श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनय् नमः
श्लोक १६
शब्दादि भोग विषया रूचिरस्मदीया नष्टा भवत्विह भवद्दयया यतीन्द्र |
त्वद्दासदासगणना चरमावधौ य: तद्दासतैकरसताऽविरता ममास्तु || १६ ||
यतीन्द्र! अस्मदीया : रामानुज! मेरी
शब्दादि भोग विषया : रूचि शब्द आदि विषयों का भोग करने की रूचि
भवद् दयया इह : आपकी दया से इस संसार में
नष्टा भवतु य : नष्ट हो जाय; जो
त्वद् दास दास गणना : आपके भक्तों के भक्तों की गणना
चरम अवधौ : करने पर अन्तिम छोर पर रहता है
तद् दासता एक रसता : उसकी दासता में ही रात रहना
मम अविरता अस्तु : मुझमें अविच्छिन्न रूप से होवे |
हे आचार्य श्रीरामानुज! मेरी इन्द्रियाँ विषयों में लीन होकर रहती हैं| मुझे जो कि आपके प्रति प्रवण ऐसे नहीं होना चाहिए| विषयों की मेरी इस रूचि को आप ही अपना कृपा से दूर कीजिये, क्योंकि मुझ में कोई योग्यता नहीं है| उत्तराधे से बतलाते हैं कि मेरा नाम ‘यतीन्द्र-प्रवण प्रवण प्रवण प्रवण’ हो|
हिमालय की गुफा में बैठ कर भजन करना और दिव्य देश में रह कर दर्शन करना, कैंकर्य करना दोनों अपनी जगह बड़े विलक्षण हैं| दिव्य देश में जो गुणानुसन्धान होता है, जो उत्सवों का अनुसंधान होता है, उसमें जो कैंकर्य बनाता है, दिव्यदेश में अर्चारूप की जो सेवा है, उत्सव, सवारी, आदि-आदि इसलिये यह कुछ विचित्र सा दीखता है| गुफा में यह सब नहीं बन पाता, वहाँ तो अकेले भजन ही है| परमात्मा कहीं जन्म दें तो कैंकर्य करने के लिये जीव आये | यह कम नहीं है कि मानव बना दें, उसमें भी भक्त बना दें, फिर दिव्य देश में भेज दें, वहाँ कैंकर्य कराते हुये रहे; यह बहुत बड़ी चीज है || १६ ||
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