानुज दासी
अडियेन् वैष्णवी रामानुज दासी

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