प्रमेय सारम् – श्लोक – ३

श्रीः
श्रीमते शटकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनय् नमः

प्रमेय सारम्

श्लोक  २                                                                                                                        श्लोक ४

श्लोक ३

सभी जीवात्मा को यह समझना चाहिये कि उनका स्वाभाविक गुण भगवान श्रीमन्नारायण का दास बनकर रहना है। यह जानकर हमें केवल इसे यहाँ नहीं रुकना है बल्कि उनके प्रति सेवा करते हुए उच्च चोटी पर पहूंचना है। इसे अपमान नहीं समझना और पथभ्रष्ट न होकर लाभ लेना चाहिये। अगर किसी कारण वश कोई जीवात्मा भगवान कि सेवा छोड़ अन्य कार्य में लगा है तो तब यह विचार करना चाहिये कि वह जीवात्मा “दास” प्रकार का है। भगवान कि सेवा छोड़ अन्य कार्य करना व्यर्थ है। भगवान श्रीमन्नारायण जब त्रिविक्रम अवतार लिये उन्होंने पूरे संसार को मापा जिसमे सभी जीव शामील थे। यह आगे बताता है कि सब जीव उनके दास है। क्या इसका यह अर्थ है कि यह उन जीवों को उपयोगी है? नहीं। उस समय वह जीवात्मा यह नहीं समझ सके कि वें भगवान के आधीन है वें इस संसार में अपने प्रारब्ध के कारण जन्म मरण का चक्कर काट रहे है। अत: एक आत्मा को अपने सत्य स्वभाव को जानना चाहिये और भगवान कि सेवा करनी चाहिये। श्रीदेवराज मुनि स्वामीजी इस विचार के अलावा उन जीवों के बारें में भी बात करते है जो इस जन्म मरण के चक्कर से बाहर आना हीं नहीं चाहते।


पलङ्गोण्डु मीलाद पावम उलदागिल
कुलङ्गोण्डु कारियम एन कूरीर
तलङ्गोण्ड तालिणैयान अन्रे तनै ओलिन्द यावरैयुम
आलुडैयान अन्रे अवन

अर्थ:

पावम                        : (अगर) दोष
उलदागिल                 : कहाँ होना
पलङ्गोण्डु                 : व्यर्थ धन, पैसा आदि, भगवान से मिलने के पश्चात
मीलाद                      : आध्यात्मिक सलाह के जरिये यह जाने बिना कि वह व्यर्थ है
कारियम एन कूरीर?   : उसका पाने का क्या उपयोग है
कुलङ्गोण्डु                : यह जाने बिना कि हम भगवान कि सेवा हेतु पूर्वनिर्दिष्ट कुल में जन्म लिये है
तालिणैयान               : वह जिसके इतने सुन्दर चरण है जिससे वह
तलङ्गोण्ड                : पूरे संसार को माप लिया
अवन                        : वह हीं व्यक्ति
अन्रे                          : उस वक्त यह सुनिश्चित किया कि
यावरैयुम                  : सभी जीव
तनै ओलिन्द             : उन्हें जोड़
आलुडैयान                : उनके सेवक हीं है

स्पष्टीकरण:

पलङ्गोण्डु मीलाद पावम उलदागिल:- यह उन कुछ लोगों को संबोधित करता है जो सामान्य लाभ जैसे पैसा आदि के पीछे जाते है। इसके पश्चात उनके पास एक अवसर हो सकता है कि वह महान आचार्य कि बाते सुनकर उसके व्यर्थता को समझ सके। यह लोग फिर भी अपनी इस गलती को सुधारने कि कोशिश न करके तात्पूर्तिक धन के पीछे जाते है। यह वह जन है जो बुरे कर्मों से घिरे है। “पावम” शब्द का एक और अर्थ “स्मरण शक्ति” है इसका यह अर्थ हुआ कि उन जन के पास इस दशा में स्मरण शक्ति नहीं है और अपने मूल दशा में जाने से उन्हें रोकता है यानि जब उनके पास यह ज्ञान था कि वह भगवान के सदैव दास है। यह जन अपने आचार्य के परामर्श को सुनते थे, भगवद गीता आदि शास्त्रों से भी सिखते थे। फिर भी वहीं गलती हमेशा करते है और अपने आप को उस बुरे कर्मों से बाहर निकाल नहीं पाते और उस गलती को दोगुणा करते है।

कुलङ्गोण्डु कारियम एन कूरीर?: अगर कसी को भगवान श्रीमन्नारायण को छोड़ अन्य विषयो में रुचि हो तो ऐसा व्यक्ति जन्म मरण के चक्कर में पड़ा रहेगा। वह इसे अपने जीवन से तोड़ना भी नहीं चाहेगा। भगवान उसे अपने चरण कमलों में भी नहीं लेंगे। अत: श्रीदेवराज मुनि स्वामीजी पुछते है कि अगर किसी व्यक्ति को आत्मा के स्वाभाव के बारें में पता हो और फिर भी दूसरे विषयों में रुचि हो तो ऐसे ज्ञान को पहिले स्थान में पाने का क्या मतलब है।

इस मिलाप के समय एक प्रश्न उठता है। क्या यह उस जीव को संतुष्ट नहीं करता है और आत्मा का स्वाभाविक गुण है भगवान का दास बनकर रहना? क्या यह ज्ञान भगवान को आनन्द देता है और अन्त में उसे जीव को भगवान के प्रेम और दया को प्रदान करेगा?

तलङ्गोण्ड तालिणैयान:  यह पद भगवान के त्रिविक्रम अवतार को समझाता है। एक समय कि बात है एक व्यक्ति “महाबलि” था जो तीनों लोक (भूलोक, भुवरलोक और सुवरलोक) पर राज करना चाहता था। अपनी मनोकामना को पूर्ण करने हेतु उसने एक तपस्या कि। यह तीन लोक इन्द्र के पास थे। क्योंकि उनकी संपत्ति को महाबलि से खतरा था इन्द्र ने भगवान कि शरणागति कर ली। भगवान उन सब कि रक्षा करते है जो उनके शरण आते है। इसलिये वह स्वयं “वामन” रूप लेकर उस स्थान पर जाते है जहां महाबलि तपस्या कर रहा था। तपस्या रूप से वह व्यक्ति जो यह करता है उसे वो सब कुछ देना पड़ता है जो कोई व्यक्ति उससे मांगता  है। वामन भगवान दान करने वाले के पास जाकर तीन कदम जमीन मांगे। महाबलि उन्हें तीन कदम जमीन देने के लिये तैयार हो गये। भगवान उसी क्षण अपने पैर से तीन कदम जमीन नापने के लिये बहुत बड़े हो गये। उनके एक कदम ने सारी धरती को नाप लिया। और दूसरे कदम से आकाश। ऐसा कर १४ दुनिया (७ ऊपर और ७ नीचे) को नाप लिया। अब उनके पास नापने के लिए कुछ न था तो उन्होंने अपना तीसरा कदम महाबलि के मस्तक पर रख दिया और उसे पाताल लोक में पहूंचा दिया। इस तरह उन्होंने इन्द्र को बचाया और यह सुनिश्चित किया कि उसके तीनों लोकों को कोई खतरा नहीं है। इस पाशुर “तलङ्गोण्ड तालिणैयान” का अर्थ वह जिसने धरती और आकाश को नाप लिया।

अन्रे तनै ओलिन्द यावरैयुम आलुडैयान अन्रे अवन: जब भगवान ने तीनों लोकों को नापा क्या उन्होंने सारे संसार को यह संदेश नहीं दिया कि वें खुदको छोड़कर इस जगत के मालिक है? वें हीं स्वामी है और हम सब उनके दास है। जब उन्होंने यह कार्य किया उन्होंने नाहि इस बात को सहारा दिया की वह एक हीं हम सब के मालिक है परन्तु वह इतने आनंदित थे वें त्रिविक्रम के रूप में खड़े रह गये। श्रीयोगीवाहन स्वामीजी कहते है “उवंधा उल्लातनै उलगलम अलन्धु”। वह आनंदित थे क्योंकि उन सब को अपने चरणों से छु सकते थे जो उनके दास थे। यह उसी तरह था जैसे एक माँ अपने सोते हुए बच्चे को गले लगाती है। यह समझने के पश्चात मन में एक प्रश्न आ सकता है कि अपने बच्चे पर निर्हेतुक कृपा करनेवाले कैसे उनको जन्म मरण के चक्कर में हमेशा के लिये रख सकता है? इसका कारण आगे बताया जायेगा। एक व्यक्ति भगवान और उनकी कृपा को भूल जाता है। वह सांसारिक कार्य में लगा हुआ रहता है, सांसारिक धन कमाने में और उनके प्रति आसक्त हो जाता है। इसके फल स्वरूप वह सांसारिक धन के जाल में इस तरह फस जाता है कि वह स्वयं अपनी असली पहिचान भूल जाता है। सांसारिक धन में रुचि के कारण वह अपने आचार्य कि सलाह सुनकर भी यह सब नहीं छोड़ सकता। वह “अड़िएन” आदि जैसे शब्दों का प्रयोग करता है यह कहने के लिये कि वह भगवान का दास है वह फिर भी भगवान छोड़ दूसरे लाभ के पीछे जाता है। अगर यह दशा है तो भगवान सही समय का इंतजार करते है की उसे यह एहसास हो जाय कि यह गलती है और वह भगवान के चरण कमलों कि चाहना करने लगे। जब तक यह अद्भुत समय नहीं आता है भगवान उस व्यक्ति कि रक्षा नहीं करते है।

श्रीतिरुवल्लुवर इस तत्त्व का निचोड़ कहते है “पिरवि पेरुंकडल निंधुवर, निंधार इरैवन अदी सेराधार” और “पर्रुगा पर्रारान पर्रिनै अप्पर्राई पर्रुगा पर्रू विदर्कु”। श्रीशठकोप स्वामीजी कहते है “अर्राधु उर्रदु विदु उयिर”।

अत: प्रमेयसारम के पहिले तीन पाशुर “उव्वानवर”, “कुलम ओन्रु” और “पावम” में “ॐ नमो नारायणाय” में “ॐ” शब्द का अर्थ समझाया गया है। अगले चार पाशुर में “नमो” शब्द पर चर्चा करेंगे।

हिन्दी अनुवादक – केशव रामानुज दासन्

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