श्री: श्रीमते शठकोपाय नम: श्रीमते रामानुजाय नम: श्रीमद्वरवरमुनये नम:
उपक्षेप
इस पासुरम में श्री रामानुज के ह्रदय की ज्ञान होने के कारण मणवाळ मामुनि श्री रामानुज के पक्ष में बात करतें हैं। श्री रामानुज के विचार की ज्ञान मामुनि को हैं और उस भाव को , वे इस पासुरम में प्रकट करतें हैं। और पासुरम की समाप्ति परमपद की प्रार्थना के सात करते हैं। श्री रामानुज के विचार हैं कि , “यह मणवाळ मामुनि ने मेरी रक्षण में आये दिन से अनेक पाप किये हैं। मेरे सिवाय, इन्के पापो के भंडार को क्षमा कर, इन्की रक्षा कौन कर सकता हैं ? इसीलिए हमें ही यह कार्य करना होगा।” श्री रामानुज के इस भाव को ही मामुनि अपने ह्रदय से यहाँ प्रकट कर रहें हैं। आगे कहते हैं कि, निराधार जनों के एकमात्र आश्रय होने के कारण, श्री रामानुज के अलावा और कौन उनकी (मामुनि की ) रक्षा कर सकतें हैं। क्या पेरिय पेरुमाळ के जैसे अत्यंत कृपाळू कर सकते हैं ? उत्तर देते हुए मामुनि कहते हैं कि, श्री रामानुज ही सर्व श्रेष्ट लक्ष्य परमपद की इच्छा दिलाये, इस कारण श्री रामानुज को ही लक्ष्य प्राप्ति भी निश्चित करना हैं। इससे अधिक मामुनि के प्रतिदिन के पापो से भी, श्री रामानुज उन्की रक्षण करना चाह रहें हैं। मणवाळ मामुनि की दृढ़ विश्वास हैं कि, उन्की पापो से रक्षण में , पेरिय पेरुमाळ इत्यादियों को नहीं , श्री रामानुज की ही आर्ति हैं।
पासुरम २६
तेन्नरनगर्क्कामो ? देवियर्गटकामो ?
सेनैयर्कोन मुदलान सूरियरगटकामो?
मन्नियसीर मारन अरुळमारी तमक्कामो ?
मट्रूम उळ्ळ देसिगर्गळ तंगलुक्कूमामो ?
एन्नुडैय पिळै पोरुक्क यावरुक्कु मुडियुम ?
एतिरासा उनक्कु अन्रि यान ओरुवरुक्कु आगेन
उन अरुळै एनक्कु रुचि तन्नैयुम उणडाक्की
ओळिविसुम्बिल अडियेनै ओरुप्पडुत्तु विरैन्दे
शब्ढार्थ
एतिरासा – हे एम्पेरुमानारे !
तेन्नरनगर्क्कामो? – (मेरे पापो को क्षमा करना ) क्या पेरिय पेरुमाळ को साध्य हैं ? या
देवियर्गटकामो? – पेरिय पिराट्टि के संग भू देवी, नीळा देवियों से क्या यह साध्य हैं ? या
सेनैयर्कोन मुदलान सूरियरगटकामो? – सेनापतियाळ्वान इत्यादि नित्यसूरियाँ क्या यह कर पायेंगें ? या
मन्नियसीर – वें, जो नित्य, भगवान के भक्तों के प्रति वात्सल्यादि गुणों के संग हैं
मारन – और नम्माळ्वार के नाम पहचाने जाने वाले, क्या उनसे साध्य हैं ?
अरुळमारी तमक्कामो ?- क्या सारे चेतनों पर कृपा बरसाने वाले कलियन को यह साध्य हैं ?
मट्रुम उळ्ळ – और कोई
देसिगर्गळ – नाथमुनि से प्रारंभ आचार्य
तंगळुक्कुमामो ? – क्या यह उन्को साध्य हैं ?
यावरुक्कु मुडियुम ? – किन्कों साध्य हैं
पिळै पोरुक्क – पापो को क्षमा करना
एन्नुडैय – मुझसे किये गए ?
यान – मैं
ओरुवरुक्कु आगेन – अन्य किसी का दास नहीं बनूँगा
उनक्कु अन्रि – आपके अलावा
उन अरुळै – आपके कृपा से , आपने
रुचि तन्नैयुम उणडाक्कि – प्राप्य में इच्छा उत्पन्न किये
एनक्कु – मुझमें
ओरुप्पडुत्तु अडियेनै
ओळिविसुम्बिल – प्रकाशमान और तेजोमय परमपद
ऐ – (“विरैन्दु” शब्द के अंत में )- पूर्ती चित्रित करने के हेतु, यह अन्तसर्ग है
सरल अनुवाद
श्री रामानुज को छोड़, मणवाळ मामुनि, पेरिय पेरुमाल, उन्के दिव्य महिषियाँ, नित्यसूरियाँ, आळ्वार, आचार्यो जैसे सर्वश्रेष्ठ आत्माओँ के ऊपर विचार करते हैं। उनकी मानना हैं कि, उन्के पापो की क्षमा कर उन्की रक्षा करना इनमें से कोई नहीं कर सकते। केवल श्री रामानुज को ही दया और सामर्थ्य हैं। श्री रामानुज के इस सोच पर विचार करके, समाप्ति में मणवाळ मामुनि उन्से परमपद की प्रार्थना करते हैं।
स्पष्टीकरण
मणवाळ मामुनि कहतें हैं, “हे ! यतियों के नेता ! सर्वशक्तन (अत्यंत शक्तिशाली ), सर्वज्ञ (सर्वत्र , संपूर्ण रूप में जानने वाले), भगवान भी मेरे पापो की अनुमान न कर पाएँगे। हैं कोई, जिन्को मेरे पापो को क्षमा करना साध्य हैं ? क्या “दोषायद्यभितस्यस्यात” और “एन अडियार अदु सेय्यार सेय्दारेल नन्रु सेय्दार” (पेरियाळ्वार तिरुमोळि ४.९. २ ) वचनों से चित्रित पेरिय पेरुमाळ मेरे पापो को क्षमा कर पाएँगे? जगत प्रसिद्द, उन्की अत्यंत दया की भी मेरे पाप परीक्षण करेंगीं। क्या “नकश्चिन नपराद्यति (श्री रामायणम)” और “किमेतान निर्दोष: इहजगति (श्री गुण रत्नकोसम ) में चित्रित की गयीं पेरिय पिराट्टि आदि पिराट्टियाँ मेरे पापो को क्षमा करेंगीं ?क्या पिरट्टियों समेत पेरिय पेरुमाळ के नित्य कैंकर्य को तरस कर प्राप्त किये हुए, सेनपतियाळ्वान जैसे नित्यसूरियों को मेरे पापो को क्षमा करना साध्य हैं ? “असांभि: तुल्योभवतु” के अनुसार, पेरुमाळ और पिराट्टि के प्रति नित्य कैंकर्य में नित्यसूरियाँ समान हैं। “विष्वक्सेन सँहिता” तथा “विहकेन्द्र सँहिता” में प्रपत्ति के विचार इन्ही नित्यसूरियों ने किया था, क्या वें मेरे पापो को क्षमा कर पाएँगे ? “पयनन्रागिलुम पाङ्गल्लरागिलुम सेयल नन्राग तिरुत्ति पणि कोळ्वान” (कण्णिनुन सिरुत्ताम्बु १० ) के अनुसार, भक्तों के प्रति नित्य रूप में अत्यंत वात्सल्य प्रकट करने वाले नम्माळ्वार मेरे पापो को क्षमा कर पाएँगे ? सारे चेतनों पर आशीर्वाद बरसाने वाले तिरुमंगै आळ्वार क्षमा कर पायेंगें? क्या, आळ्वार के अनुग्रह से आशीर्वादित नाथमुनि, यामुनमुनि जैसे कृपामात्र प्रसन्नाचारयो से यह साध्य हैं ? सारे पापो को सहन कर क्षमा करने वाले अआप्के सिवाय यहाँ उल्लेखित किसी से क्या यह साध्य हैं ? “ निगरिन्रि निन्रवेणनीसदैक्कु निन अरुळिङ्गणन्रि पुगलोन्रुमिल्लै (रामानुस नूट्रन्दादि ४८ )” के अनुसार घोर पापियों को भी क्षमा करने वाले आप कृपा समुद्र हैं। अतः उचित यही हैं कि मैं केवल आपका हूँ, अन्य किसी का नहीं।
मणवाळ मामुनि आगे प्रस्ताव करते हैं , “आपके चरण कमलों में शरणागति आपके अनुग्रह के कारण ही साध्य हुआ। उसके पश्चात आपके आशीर्वाद के कारण ही प्राप्य में रुचि उपलभ्ध हुयी। “सुडरोळियाइ निन्र तन्नुडै चोदि (तिरुवाय्मोळि ३.१०.५ )” और “तेळिविसुम्बु (तिरुवाय्मोळि ९.७.५ )” से वर्णित परमपद तक अडियेन को पहुँचाकर, उन वासियों में से एक बनाने की देवरीर से प्रार्थना हैं। “अंगुट्रेन अल्लेन” (तिरुवाय्मोळि ५.७. २ )” के जैसे परमपद वासियों से ब्रष्ट न होकर, शीघ्र परमपद प्राप्ति की प्रार्थना करता हूँ। “उनक्कन्रि” शब्द का अर्थ है “आपके अलावा”, यह शब्द, “तेन्नरनगर ……एतिरासा” से और “यान ओरुवर्क्कु आगेन” दोनों से इस तरह सम्बंधित किया जा सकता है : एम्बेरुमानार के अलावा अन्य कोई मामुनि के रक्षण न कर पाएँगे और एम्बेरुमानार से अन्य किसी के नहीं हैं मणवाळ मामुनि।
आगे, विविरण हैं, यहाँ उल्लेखित श्रेष्ट समूह को मामुनि के पापो को क्षमा कर, उन्की रक्षा करने में ,असमर्थता की ।
“निरंकुसस्वातंत्र्यम” अर्थात संपूर्ण स्वतंत्रता, श्रीमन नारायण की व्यक्तित्व हैं।”क्षिपामि” और “नक्षमामि” दोनों प्रकट करते हैं की श्रीमन नारायण सर्व स्वतंत्र होने के कारण किसी भी समय, किसी भी व्यक्ति को उन्के पापो के अनुसार दंड दे सकते हैं। और पिराट्टियाँ चित्रित की जातीं हैं इन वचनों से : “क्षमा लक्षमी बृंगीसकल करणोनमातनमधु” और “तिमिर कोन्डाल ओत्तु निर्क्कुम (तिरुवाय्मोळि ६.५.२), अर्थात अपने स्वामी श्रीमन नारायण में वे इतनी मगन हैं कि शिल्प विग्रह के जैसी हैं। वें शायद मेरे पापो को क्षमा करने के स्थिति में नहीं हैं। नान्मुगन तिरुवन्दादि १० के, “अङ्गरवारम अदु केटु अळलुमिळुम” वचनानुसार नित्यसूरियाँ, सर्व काल सर्वावस्था में भी, सदा पिराट्टियाँ समेत श्रीमन नारायण के रक्षण में ही ध्यान रखतें हैं। अतः मामुनि के पापो को सहने तथा रक्षा करने में वें भी असमर्थ ही रहेंगें। “सिन्दै कलंगी तिरुमाल एन्रळैप्पन” (तिरुवाय्मोळि ९.८. १०)”, “उन्नै काणुम अवाविल वीळून्दु( तिरुवाय्मोळि ५.७.२)”, उन्नैकाणुम आसै एन्नुम कडलील वीळून्दु(पेरिय तिरुमोळि ४. ९. ३ )”, तथा “भक्ति पारवश्यत्ताले प्रपन्नरगळ आळ्वार्गळ (श्रीवचनभूषणं ४३) इत्यादि वचनों से भक्ति की सारांश के रूप पहचाने जाने वाले सारे आळ्वार, पिराट्टियों समेत श्रीमन नारायण के प्रति कैंकर्य को तरसते हैं और उसमें मग्न होकर खुद को भी बूल जाते हैं। अतः मामुनि को या उन्की पापो को क्षमा न कर पाएँगे। अंत में हैं मुमुक्षुओं (मोक्षानंद में इच्छा रखने वाले, परमपद प्राप्ति में इच्छा रखने वाले जन ) की समूह। शरीर में प्राण रहते समय तक इन्की ध्यान मोक्ष पर ही रहना चाहिए और उसिकेलिये तरसना चाहिए। इस कारण न ही ये दूसरों को उपदेश दे सकते हैं , न उनके पापो को क्षमा कर पाएँगे। किंतु किसी को भी उन्के पापो से रक्षण करने की स्तिथि में, श्री रामानुज इन सभी सीमाओँ के पार हैं। अपने विनाश की भी चिंता न करते हुए, सँसारी के ज्ञान या अज्ञान पर ध्यान न देते हुए, सँसारियो के दुःखों से उनकों रक्षा करते हैं और किये गए सारे पापो से भी रक्षा करते हैं। इससे बढ़कर यह निश्चित करते हैं कि, “आळुमाळर एङ्गिरवनुडैय तनिमै तीरूमपड़ि(तिरुवाय्मोळि ८.३. ३)” के अनुसार इस्को भगवान के प्रति मंगळासासनम करने की गुण आए। “अदु तिरुत्तलावदे(पेरिय तिरुवन्दादि २५)” के अनुसार “दोषनिवृत्ति से पार” भावित किये जाने वालों को भी कृपा से सुधारने वाले श्री रामानुज ही हैं। और अंत में यह भी निश्चित करतें हैं कि “तिरुमगळ केळ्वन” श्रीमन नारायण के प्रति यह व्यक्ति, अवश्य ही, नित्य रूप में कैंकर्य करें। इसी विषय की प्रस्ताव “मरुळ कोणडिळैक्कुम नमक्कु नेञ्जे रामानुसन सेय्युम सेमंगळ मट्रूळर तरमो (रामानुस नूट्रन्दादि ३९)”, से तिरुवरंगत्तु अमुदनार करतें हैं।
अडियेन प्रीती रामानुज दासी
आधार : https://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2016/09/arththi-prabandham-26/
संगृहीत- https://divyaprabandham.koyil.org
प्रमेय (लक्ष्य) – https://koyil.org
प्रमाण (शास्त्र) – http://granthams.koyil.org
प्रमाता (आचार्य) – http://acharyas.koyil.org
श्रीवैष्णव शिक्षा/बालकों का पोर्टल – http://pillai.koyil.org
0 thoughts on “आर्ति प्रबंधं – २६”