उपदेश रत्तिनमालै – सरल व्याख्या – पासुरम् ७० – ७२

। ।श्री: श्रीमते शठकोपाय नम: श्रीमते रामानुजाय नम: श्रीमत् वरवरमुनये नमः। ।

उपदेश रत्तिनमालै

<< पासुरम् ६७-६९

पासुरम् ७०

सत्तरवां पासुरम्। श्रीवरवरमुनि स्वामी उस बुराई की व्याख्या करते हैं जब प्रतिकूल लोग, जो त्याज्य हैं, उनकी संगत के कारण हमारे साथ होती है।

तीय गन्दम् उळ्ळदॊन्ऱैच् चेर्न्दिरुप्पदॊन्ऱुक्कु
तीय गन्दम् एऱुम् तिऱम् अदु पोल्तीय
गुणम् उडैयोर् तङ्गळुडन् कूडि इरुप्पाऱ्कु
गुणम् अदुवेयाम् सॆऱिवु कॊण्डु

जिस प्रकार किसी वस्तु को दुर्गंधयुक्त अन्य वस्तुओं के साथ रखने पर दुर्गंध आती है, उसी प्रकार रजो गुण (वासना आदि) तथा तमो गुण (आलस,‌ असावधानी आदि) वाले लोगों के साथ रहने पर मनुष्य में दुर्गुण आ जाते हैं। यदि हम ऐसे लोगों के साथ रहते हैं, जिनकी भगवान और‌ उनके भक्तों तथा आचार्य के प्रति भक्ति नहीं है, तब जो हमारी भक्ति [जो इन लोगों के साथ रहने से पहले] थी, वह कम हो जाएगी। यह स्वाभाविक है। इसे समझकर, उन लोगों के संग न चलना ही अच्छा होगा। यही हमारे लिए हमारे पूर्वाचार्यों द्वारा दर्शाया मार्ग है।

पासुरम् ७१

इकहत्तरवां पासुरम्। उन्होंने दयापूर्वक समझाया है कि अनुकूल और प्रतिकूल लोगों के निर्देश कैसे होंगे, जैसा कि पिछले पासुरों में देखा गया है।

मुन्नोर् मॊऴिन्द मुऱै तप्पामल् केट्टु
पिन्नोर्न्दु ताम् अदनैप् पेसादेतन् नॆञ्जिल्
तोट्रिनदे सॊल्लि इदु सुत्त उपदेस वर
वार्त्तदॆन्बर् मूर्कर् आवार्

हमारे पूर्वाचार्यों (आचार्यों) जैसे श्रीमन्नाथमुनि आदि द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन करना व उनका विश्लेषण करके दूसरों को निर्देश देने के बजाय, जो अपने मन में आ जाता है उसका ही दूसरों को निर्देश देते हैं और जो उन निर्देशों का पारंपरिक ग्रंथों में लिखा हुआ मानते हैं, वे मूर्ख हैं।

हमारे पूर्वाचार्य एकस्वर में, पारंपरिक ग्रंथों में ही दिए गए अर्थों को बताते हैं। ऐसे अर्थों को आत्मसात करने के बजाय कुछ ऐसे लोग हैं जो दूसरों को न‌ए अर्थ सिखाते हैं। ये वे लोग हैं जो अपने आचार्य के प्रति न ही भक्ति रखते हैं और न ही पवित्र ग्रंथों में ज्ञान रखते हैं और जिन्हें सुस्थापित, पारंपरिक प्रथाओं का ज्ञान भी नहीं है।

पासुरम् ७२

बहत्तरवां पासुरम्। मामुनिगळ् दूसरों को आचार्य के पास जाने और इस आत्मा का मूल/स्वाभाविक स्वरूप अर्थात आचार्य सेवा का लाभ, इसी संसार में रहकर प्राप्त करने का आदेश देते हैं।

पूरुवाचारियर्गळ् बोदम् अनुट्टानङ्गळ्
कूरुवार् वार्त्तैगळैक् कॊण्डु नीर् तेऱि
इरुळ् तरुमा ज्ञालत्ते इन्बमुट्रु वाऴुम्
तॆरुळ् तरुमा देसिगनैच् चेर्न्दु

ऐसे आचार्य के प्रति समर्पण करो जो पारंपरिक मान्यताओं और प्रथाओं में अच्छी तरह से निपुण हों। ऐसे आचार्य से सीखो, जो श्रीमन्नाथमुनि से आरंभ होकर हमारे पूर्वाचार्यों के ज्ञान और प्रथाओं का निर्देश देंगे, और उनमें स्वयं को स्थिर रखते हुए, भगवान की, अन्य भक्तों की और इस संसार में आचार्य की सेवा करोगे तो आनंदपूर्वक रहोगे। यह संसार (भौतिकतावादी संसार) अज्ञान को जन्म देकर उसका पोषण करता है। हम एक अच्छे आचार्य को प्राप्त कर, उनसे अच्छी शिक्षा ग्रहण कर, उनके अनुकूल हो सकते हैं और जब तक हम यहाँ हैं, हम भगवान के अन्य अनुयायियों की पूजा कर यहीं समृद्ध बन सकते हैं।

अडियेन् दीपिका रामानुज दासी

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