। ।श्री: श्रीमते शठकोपाय नम: श्रीमते रामानुजाय नम: श्रीमत् वरवरमुनये नमः। ।
<< पासुरम् ६६
पासुरम् ६७
सड़सठवां पासुरम्। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी अपने हृदय को कुछ इस प्रकार उत्तर दे रहे हैं, मानो वह उनसे पूछ रहा हो, “तुम कह रहे हो कि हमें ऐसा जीना चाहिए जैसे कि आचार्य ही सब कुछ हैं, जबकि कुछ अन्य कहते हैं कि हमें भगवान ही सब कुछ हैं मानकर जीवन व्यतीत करना चाहिए। इन बातों में से कौन-सा सही है?”
आचारियर्गळ् अनैवरुम् मुन् आसरित्त
आचारम् तन्नै अरियादार – पेसुगिन्ऱ
वार्त्तैगळैक् केट्टु मरुळादे पूरुवर्गळ्
सीर्त्त निलै तन्नै नेञ्जे सेर्
हे हृदय! श्रीमधुरकवि, श्री नाथमुनि आदि से लेकर हमारे सारे पूर्वाचार्य अपने आचार्यों के प्रति पूर्ण भक्ति में लीन थे। जो लोग ऐसे आचार्यों के कैंङ्कर्य को नहीं समझते, उनके उपदेशों से भ्रमित न होकर हमारे पूर्वाचार्यों की स्थिति प्राप्त करो। भक्ति में प्रथम चरण भगवान के अधीन होना है और अंतिम चरण आचार्यों के अधीन होना है। हमारे आचार्यों की आसक्ति अंतिम चरण में थी और उन्होंने उसी का अभ्यास किया था।
पासुरम् ६८
अड़सठवां पासुरम्। इस पासुरम् में मामुनिगळ् दयापूर्वक बताते हैं कि किसका अनुसरण करना चाहिए और किसका नहीं।
नात्तिगरुम् नऱ्-कलैयिन् नन्नॆऱि सेर् आत्तिगरुम्
आत्तिग नात्तिगरुमाम् इवरै – ओर्त्तु नॆञ्जे
मुन्नवरुम् पिन्नवरुम् मूर्कर् ऎन विट्टु नडुच्
चॊन्नवरै नाळुम् तॊडर्
हे हृदय! तीन प्रकार के लोगों का विश्लेषण करो – नास्तिक जो शास्त्रों को नहीं मानते, आस्तिक जो शास्त्रों में दिए गए मार्ग को स्वीकार करते हैं और उसी के अनुसार अपना जीवन व्यतीत करते हैं, तथा आस्तिक-नास्तिक, जो ऊपर-ऊपर से शास्त्रों को मानते हैं पर उनमें दृढ़ विश्वास नहीं रखते और जो उनके अनुसार जीवन व्यतीत नहीं करते। तीनों में पहले (नास्तिक) और तीसरे (आस्तिक-नास्तिक) को मूर्ख समझकर त्यागकर दूसरे प्रकार के व्यक्तियों (आस्तिक) का सदा अनुसरण करें।
पासुरम् ६९
उनहत्तरवां पासुरम्। मामुनिगळ् ने उदाहरण द्वारा समझाया है कि अनुकूल लोगों से कितना लाभ होता है।
नल्ल मणम् उळ्ळदॊन्ऱै नण्णियिरुप्पददऱ्-कु
नल्ल मणम् उण्डाम् नलम् अदुपोल – नल्ल
गुणम् उडैयोर् तङ्गळुडन् कूडि इरुप्पाऱ्-कु
गुणम् अदुवेयाम् सेर्त्ति कॊण्डु
जैसे कोई वस्तु किसी अन्यसुगंधित वस्तु के पास रखने पर सुगंध का गुण प्राप्त कर लेती है, वैसे ही सत्वगुणी व्यक्तियों के सान्निध्य में रहने पर व्यक्ति को सद्गुण प्राप्त होते हैं। सद्गुण हैं – दास्य का ज्ञान, भगवान के प्रति भक्ति और उनके अन्य अनुयायियों के प्रति भक्ति, सांसारिक विषयों से विरक्ति आदि। जैसे एक खेत में जब पानी भर जाए तो वह स्वतः ही आसपास के खेतों में बह जाता है, उसी प्रकार जब हम श्रेष्ठ गुण वाले व्यक्तियों के संपर्क में होते हैं, तब हमारे अंदर भी उन्हीं गुणों का प्रादुर्भाव होता है। हमारे संप्रदाय में एक महत्त्वपूर्ण सिद्धांत यह है कि – “हमें एक भक्त (भगवान के) के समक्ष जाना चाहिए और उनके दिव्य चरणों की छाया में रहना चाहिए।”
अडियेन् दीपिका रामानुज दासी
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