श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्री वानाचलमहामुनये नमः
इकतीसवां पासुरम् – (ऒरु नायगमाय्…) इस पाशुरम में, मामुनिगळ् आऴ्वार् के पाशुरम् का पालन कर रहे हैं, जिसमें सांसारिक संपत्ति आदि के दोषों को उजागर किया गया है, वे हीन और नश्वर प्रकृति के होने के कारण, और दयापूर्वक इसे समझा रहे हैं।
ऒरु नायगमाय् उलगुक्कु वानोर्
इरु नाट्टिल् एऱि उय्क्कुम इन्बम् तिरमागा
मन्नुयिर्प् पोगम् तीदु माल् अडिमैये इनिदाम्
पन्नियिवै माऱन् उरैप्पाल्
आऴ्वार् ने इन सिद्धांतों का विश्लेषण किया और समझाया जैसे क) इस पूरी दुनिया के लिए एक स्वामी होने का आनंद स्थायी रूप से नहीं रहेगा, ख) देवों द्वारा विशाल स्वर्ग में लिया जाने वाला आनंद स्थायी रूप से नहीं रहेगा, ग) आत्म-भोग जो शाश्वत है, बुरा है और घ) भगवान के प्रति सेवा सुखद है।
बत्तीसवाँ पाशुर – (बलारैप् पोल्…) इस पाशुरम् में, श्रीवरवरमुनी स्वामीजी आऴ्वार् के पाशुरों का अनुसरण कर रहे हैं जहाँ आऴ्वार् उन जगहों और समय में एम्पेरुमान् के इन सभी जगहों और समय में विभिन्न रूपों का आनंद लेने की इच्छा रखते हैं और दयापूर्वक इसे समझा रहे हैं।
बालारैप् पोल सीऴ्गि परन् अळविल् वेट्कैयाल्
कालत्ताल् देशत्ताल् कै कऴिन्द – साल
अरिदान बोगत्तिल् आसैयुट्रु नैन्दान्
कुरुगूरिल् वन्दुदित्त को
आऴ्वार्, सब वैष्णवों के नेता, जिनका अवतार आऴ्वार्तिरुनगरी में हुआ, एक चिड़चिड़े बच्चे की तरह होने के कारण, एम्पेरुमान जो समय और स्थान से दूर होने के कारण प्राप्त करने में कठिन हैं उनके प्रति प्रेम के कारण कैंङ्कर्य करने के आनंद प्राप्त करने की बड़ी इच्छा में थे और दुखी हो गए।
तैंतीसवां पासुरम – (कोवान ईसन्…) इस पाशुरम में, श्रीवरवरमुनी स्वामीजी आऴ्वार् के पाशुरों का अनुसरण कर रहे हैं, जिसमें बताया गया है कि कैसे एम्पेरुमान ने समय सीमा को समाप्त किया और आनंद दिया, और दयापूर्वक इसे समझा रहे हैं।
कोवान ईसन् कुऱै ऎल्लाम् तीरावे
ओवाद कलत्तु उवादितनै – मेविक्
कऴित्तडैयक काट्टि कलन्द गुणम् माऱन्
वऴुत्तुदलाल् वाऴ्न्ददिन्द मण्
एम्पेरुमान् सर्वशेषि होकर भी आऴ्वार् के साथ एकजुट हुए और आऴ्वार् की सभी चिंताओं को दूर करने के लिए समय आगे बढ़ने के दौरान महान सीमाओं को समाप्त कर दिया, और अपनी सभी गतिविधियों को प्रकट किया जो पहले आऴ्वार् द्वारा वांछित थे; चूँकि आऴ्वार् ने भगवान के साथ एकजुट होने के इस गुण की प्रशंसा की, इस संसार ने अपने आप को बनाए रखा।
चौंतीसवां पासुर – (मण्णुलगिल् मुन् कलंदु….) इस पाशुरम में, श्रीवरवरमुनि आऴ्वार् के पाशुरम् का पालन कर रहे हैं जिनमें आऴ्वार् उन संस्थाओं को जो भगवान के संबंधित हैं उन्हें भगवान के समान और भगवान का रूप समझने में भूल कर रहे हैं, और उनके बारे में गा रहे हैं जैसे कि वे भगवान थे, और दयापूर्वक इसे समझा रहे हैं।
मण् उलगिल् मुन् कलंदु माल् पिरिगैयाल् माऱन्
पॆण् निलैमैयाय्क् कादल् पित्तेऱि – ऎण्णिडिल् मुन्
पोलि मुदलान पॊरुळै अवनाय् निनैंदु
मेल् विऴुन्दान् मैयल् तनिन् वीऱू
एम्पेरुमान पहले इस संसार में आऴ्वार् के साथ जुड़े और फिर अलग हो गए; उसके कारण, आऴ्वार् ने स्त्री भाव ग्रहण किया, भक्ति के कारण, बहुत पागल हो गए और उपमाओं आदि को केवल भगवान माना और अत्यधिक प्रेम के कारण दृढ़ हो गए।
पैंतीसवां पाशुरम् – (वीट्रिरुक्कुमाल्…) इस पाशुरम में, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी आऴ्वार् के पाशुरम का पालन कर रहे हैं, जिनमें भगवान को आध्यात्मिक निवास दिव्य परमपदधाम में होनेवाले रूप के जैसे अपने रूप के प्रकटीकरण करते हुए देखा और उसका आनंद लेने पर आनंदित हो रहे हैं, और दयापूर्वक इसे समझा रहे हैं।
वीट्रिरुक्कुमाल् विण्णिल् मिक्क मयल् तन्नै
आट्रुदार्कात् तन् पॆरुमै आनदॆल्लाम् – तोट्र वन्दु
नन्ऱु कलक्कप् पोट्री नंगुगन्दु वीऱुरैत्तान्
सॆन्ऱ तुयर् माऱन् तीर्न्दु।
दयावत्सल एम्पेरुमान जो परमपद में विराजमान हैं, आऴ्वार् के महान भ्रम को दूर करने और अच्छी तरह से एकजुट होने के लिए अपने वैभवशाली गुणों, रूपों आदि को प्रकट करते हुए यहाँ पहुँचे; आऴ्वार् ने सर्वेश्वरन् को देखकर उनकी पूजा की और आनंदित होकर, अनुभव किए गए दुखों को दूर करके, दयापूर्वक अपनी महानता की घोषणा की।
छत्तीसवां पाशुरम् – (तीर्प्पारिलाद…) आऴ्वार् अचेत हो जाते हैं, आऴ्वार् के प्रति प्रेमपूर्ण स्नेह के गुण वाले एम्पेरुमान का शारीरिक रूप से आनंद लेने में असमर्थ होने के कारण; जो लोग आऴ्वार् के प्रति अत्यधिक स्नेह रखते हैं, वे इसका उपाय खोजने की कोशिश करते हैं और जागृत शुभचिंतक इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि यह आऴ्वार् [और हमारे] स्वभाव के लिए अनुचित है और उचित कारण और उपचार की व्याख्या करते हैं; इस पाशुर में, श्रीवरवरमुनी स्वामीजी आऴ्वार् के पाशुरों का अनुसरण कर रहे हैं जो इस मनोदशा में हैं और दयापूर्वक इसे समझा रहे हैं।
तीर्प्पार् इलाद मयल् तीरक् कलन्द माल्
ओर्प्पादुम् इन्ऱि उडन पिरिय – नेऱ्-क्क
अऱिवऴिन्दु उट्रारुम् आऱक् कलङ्गप् पेर केट्टु
अऱिवु पॆट्रान् माऱन् सीलम्
सर्वेश्वर, आऴ्वार् के समाधानहीन, अत्यधिक प्रेम को पूरा करने के लिए आऴ्वार् के साथ एकजुट हुए और उन्हें बिना किसी विश्लेषण के छोड़ दिया; जिन रिश्तेदारों ने यह देखा, वे पहले से भी अधिक चिंतित हो गए और अपना दिमाग खो बैठे; एम्पेरुमान के दिव्य नामों को सुनकर आऴ्वार् ने अपने अस्तित्व [चेतना] को पुनः प्राप्त किया; यह आऴ्वार् की विशेषता है।
सैंतीसवां पाशुरम् – (सीलमिगु कण्णन्…) इस पाशुरम में, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी, नामों को सुनकर सचेत हुए आऴ्वार् उन नाम के स्वामी नारायण का आनंद नहीं लेने के बारे में विलाप करनेवाले आऴ्वार् के पाशुरों का अनुसरण कर रहे हैं, और दयापूर्वक इसे समझा रहे हैं।
सीलमिगु कण्णन् तिरुनामत्ताल् उणर्न्दु
मेलवन् तन् मेनि कण्डु मेवुदऱ्-कु – साल
वरुंदि इरवुम् पगलुम् माऱामल् कूप्पिट्टु
इरुन्दनने तॆन्कुरुगूर एऱु
आऴ्वार्, जो आऴ्वार्तिरुनगरी के प्रमुख हैं, ने अपने भ्रम को समाप्त कर दिया था और कृष्ण के दिव्य नाम से स्पष्टता प्राप्त की थी, जिसमें प्रचुर मात्रा में शुभ गुण हैं; होश में आने के बाद, अत्यधिक पीड़ा में, वे कृष्ण के दिव्य रूप को देखने, उसके पास आने और उसका आनंद लेने के लिए लगातार पुकार रहे थे।
अड़तीसवां पाशुर् – (एऱु तिरुवुडैय…) इस पाशुरम् में, श्रीवरवरमुनी स्वामीजी आऴ्वार् के पाशुरों का पालन कर रहे हैं जिनमें आऴ्वार् आत्मा और आत्मा के सन्दर्भ में अपने वैराग्य को प्रकट कर रहे हैं जो भगवान के विषय में अस्तित्व में नहीं है, क्योंकि भगवान ऐसी दुःखद स्थिति में मदद नहीं कर रहे हैं और दयापूर्वक इसे समझा रहे हैं।
एऱु तिरुवुडैय ईसन् उगप्पुक्कु
वेऱुपडिल् ऎन्नुडैमै मिक्क उयिर् – तेरुङ्गल्
ऎन्ऱनक्कुम् वेण्डावॆनुमाऱन् तलै नॆञ्जे
नन्दमक्कुप् पेऱाग नण्णु
आऴ्वार् ने घृणा से कहा, “यदि मेरे आभूषण आदि और आत्मा जो उन वस्तुओं से बडी है, सर्वेश्वर के दिव्य हृदय के लिए स्वीकार नहीं किया जाता है, जिसकी दिव्य छाती पर श्री महालक्ष्मी विराजमान है, विश्लेषण करने के पश्चात, तो मुझे भी उनकी आवश्यकता नहीं है”। हे हृदय! हमारे लिए परम लाभ के रूप में ऐसे आऴ्वार् के दिव्य चरणों को पाओ
उनतालीसवां पाशुरम् – (नण्णादु मालडियै…) इस पाशुरम में, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी, आऴ्वार के पाशुरों का अनुसरण कर रहे हैं और संसारियों (भौतिकवादी लोगों) की विनाशकारी स्थिति को देखकर घृणा दिखा रहे हैं और दयापूर्वक इसे समझा रहे हैं।
नण्णादु मालडियै नानीलत्ते वल्विनैयाल्
ऎण्णारा तुन्बमुऱुम् इव्वुयिर्गळ् तण्णिमैयैक्
कण्डिरुक्क माट्टामल् कण् कलङ्गु माऱनरुळ्
उण्डु नमक्कुट्र तुणै ऒन्ऱु
आऴ्वार्, इस पृथ्वी पर, भगवान के दिव्य चरणों में आत्मसमर्पण किए बिना, क्रूर पापों के कारण अंतहीन दुःख का सामना करनेवाले इन आत्माओं की नीचता को देखकर, निश्चिंतप रहने में असमर्थ हो जाते हैं, दयापूर्वक अपनी दिव्य आँखों से आँसू बहा रहे हैं; ऐसे आऴ्वार् की दया हमारे लिए उपयुक्त साथी के रूप में बनी रहती है।
चालीसवां पाशुरम् – (ऒन्ऱुमिलैत् तेवु…) इस पाशुरम् में, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी, आऴ्वार के पाशुरों का अनुसरण कर रहे हैं, जिसमें एम्पेरुमान के परत्वम (अधिकारिकता) को अर्चावतार (देवता के रूप) में समझाया गया है, जो संसारियों (भौतिकवादी लोगों) को समर्पण करने के लक्ष्य में सुविधा देती है, और दयापूर्वक इसकी व्याख्या कर रहे हैं।
ऒन्ऱुम् इलैत् तवु इव्वुलगम् पडैत्त माल्
अन्ऱियॆन आरुम अऱियवे – नन्ऱाग
मूदलित्तुप् पेसियरुळ् मॊय्म्मगिऴोन् तल तॊऴवे
कादलिक्कुम एन्नुडैय कै
मेरे हाथ केवल गौरवशाली वकुलाभरण के दिव्य चरणों में अंजलि करने की ही इच्छा रखते हैं, जिन्होंने सभी के समझने के लिए, पूरी तरह से प्रमाणित करते हुए, दयापूर्वक बात कही कि, “सर्वेश्वरन के अलावा कोई अन्य देव नहीं है जिसने इस संसारों का निर्माण किया”।
अडियेन् रोमेश चंदर रामानुज दासन
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