श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद् वरवरमुनये नमः श्री वानाचल महामुनये नमः
आण्डाळ् एम्पेरुमान् के सुवचनों का आश्रय लेती हैं कि वे सर्वरक्षक हैं,पेरियाळ्वार(श्री विष्णुचित्त स्वामी जी)के साथ सम्बन्ध का आश्रय लेती हैं परन्तु इच्छा पूर्ण न होने से(एम्पेरुमान् के दर्शन और प्राप्ति) व्यथित हो गई “एम्पेरुमान् स्वातंत्र्य हैं यदि वे अपने शरणागतों की रक्षा नहीं करते तो उनको कलङ्क लग जाएगा।एक बार रक्षा का भार उठाने का निर्णय ले लेते हैं तो कोई भी उनको बाध्य नहीं कर सकता। इसलिए उनका स्वातंत्र्य स्वरूप हमारे लिए लाभदायक बनेगा” पुनः एम्पेरुमान् के समीप जाने का प्रयास करती हैं।वह दृढ़ निश्चय थी परन्तु एम्पेरुमान् की अनुपस्थिति से वह व्यथित हो गई,अब प्रतीक्षा करते हुए धैर्य भी टूटने लगा,(एम्पेरुमान् के प्रति पूर्ण समर्पित होने के कारण उनके स्वरूप के विरुद्ध होने पर भी वह उनके पास पहुंचना चाहती हैं,और निकटजन को आग्रह करती हैं कि “मुझे उत्तरी मथुरा,द्वारका आदि दिव्यदेशों पर पहुंचा दो जो एम्पेरुमान् के निज निवास स्थान हैं”।
प्रथम पासुर-“एम्पेरुमान् के प्रकट होने की प्रतीक्षा करनी चाहिए,इस प्रकार चिन्तित होनेकी आवश्यकता नहीं है”ऐसा कहने पर वह प्रत्युत्तर देती है, “मैं आपको अपनी स्थिति व्यक्त करने में सक्षम नहीं क्योंकि आप समझ नहीं पा रहे। दुर्भाग्यवश मैं आपके शब्दों को समझने में असमर्थ हूं”।
मट्रिरुन्दीर्गट्कु अऱीयलागा माधवन् एन्बदोर् अन्बु तन्नै
उट्रिरुन्देनुक्कु उरैप्पदेल्लाम् ऊमैयरोडु सेविदर् वार्त्तै
पेट्रिरुन्दाळै ओऴियवे पोय्प् पेर्न्दोरु तायिल् वळर्न्द नम्बि
मर्पोरुन्दामऱ्-कळम् अडैन्द मधुरैप् पुऱत्तु एन्नै उय्त्तिडुमिन्।
मेरी स्थिति आपकी स्थिति से विरुद्ध है,आप जो भी मुझे उपदेश देते हैं माधवविषयक व्यामोह वाली(श्रीमहालक्ष्मी के पति से स्नेह) मुझको यह सब मूक-बधिर संवाद ही लगता है अर्थात् व्यर्थ ही लगता है।केवल आपका एक ही कर्तव्य मेरे प्रति होगा,कि जन्म देने वाली माता देवकी जी को छोड़कर पालन-पोषण करने वाली माता यशोदा के घर , कण्णन् (श्रीकृष्ण) जो मल्ल योद्धाओं के आने से पहले ही उपस्थित हुए,की जन्मस्थली मथुरा के पास है वहां ले चलो।
दूसरा पासुर- कुछ भी हो इस प्रकार आपका उनके पीछे जाने से उनका लोक प्रहास होगा, तब आपको अपने स्त्रीत्व की रक्षार्थ कर्तव्य नहीं करना चाहिए?वह प्रति वचन करती हैं।
नाणि इनियोर् करुमम् इल्लै नाल्अ यलारुम् अऱिन्दोऴिन्दार्
पणियादु एन्नै मरुन्दु सेय्दु पाण्डु पण्डाक्क उऱुदिरागिल्
मणि उरुवाय् उलगळन्द मायनैक् काणिल् तलैमऱियुम्
अणैयाल् नीर् एन्नैक् काक्क वेण्डिल् आय्प्पाडिक्के एन्नै उय्त्तिडुमिन्।
अब लज्जित होना व्यर्थ ही है।मेरी इस स्थिति का सभी लोगों को भान(ज्ञात होना)है।यदि आप मेरी पूर्वकालिक अवस्था अर्थात् शरीर की शोभा देखना चाहती हो जो एम्पेरुमान् से अलग होने से पहले थी तो बिना विलम्ब के योग्य उपचार करके मुझे तिरुवाय्प्पाडि (श्री गोकुल) में पहुंचा दो, क्योंकि वहां एम्पेरुमान् जो वामनावतार में आए और सर्व लोकों को नापने वाले त्रिविक्रम भगवान के दर्शन करने पर मेरा दु:ख शान्त हो जाएगा और यह रोगनिवारण होगा।
तीसरा पासुर- श्रीकण्णन् (श्रीकृष्ण)के इस विरुद्ध व्यवहार के कारण यशोदा पिराट्टि (माता)के पालन-पोषण पर शंका करने का उद्देश्य नहीं है बस वह यह कहती हैं कि वे उन्हें श्रीनन्दगोप जो श्रीकण्णन (श्रीकृष्ण )को नियंत्रित कर सकते थे उनके दिव्य भवन के सामने तक पहुंचा दो।
तन्दैयुम् तायुम् उट्ररुम् निऱ्-कत् तनिक वऴि पोयिनाळ् एन्नुम् सोल्लु
वन्द पिन्नैप् पऴि काप्परिदु मायवन् वन्दु उरुक्काट्टुगिन्ऱान्
कोण्दळमाक्किप् परक्कऴित्तुक् कुऱुम्बु सेय्वान् ओर् मगनैप् पेट्र
नन्दगोपालन् कडैत्तलैक्के नळ्ळीरुट्कन् एन्नै उय्त्तिडुमिन्।
इस जगत में यह अपयश फैलने के पश्चात् कि, “माता ,पिता व अन्य बन्धु -बान्धव के रहते हुए भी वह अपने आप सब को त्याग कर अपने ही मार्ग पर चलने लगी,”ऐसे कलङ्क को मिटाना असम्भव है।इसका कारण यह है कि अद्भुत गुण, लीलाधारी श्रीकृष्ण मेरे सामने अपना मानस साक्षात्कार कर रहे हैं।आप मुझे अर्धरात्रि में उन नन्दगोप जी के गृह पर छोड़ आओ,जो चञ्चल लीलाएं और दोष लगाने वाले एक पुत्र के पिता हैं
चौथा पासुर-आण्डाळ् उनसे कहती हैं कि वे उसे एम्पेरुमान् के पूर्णतया शरणागत है, यमुना जी के तट पर छोड़ दो।
अङ्गैत् तलत्तिडै आऴि कोण्डान् अन्य मुगत्तन्ऱि विऴियेन् एन्ऱु
सेङ्गच्चुक् कोण्डु कण्णाडै आर्त्तुच् चिऱु मानिडवरैक् काणिल्
नाणुम् कोङ्गैत् तलमिवै नोक्किक् काणीर् गोविन्दनुक्कल्लाल् वायिल् पोंगा
इङ्गुत्तै वाऴ्वै ओऴियावे पोय् यमुनैक्करैक्कु एन्नै उय्त्तिडुमिन्।
हे माताओं! वे एम्पेरुमान् (श्रीकृष्ण)जो अपने दिव्य सुन्दर हाथों में चक्रराज को धारण करते हैं,अधम लोगों के मुख को न देखने के दृढ़ निश्चय से लाल कंचुकी से अपने मुख को ढक लिया है और सामान्य जन को देखने पर अत्यधिक लज्जित मेरे स्तनों की ओर देख लीजिए। मेरा दृढ़ संकल्प है कि ये मेरे स्तन गोविन्द के अतिरिक्त किसी ओर को न चाहते हैं इसलिए मुझे यहां से यमुना नदी के तट पर छोड़ दीजिए।
पांचवां पासुर-वहां उपस्थित शोकग्रस्त लोगों ने कहा कि उनके रोग को जानकर उचित उपचार करना चाहिए।वे प्रतिवचन करती हैं कि वे उसके रोग को समझने योग्य नहीं है क्योंकि उनकी स्थिति विरुद्ध है।
आर्क्कुम् एन् नोय् इंदु अऱियल् आगादु अम्मनैमीर! तुऴदिप्पडादे
कार्क्कडल् वण्णन् एन्बान् ओरुवन् कैकण्ड योगम् तडवत् तीरुम्
नीर्क्करै निन्ऱ कडम्बै ऐऱिक् काळियन् उच्चियिल् नट्टम् पाय्न्द
पोर्क्कऴमाग निरुत्तम् सेय्द पोय्गैक् करैक्कु एन्नै उय्त्तिडुमिन्।
हे माताओं! यह मेरा विलक्षण रोग किसी ज्ञानवान को भी समझ में नहीं आ रहा है।यह तत्काल मिटा देने में समर्थ नीलसागरवर्ण वाले कण्णन् (श्रीकृष्ण) का कर स्पर्श ही सिद्ध योग है। अतः जहां श्रीकृष्ण ने यमुना तट से कूदकर कदम्ब वृक्ष पर से कालियनाग के फन पर नर्तन किया और उसी को रण क्षेत्र बना दिया,ऐसे यमुना तट पर मुझे छोड़ दो।
छठा पासुर-वह उनको ऐसे स्थान पर छोड़ने को कहती हैं जहां श्रीकृष्ण ने ऋषि पत्नियों के हाथ से बने भोजन प्राप्त कर क्षुधा शांत की।
कार्त्तण् मुगिलुम् करुविळैयुम् काया मलरुम् कमलप्पूवुम्
ईर्त्तिडुगिन्ऱन एन्नै वन्दिट्टु इरुडीकेसन् पक्कल् पोगेल् एन्ऱु
वेर्त्तुप् पसित्तु वयिऱसैन्दु वेण्डडिसिल् उण्णुम्बोदु ईदेन्ऱु
पार्त्तिरुन्दु नेडुनोक्कुक् कोळ्ळूम् पत्तविलोसनत्तु उय्त्तिडुमिन्।
वर्षाकाल के शीतल मेघ,कुरुविळ पुष्प (एक प्रकार की लिपटने वाली लता),कायाम्बु(बेंगनी रंग के पुष्प)कमल पुष्प ये सब एकत्र हो कर मुझे एम्पेरुमान् के पास जाने को प्रबल प्रेरित कर रहे हैं। इसलिए ,”गायों को चराने से पसीने से पसीजे हुए, क्षुधा से पीड़ित,ऋषि पत्नियों के आने की प्रतीक्षा करने वाले कि वे भोजन लाएं और जितना मन चाहे पा लें ऐसे श्रीकृष्ण, ऋषिकेश (एम्पेरुमान्) के कटाक्षवीक्षण के लक्ष्य से भक्त विलोचनम् नामक क्षेत्र में मुझे छोड़ दीजिए।
सातवां पासुर-जब यह प्रश्न पूछा कि यह विलक्षण रोग कब समाप्त होगा तो प्रति वचन करती हैं कि यह तभी समाप्त होगा जब वह उनकी दिव्य तुलसी माला धारण करेंगी, इसलिए जहां उनकी दिव्य वैजयन्ती माला रखी है वहां ले जाने को कहतीं हैं।
आठवां पासुर -वह कहती हैं कि मुझे गोवर्धन ले जाओ जहां उन्होंने गायों की रक्षा की थी।
कट्रिनम् मेय्क्किलुम् मेय्क्कप् पेट्रान् काडु वाऴ् साधिनम् आगप् पेट्रान्
पट्रि उरलिडै आप्पुम् उण्डान् पाविगाळ्! उङ्गळुक्कु ऐच्चुक् कोलो?
कट्रन पेसि वसवुणादे कालिगळ उय्य मऴै तडुत्तु
कट्रन कुडैयाग ऐन्दि निन्ऱ गोवर्त्तनत्तु एन्नै उय्त्तिडुमिन्।
कण्णन् (श्रीकृष्ण)का पूर्ण समय गोसमूह के संचारण में ही व्यतीत होता था।उनका जन्म ग्वाल कुल में हुआ। नवनीत चौर्य प्रसंग में पकड़ाकर उल्लूख के साथ बांधे गये।यह पूर्ण सत्य है।हे पापियों!तुम गुणों को दोष बता रहे हो।स्तुति योग्य एम्पेरुमान् की निंदा करने वाले मेरे धिक्कार के पात्र क्यों बनते हो।गोसमूह की सुरक्षा के लिए,घनी वर्षा से बचाते हुए एम्पेरुमान् ने जिसको छत्र के रूप में धारण किया,मुझे ऐसे गोवर्धन पर्वत पर ले चलो।
नौवां पासुर-वह कहतीं हैं कि यदि तुम किसी कलङ्क से बचना चाहते हैं तो मुझे द्वारका ले जाओ।
कूट्टिल् इरुन्दु किळि एप्पोदुम् गोविन्दा! गोविन्दा!एन्ऱु अऴैक्कुम्
ऊट्टुक् कोडादु सेऱुप्पनागिल् उलगु अळन्दान् एन्ऱु उय्रक् कूवुम्
नाट्टिल् तलैप्पऴि एय्दि उङ्गळ् नम्मै इऴन्दु तलैयिडादे
सूट्टुयर् माडङ्गळ् सूऴन्दु तोन्ऱुम् तुवरापदिक्कु एन्नै उय्त्तिडुमिन्।
जिस तोते का मैंने पालन-पोषण किया है वह पिंजरे में रहते हुए गोविन्द! गोविन्द ! पुकार रहा है।यदि मैं उसे आहार के स्थान पर क्लेश देती हूं तो वह ओर प्रबलता से पुकारता है कि हे उलगळन्द पेरुमाने!हे त्रिविक्रम भगवान!ऐसे दिव्य भगवन्नामों को श्रवण करने से विरह व्यथा बड़ने से मैं मूर्च्छित हो कर गिर जाती हूं।इससे लज्जित होकर तुम्हें सिर झुकाना पड़ेगा,संसार में अपवाद फैलेगा,तुम्हारा नाम नष्ट हो जाएगा। इसलिए मुझे शीघ्र ही ऊंचे महलों से सुसज्जित द्वारका नगरी में पहुंचा दो।
दसवां पासुर-जो लोग इन पासुरों का पाठ करते हैं, जिनमें उन्होंने एम्पेरुमान् के धामों में पहुंचाने की प्रार्थना की है वे अर्चिरादि मार्ग से वैकुंठ को प्राप्त करेंगे।इस पासुर में यह कहती हैं।
मन्नु मदुरै तोडक्कमाग वण् तुवराबदि तन्नळवुम्
तन्नैक् तमर् उय्त्तुप् पेय्य वेण्डित् ताऴ् कुऴलाळ् तुणिन्द तुणिवै
पोन्नियल् माडम् पोलिन्दु तोन्ऱुम् पुदुवैयर् कोन् विट्टुच्चित्तन् कोदै
इन्निसैयाल् सोन्न सेञ्जोल् मालै एत्त वल्लार्क्कु इडम् वैगुन्दमे।
मनोहर केशपाश वाली श्रीविष्णुचित्त स्वामी जी की दिव्य सुपुत्री श्रीगोदादेवी ने मथुरासे द्वारका तक के दिव्य देशों के नाम लेकर,अपने बंधुओं से अपने को उन दिव्य देशों में ले जाने की प्रार्थना करती हुई जिन दिव्य गाथाओं,दिव्य सूक्तियों कका पाठ करने वालों का निवास स्थान परमपद है।
अडियेन् अमिता रामानुजदासी
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