प्रमेय सारम् – श्लोक – २

श्रीः
श्रीमते शटकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनय् नमः

प्रमेय सारम्

श्लोक १                                                                                                                         श्लोक ३

श्लोक  २

प्रस्तावना: पिछले पाशुर में हमने यह देखा कि जीवात्मा को तीन प्रकार में बांटा गया है (अ) वह जिसका जन्म उसके कर्मानुसार शरीर में ही बार बार होता है, (आ) वह जो भगवान कि निर्हेतुक कृपा से संसार के जन्म मरण के चक्कर से छुटकारा पाता है और (इ) वह जो कर्म से प्रभावित नहीं है और भगवान के साथ समान स्वर में है। पहिले श्रेणी का आत्मा वह है जो उसके कर्मानुसार किसी शरीर में रहती है। इन आत्माओं को जन्म मरण का चक्कर निरन्तर आते रहता है जैसे नदी में बाढ़ आती है। इसका क्या कारण है और इससे मुक्त होने कि राह क्या है? यह पाशुर इन सब प्रश्नों का उत्तर देते है:

“कुलम ओन्रु उयिर पल तम् कुट्रत्ताल इट्ट
कलम ओन्रु करियमुम वेरम
पलम ओन्रु काणामै काणुम करुत्तार तिरुत्तालगल
पेणामै काणुम पीलै”

अर्थ :

ओन्रु               : केवल एक हीं
कुलम             : जाति / दासों का परिवार (भगवान श्रीमन्नारायण के)
उयिर              : हालाकि वह आत्मा जिसमे यह दास होने का गुण है
पल                 : वह ज्यादा है
तम् कुट्रत्ताल  :  ऐसे आत्मा के अच्छे और बुरे कर्म
इट्ट                 : भगवान श्रीमन्नारायण तक सीमित है
कलम             : एक पात्र में जिसे “शरीर” कहते है
ओन्रु               : वह एक ही तरह का होता है जो एक हीं पदार्थ से बना है “मूल पोरुल”
करियमुम       : ऐसे आत्मा के क्रिया
वेरम               : बिरंगा है उसके कर्मानुसार
पीलै               : एक आत्मा के लिये गलत कार्य करने का है
पेणामै काणुम : नहीं पकड़ना
तिरुत्तालगल  : चरण कमल
करुत्तार         :  आचार्य के
काणुम           : जो आत्मा पर कृपा करते है
काणामै          : बिना
पलम ओन्रु     : कोई लोभ देखते हुए
स्पष्टीकरन:

कुलम ओन्रु: इस संसार में सभी जीव एक हीं परिवार से है जो उनके स्वामी भगवान श्रीमन्नारायण के दास है। जीव का सच्चा गुण यह है कि उसके अच्छाई और बुराई में कुछ गड़बड़ न करे परन्तु अपने स्वामी के प्रति निष्ठावान रहें। यह जीव का प्राकृतिक गुण है और बदलेगा नहीं। यह परिवार” दासों का परिवार “है ऐसे कहकर संबोधित करते है। इसका उदाहरण “तोण्ड़कुलतिलुलर” (तिरुपल्लाण्डु -५)।

उयिर पल: ऐसी आत्मा अनगिनत है। ऐसे अनगिनत आत्मा हमेशा के लिये अपने स्वामी श्रीमन्नारायण के दास है।

तम् कुट्रत्ताल इट्ट कलाम ओन्रु: ऐसे आत्मा एक पात्र में रहते जिसे “शरीर” कहते है। उन्हें यह शरीर उनके अच्छे और बुरे कर्मानुसार भगवान श्रीमन्नारायण ने दिया है । ऐसी सभी शरीर एक हीं पदार्थ से बना है। इस पदार्थ को “प्रकृति” कहते है। अत: यह कहा जा सकता है कि शरीर वह है जो एक ही पदार्थ से बना है। इसके लिये यह समानता है कि जो भी रेत से बना है वह रेत है। जो भी बहुमूल्य धातु से बना है वह बहुमूल्य है। उसी तरह जो प्रकृति से बना है वह प्रकृति है। यह पद “तम् कुट्रत्ताल इट्ट कलाम ओन्रु” को उसके हर एक बाद का अर्थ जानकर समझा जा सकता है। भगवान श्रीमन्नारायण इन आत्मा को उनके कर्मानुसार शरीर देते है। “कलाम” का सही अर्थ पात्र है परन्तु यहाँ उसका अर्थ “शरीर” है। क्योंकि सभी शरीर धातु से ही बने है उसे “कलाम ओन्रु” ऐसा समझाया गया है।

“ऊर्वा पढ़िनोंराम ओन्बधु मानुदम
निर परावै नार्काल ऑर पप्पतु
स्ल्रिया बंधमान्धेवर पढ़िनालु अयन पदैता
अंधमिल स्ल्र्तावरम नालैन्धु”

इस पद्य में हम यह समझ सकते है कि रंग बिरंगे रूप जिसमे आत्मा वास कर सकता है। यह दोनों रूप के मध्य में अनगिनत उप-रूप है जिसे हम गिन सकते है। कितने भी अनगिनत शरीर के वर्ग हो हम उन्हें एक ही छत्री के नीचे रख सकते जिसे “शरीर” कहते है क्योंकि वह एक हीं पदार्थ से बना हुआ है जिसे “प्रकृति” कहते है। श्री शठकोप स्वामीजी अपने सहस्त्रगीति में कहते है “पिणाक्कि यावयुं पिझयामल बेदितुम बेधियाधधु ऑर कणक्किल कीर्ति वेला कढ़ी ज्ञान मूर्तियिनाई”

यहाँ श्री शठकोप स्वामीजी भगवान के अद्भुत ज्ञान का उत्सव मनाते है जो इतने अनगिनत आत्मा को उस आत्मा के छोटे से छोटे कर्म जो उसने अपने अनगिनत जीवन में किये है उसे भूले बिना शरीर देते है ।

करियमुम वेरम:  जैसे अनगिनत आत्मा यह आत्मा जो इन शरीर में रहकर अनगिनत क्रियाये करती है वह भी अनगिनत है। जबकी उन आत्मा के अच्छे गुण उसे कम समय के लिये स्वर्ग में बेजेगा और बुरे कर्म उसे नरक में डालेगा। और फिर सुख/सजा का स्वर्ग और नरक में अन्त होने के पश्चात फिर इस जन्म मरण के चक्कर में आना पड़ता है।

“वगुत्तान वगुत वगयल्लाल कोडी तोगुतार्क्कुम तुयतलरिधु” यह एक तिरुक्कुरल है। “वगुत्तान” विषय भगवान श्रीमन्नारायण को संबोधित करता है जो जीव के अच्छे बुरे कर्मों का हिसाब रखते है और यह सुनिश्चित करते है कि उस आत्मा को उसके कर्मानुसार सजा मिले। वह किसी एक के कर्म की सजा गलती से भी या अयोग्यता के कारण दूसरे को नहीं देते।

“करियमुम” शब्द में “उम” कुछ दर्शाता है। यहाँ कई आत्मा है परन्तु उनके लिये केवल एक हीं परिवार है “दासों का परिवार”। उसी प्रकार यह आत्मा केवल एक हीं प्रकार के शरीर में प्रवेश करते है परन्तु यह अनगिनत क्रियाये करते है। जीव का सामान्य स्वभाव अपने स्वामी श्रीमन्नारायण का दास बनकर रहना है। हालाकि इस सत्य स्वभाव का एहसास हुए बिना वहाँ अनगिनत आत्मायें है जो जन्म-मरण, स्वर्ग-नरक, अनगिनत कार्य करना आदि में पडे रहते है। यह कभी न खत्म होने वाली प्रक्रिया है जैसे तुफान में बहता हुआ पानी। अगर कोई इसका सही कारण जानना चाहता है और इस संसार बन्धन से छुटना चाहता है तो सबको इन बातों पर गौर करना चाहिए:

पलम ओन्रु काणामै काणुम करुत्तार तिरुत्तालगल पेणामै काणुम पीलै: इसका कारण बहुत सरल है। गलती यह है कि जीव आचार्य के समीप जाकर उनके चरण कमलों को नहीं पकडा है। यह “करुत्तार तिरुत्तालगल पेणामै काणुम पीलै” इस पद में समझाया गया है। एक आचार्य को “पलम ओन्रु काणामै काणुम करुत्तार” इस तरह इस पाशुर में बताया गया है। एक आचार्य जब एक शिष्य बनाते है तो वह उस शिष्य से अपने लिये कोई सांसारिक लाभ कि अपेक्षा नहीं करते जैसे प्रतिष्ठा, पैसा या स्वयं के पास इतने शिष्य होने की अपेक्षा कि वह शिष्य उनके लिये दासों कि तरह सेवा करे, आदि। वक अपने शिष्य के लिये उसे परमपद प्राप्त हो जाये इस एक ही बात कि कामना करते है। वह केवल इसीके लिये तरसते है और कुछ नहीं। इसके साथ वह अपने शिष्य को आशिर्वाद प्रदान करते है और वह सब ज्ञान देते है जिससे वह अपने अंतिम लक्ष्य परमपद पहुँच जाये। आचार्य के चरण कमलों में शरण ना लेना इस जन्म मरण के चक्कर में पड़े रहने का यहीं कारण है । आचार्य कि कृपा ही इस जीवात्मा के लिये अच्छा संसार बनाता है। सभी को आचार्य के पास जाकर उनके चरण कमलों में शरण लेना चाहिए। यह सुनिश्चित करता है कि जीव के जो अनगिनत कर्मानुसार प्रारब्ध जमा हुआ है वह आचार्य कृपा से मुक्त हो जायेगा। आचार्य कि ऐसी महिमा इस पाशुर में समझायी गयी है “तिरुत्तालगल पेणुधल”। “तिरुत्तालगल पेणुधल” का अर्थ आचार्य के चरण कमलों को पकड़ना है। “तिरुत्तालगल पेणामै”  इसके विपरित बताता है यानि आचार्य के चरण कमलों को नहीं पकड़ना। यह भूल (पीलै) है। हम आचार्य कि महिमा श्रीवचण भूषण में देख सकते है —
भगवलाभम् आचार्यनाले | आचार्य लाभम् भगवानाळे | आचार्य संभन्धम् कुलयादे किडन्दाल् ज्ञान भक्ति वैराज्ञङ्गळ् उण्दाक्कि कोळ्ळलाम् | आचार्य संभन्धम् कुलैन्दाल् इवै (ज्ञान, भक्ति) उण्डानालुम् प्रयोजनम् इल्लै | तालि किडन्दाल् भूषणङ्गळ् पण्णिप्पोडलाम् | तालि पोनाल् भूषणङ्गळ् एल्लाम् अवदयतै (श्राप का मूल कारक) विळैककुम् | स्वाभिमानत्ताले ईश्वर अभिमानत्तैक्कुलैत्तु कोन्ड इवनुक्कु आचार्य अभिमानम् ओळिय गति इल्लै एन्रु पिळ्ळै पल कालुमरुळिच्चेय्य केटु इरुकैयायिरुककुम् | स्वस्वातन्त्रिय भयत्ताले भक्ति नळुविट्रु (नळुवित्तु), भगवद् स्वातन्त्रिय भयत्ताले प्रपत्ति नळुविट्रु (नळुवित्तृ) | आचार्यनयुम् तान् पट्रुम् (पत्तुम्) पट्टृ अहंकार गर्भमागयाले कालन् कोण्डु मोदिरम् इडुमो पादि | आचार्य अभिमानमे उत्तारकम् — श्रीवचनभूषण दिव्यशास्त्र – ४३४

शास्त्र भक्ति के बारें में चर्चा करता है जो हर एक को परमपद ले जाने का वचन देता है। इससे भी अधिक प्रपत्ति (शरणागति) है जो उसे भगवान श्रीमन्नारायण के चरण कमलों में ले जाता है। अगर दोनों विधि मनुष्य को परमपद नहीं ले जाता है तो ऐसी स्थिति में आचार्य के शरण होना यही विकल्प उस व्यक्ति के पास बचता है । अगर ऐसे आचार्य अपने शिष्य को “यह मेरा है” ऐसा बुलाते है तो इससे अधिक उस व्यक्ति और कुछ नहीं चाहिये । वह उस मनुष्य को परमपद ले जायेंगे । अत: इस पाशुर का यह तत्त्व है कि जिस पर आचार्य कृपा हो गयी हो उसका परमपद जाना निश्चित है और जिस पर नहीं हुयी है तो उसे तो इस संसार के जन्म मरण के चक्कर में पड़े रहना है।

हिन्दी अनुवादक – केशव रामानुज दासन्

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