श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त और श्रीवैष्णव संप्रदाय के महान विचारक और परम आदरणीय श्रीनाथमुनी स्वामीजी के पौत्र, श्री आळवन्दार् ने अति आवश्यक सिद्धान्त अर्थात प्राप्य और प्रापकम को दिव्य द्वय महामंत्र के विस्तृत व्याख्यान द्वारा अपने स्तोत्र रत्न में दर्शाया है। हमारे पूर्वचार्यों से प्राप्त संस्कृत ग्रन्थों में यह सबसे पुराना ग्रंथ है जो आज हमारे पास उपलब्ध है।
श्री महापूर्ण स्वामीजी (श्री पेरिय नम्बि), श्री रामानुज स्वामीजी को श्री आळवन्दार् के शिष्य के रूप में प्रवर्त करने की इच्छा से काँचिपुरम् जाते हैं। श्री रामानुज स्वामीजी श्री कांचिपूर्ण स्वामीजी के मार्गदर्शन में श्री देवप् पेरुमाळ् के कैंङ्कर्य स्वरूप एक शालकूप से तीर्थ (जल) लाकर सेवा कर रहे थे। श्री महापूर्ण स्वामीजी स्तोत्र रत्न से कुछ श्लोकों का पाठ करते हैं जो श्री रामानुज स्वामीजी को बहुत प्रभावित करता है और उन्हें संप्रदाय में लेकर आता है। श्री रामानुज स्वामीजी का इस प्रबंध के प्रति अत्यंत लगाव था और इसी प्रबंध के बहुत से श्लोकों का उपयोग उन्होंन अपने श्रीवैकुंठ गद्य में भी किया है।
पेरियवाच्चान् पिळ्ळै ने इस दिव्य प्रबंध के लिए विस्तृत व्याख्यान की रचना की है। पेरियवाच्चान् पिळ्ळै ने अपने व्याख्यान में इस स्तोत्र के विशेष अर्थों को वाक्चातुर्यपूर्वक समझाया है। उनके व्याख्यान के आधार पर हम यहाँ श्लोकों के सरल अर्थों को देखेंगे।
- तनीयन
- श्लोक 1 से 10
- श्लोक 11 से 20
- श्लोक 21 से 30
- श्लोक 31 से 40
- श्लोक 41 से 50
- श्लोक 51 से 60
- श्लोक 61 से 65
– अडियेन भगवती रामानुजदासी
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