स्तोत्र रत्नम – श्लोक 21 से 30- सरल व्याख्या

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमत् वरवरमुनये नमः

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श्लोक 21

श्री आळवन्दार् स्वामीजी, भगवान, जो कि हमारे शरण हैं, उनकी महानता का ध्यान करते हैं। जैसा की समझाया गया है – पहले लक्ष्य की प्रकृति की व्याख्या करने के बाद, यहां उस लक्ष्य का प्राप्त करने वाले व्यक्ति की प्रकृति को समझाया गया है। एक अन्य व्याख्या – पहले भगवान, जो हमारे शरण है, उनकी व्याख्या करने के बाद, यहां उन्होंने शरणागति (समर्पण की प्रक्रिया) की प्रकृति पर प्रकाश डाला, जिसे बाद में समझाया जाएगा।

नमो नमो वाङ्गमनसातिभूमये
नमो नमो वाङ्गमनसैकभूमये |

नमो नमो’नन्तमहाविभूतये
नमो नमो’नन्तदयैकसिंधवे ||

मेरा नमस्कार! नमस्कार!, हे भगवान आपको,जो वाणी और मन की पहुंच से परे हैं (उन लोगों के लिए जो आपको अपने प्रयासों से जानने की कोशिश करते हैं); मैं आपको नमस्कार करता हूं जो वाणी और मन की पहुंच के भीतर हैं (उनके लिए जो आपकी कृपा से आपको जानते हैं,); मेरा नमस्कार आपको, जिनके पास अपार धन है; आपको मेरा नमस्कार, जो दया के सागर हैं।

श्लोक 22

श्रीआळवन्दार् स्वामीजी अपनी योग्यता की घोषणा करते हुए, प्रपत्ति (समर्पण) में संलग्न होते हैं जो पहले [पिछले पासुर में] आया था। इस श्लोक में उस साधन के अभ्यास के विषय में समझाया गया है जो लक्ष्य प्राप्ति के लिए उपयुक्त है।

न धर्मनिष्ठोस्मि न चात्मवेदि
न भक्तिमांस्त्वच्चरणारविंदे |

अकिञ्चनो’नन्यगतिश्शरण्य!
तवत्पादमूलं शरणं प्रपध्ये ||

हे भगवान, आपके ही श्रीचरण आत्मसमर्पण करने के लिए उपयुक्त है! मैं कर्म योग पर दृढ़ नहीं हूं; मुझे स्वयं के बारे में ज्ञान नहीं है; आपके श्रीचरणकमलों में मेरी भक्ति नहीं है; मैं जिसके पास और कोई साधन नहीं है, और कोई अन्य शरण नहीं है, मैं दृढ़ता से आपके दिव्य श्रीचरणकमलों को साधन के रूप में स्वीकार करता हूं।

श्लोक 23

जब भगवान कहते हैं, “चिंता मत करो कि तुम्हारे पास मेरे लिए कुछ भी अनुकूल नहीं है; जब तक तुम में निषिद्ध आचरण नहीं हैं जो तुम्हारे द्वारा अर्जित योग्यताओं को नष्ट कर देंगे, मैं तुम में सद्गुण उत्पन्न करूंगा और लक्ष्य भी प्रदान करूंगा”, इस पर श्रीआळवन्दार् स्वामीजी कहते हैं, “मैं सभी प्रतिकूल गुणों से पूर्ण हूं”।

न निन्दितं कर्म तदस्ति लोके
सहस्रशो यन्न मया व्यधायि |

सो’हम विपाकावसरे मुकुन्द!
क्रन्दामि सम्प्रत्यगतिस्तवाग्रे ||

हे प्रभु, आप मुक्ति प्रदायक हैं! वे निषिद्ध कर्म, जो शास्त्र में भी वर्णित नहीं हैं [दुनिया को संचालित करने वाले शास्त्र] वह मेरे द्वारा हजारों बार किए गए, अभी, जब [ऐसे कर्म] परिणाम में परिणत होते हैं, तो मैं कोई अन्य शरण न होने के कारण आप महामहिम के समक्ष रहा रुदन कर रहा हूँ।

श्लोक 24

श्रीआळवन्दार् स्वामीजी भगवान को पुकारते हुए कहते है, “आपकी कृपा ही मेरे लिए एकमात्र आश्रय है”; श्रीआळवन्दार् स्वामीजी कहते हैं, “जिस प्रकार आपको प्राप्त करना मेरे लिए सौभाग्य की बात है, उसी प्रकार आपकी कृपा के लिए भी मैं एक उपयुक्त पात्र हूँ”।

निमज्जतो’नन्तभवार्णवान्त:
चिराय मे कूलमिवासी लब्ध: |

त्वया’पि लब्धं भगवन्निधानीम्
अनुत्तमं पात्रमिदं दयाया: ||

हे प्रभु, जो (स्थान, समय और तत्वों से) सीमित नहीं है! अनंत समय से इस संसार सागर में डूबे हुये मेरे लिए आप किनारे के समान आए है। हे भगवान! अब, आप ही की कृपा से, मैं भी आपकी कृपा का एक उपयुक्त पात्र हुआ हूँ।

श्लोक 25

भगवान पूछते हैं, “जब आपने अपनी सभी प्रकार से मेरा शरण ग्रहण किया है, तो आपका स्वभाव श्रीरामायण के सुंदर-कांड 39.30 में जैसा कहा गया है उस प्रकार का होना चाहिए… “तत्तस्य सदॄषं भवेत् “(श्रीराम स्वयं लंका को नष्ट कर और मेरी रक्षा करें, यह उनकी प्रकृति के अनुरूप है- इसलिए मैं उसके आने का इंतज़ार करूँगी); इस प्रकार से इस स्थिति में आप मुझसे अभी मदद करने के लिए क्यों आग्रह कर रहे हो?” श्रीआळवन्दार् स्वामीजी उत्तर देते हैं, “मैं आपसे अपने दुखों को दूर करने के लिए प्रार्थना नहीं कह रहा हूँ; परंतु जब आपके शरणागत दास इस संसार में पीड़ित होते हैं, तो श्रीमान यह आपकी महिमा के लिए एक कलंक है; इसलिए, मैं आपसे इसे दूर करने का अनुरोध करता हूं।”

अभूतपूर्वं मम भावि किं वा
सर्वं सहे मे सहजं हि दु:खम् |

किंतु त्वदग्रे शरणागतानां
पराभवो नाथ! न ते’नुरुप: ||

हे भगवान! मुझे ऐसा कौन सा नवीन दुःख होने वाला है जो पहले नहीं हुआ? मैं इन सब दुखों को सह रहा हूँ; दुख मेरे साथ जन्में हैं; परन्तु आपके शरणागतों को होने वाला दुख, आप महामहिम के समक्ष अपमान स्वरूप है, आपके अनुरूप नहीं है।

श्लोक 26

श्रीआळवन्दार् स्वामीजी कहते हैं, “यहां तक ​​​​कि जब आप अपनी महानता पर प्रतिकूल प्रभाव की परवाह किए बिना मुझे छोड़ भी देते हैं, तब भी मैं आपको नहीं छोड़ूंगा” और इस प्रकार भगवान पर अपने महाविश्वास (अटूट विश्वास) को प्रकट करते है जो उनके अगतित्व (और कोई गति/ शरण न होना) का परिणाम है।

निरासकस्यापि न तावदुत्सहे
महेश! हातुं तव पादपङ्कजम् |

रुषा निरस्तो’पी शिशु: स्तनन्धय:
न जातु मातुश्चरणौ जिहासति ||

हे सर्वेश्वर (सबके स्वामी) ! यद्यपि (आप) मुझे दूर धकेल दे, तब भी मैं आपके दिव्य चरण कमलों से प्रथक होने की हिम्मत नहीं करूंगा; [ठीक वैसे ही] जैसे एक दूधमुहाँ शिशु, जिसे (माँ द्वारा) गुस्से से दूर धकेल दिया भी जाए है, परंतु वह [बच्चा] कभी भी माँ के चरणों को नहीं छोड़ेगा।

श्लोक 27

श्रीआळवन्दार् स्वामीजी कहते हैं, “क्या यह केवल मेरी अनन्य गतित्व (और कोई गति/ शरण न होना) है जो मुझे आपको कभी छोड़ने नही देती है? मेरा मन जो आपके आनंदमय स्वभाव में डूबा हुआ है, वह और कुछ नहीं खोजेगा।

तवामृतस्यन्दिनी पादपङ्कजे
निवेशितात्मा गतमन्यदिच्छति |

स्थिते’रविन्दे मकरन्दनिर्भरे
मधुव्रतो नेक्षुरकं हि वीक्षते ||

क्या मेरा मन, जो (आपकी कृपा से) आपके दिव्य चरणकमलों पर स्थित है, ऐसे दिव्य चरण जिन से अनंत अमृत धारा बहती है, वह मन और किसी वस्तु की चाहना करेगा? जब शहद से भरा लाल कमल का फूल उपस्थित हो, तब क्या मधुमक्खी घास के फूल को देखेगी?

श्लोक 28

श्रीआळवन्दार् स्वामीजी पूछते हैं, “क्या एक अंजलि (हथेलियाँ जोड़कर प्रार्थना करने की मुद्रा) आपके लिए मुझ पर कृपा करने के लिए पर्याप्त नहीं है?”।

त्वदङ्घ्रिमुद्दिश्य कदा’पि केनचित्
यथा तथा वा’पि सकृत्कृतो’ञ्जलि: |

तदैव मुष्णात्यशुभान्यशेषत:
शुभानि पुष्णाति न जातु हीयते ||

यदि किसी के द्वारा अंजलि मुद्रा (हथेलियों को जोड़कर प्रणाम करने की मुद्रा [शारीरिक समर्पण का संकेत]) किसी भी समय किसी भी रूप में की जाती है, तो उससे उसके सभी पाप तुरंत बिना किसी निशान के समाप्त हो जाते है; सभी शुभ पक्षों का पोषण होता है; और ऐसी शुभता कभी कम नहीं होती।

श्लोक 29

यह श्लोक मानसिक प्रपत्ति (मानसिक समर्पण) को प्रकाशित करता है। वैकल्पिक रूप से – यह भी कहा जा सकता है कि परभक्ति, जो समर्पण का परिणाम है, उसकी श्लोक 28 ” त्वधंघ्रिमुद्धिश्य……..” और श्लोक 29 “उदीर्ण….” में व्याख्या की गई है।

उदीर्णसंसारदवाशुशुक्षणिं
क्षणेन निर्वाप्य परां च निर्वृतिम् |

प्रयच्छति त्वच्चरणारुणाम्बुज –
द्वयानुरागामृतसिन्धुशीकर: ||

आपके दो लाल रंग के दिव्य चरणकमालों के प्रेम सागर की एक बूंद भी इस संसार समान जंगल की भयंकर जलती हुई आग को पल भर में बुझा देती है और श्रेष्ठ आनंद भी देती है।

 श्लोक 30 

 जैसा कि श्रीआळवन्दार् स्वामीजी ने “सिद्धोपाय” (स्थापित साधन, अर्थात, भगवान) को स्वीकार कर लिया है, जो बिना किसी देरी के परिणाम देता है, परंतु परिणाम की प्राप्ति की प्रतीक्षा करने में असमर्थ, त्वरा (आग्रह) से उत्तेजित होकर, श्रीआळवन्दार् स्वामीजी तिरुवाइमोळि 6.9.9 में कहते हैं “कूविक् कोळ्ळुम् कालम् इन्नम् कुऱुगादो” (क्या आप तक पहुँचने का दिन जल्द नहीं आएगा?)

इसे इस प्रकार से भी समझाया गया है – पराभक्ति, जो प्रपत्ति (समर्पण) का परिणाम है, उसके कारण श्रीआळवन्दार् स्वामीजी पूछ रहे हैं कि वह [भगवान के दिव्य चरण] को कब देखेंगे, जैसा कि तिरुवाइमोळि 3.6.10 में कहा गया है “कनैकळल् काण्बदेन्ऱुकोल् कण्गळ्” (मेरी आँखें कब भगवान के दिव्य चरण देखेंगी?) और तिरुवाइमोळि 9.4.1 ″काणक् करुदुम् एन् कण्णे” (मेरी आंख देखना चाहती है)।

विलासविक्रांतपरावरालयं
नमस्यदार्तिक्षपणे कृतक्षणम् |

धनं मदीयं तव पादपङ्कजं
कदा नु साक्षात्करवाणि चक्षुषा ||

मैं कब आपका दिव्य चरणकमल अपनी आंखों से देखूंगा, जो मेरा धन है और जो आकाशीय/ श्रेष्ठ देवताओं और मनुष्यों के लोकों पर अपना समय व्यतीत करते है, ऐसे लोक जिन्हें आपने  खेल में माप लिया था और – उन लोगों के दुखों को दूर करने के विषय में जिन्होने उन चरण कमलों की पूजा की?

– अडियेन भगवती रामानुजदासी

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