स्तोत्र रत्नम – श्लोक 31 से 40 – सरल व्याख्या

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

पूरी श्रृंखला

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श्लोक 31

इस श्लोक में श्री आळवन्दार् कहते हैं , ” आपके चरण कमलों को सिर्फ देखना ही पर्याप्त नहीं है , मेरे सिर पर आपके चरणों को रखके मेरे सिर को सुशोभित करना चाहिए ” जैसे तिरुवाइमोळि ९.२.२ में कहा है, ” पडिक्कळवाग निमिर्त निन् पाद पङ्कयमे तलैक्कणियाय् ” ( ऐसा हो कि आपके दिव्य कमल चरण जो सारे संसार के ऊंचाइयों से भी बढ़कर उठा , मेरे सिर को सुशोभित करे ) और तिरुवाइमोळि ४.३.६ ” कोलमाम् येन सेन्निक्कु उन कमलम् अन्न कुरै कळले ( आपके कमल जैसे दिव्य चरण , मेरे सिर का आभूषण है )

कदा पुन: शङ्खरथाङ्गकल्पक
ध्वजारविन्दाङ्कुशवज्रलाञ्छनम् |
त्रिविक्रम ! त्वच्चरणाम्बुजद्वयम्
मदीय मूर्धानमलङ्करिष्यति ||

हे भगवान जिसने त्रिविक्रम का अवतार लिया ! कब मेरा सिर आपके दिव्य चरणों से सुशोभित होगा , जिसमे (निशान) शङ्ख , चक्र , कल्पक वृक्ष , ध्वज , अरविंद ( कमल ) , अङ्कुश, वज्रायुध ( शस्त्र ) के पहचान हैं ?

श्लोक 32 – इस श्लोक से लेकर ४६ श्लोक तक “भवन्तम्” स्वामी आळवन्दार् , एम्बेरुमान् के सौंदर्य अंग , आभूषण , शस्त्र, दिव्य महिषी , दिव्य दासीगण, सम्पत्ति आदि की निकटता का आनंद लेते हैं और भगवान से पूछते हैं कि वे कब उस सुखानुभव परिणत भगवत कैंकर्य में शामिल होंगे | इस श्लोक में स्वामी आळवन्दार् अन्य भागवतों के संग, अपने भगवत कैंकर्य की उद्देश्य को दयापूर्वक रूप से समझाते हैं |

विराजमानोज्ज्वल पीतवाससं
स्मितातसीसून समामलच्छविम् |
निमग्ननाभिं तनुमध्यमुन्नतं
विशाल वक्षस्स्थल शोभिलक्षणम् ||

एम्बेरुमान् जो मनमोहनीय, ( रंगों के मिश्रण के कारण ) कांतिमय, दिव्य पीताम्भर (पीला वस्त्र) पहने हो , खिली हुयी (नीले रंग के) अंजन पुष्प की तरह दोषरहित वैभव हो , गहरी नाभि, सीमित कमर , सर्वोत्तम ( इन सारे गुणों के कारण ) हो और जो प्रज्वलित श्रीवत्स नाम तिल को अपने पवित्र वक्षस्थल में धारण किया हो….

श्लोक 33स्वामी आळवन्दार् भगवान के वीरता , साहस और भगवान के पवित्र कन्धों की सुंदरता का अनुभव कर रहे हैं |

चकासतं जयाकिणकर्कशै: शुभै:
चतुर्भिराजानु विलम्बि भिर्भुजै: |
प्रियावतंसोत्पलकर्णभूषण
श्लथालकाबन्धविमर्दशंसिभि: ||

एम्बेरुमान् जो चमक रहें हैं , अपने मंगल चतुर्भुज जो तीर चलाने के कारण खुरदरा हो , और जो उन सांवले कुमुद पुष्पों के उभरे हुए निशान को प्रकट करता हो , जो श्री महालक्ष्मी के कान , कर्ण आभूषण तथा लहराते बालों को सजाते हैं ….

श्लोक 34 – एम्बेरुमान् के दिव्यमंगल कन्धों के बाद, स्वामी आळवन्दार् उनके दिव्यमंगल कंठ और दिव्य चेहरे की सौन्दर्य का अनुभव कर रहे हैं |

उदग्रपीनांस विलम्बिकुण्डला
लकावली बन्धुर कम्बुकन्धरम् |
मुखश्रिया न्यक्कृत पूर्ण निर्मला
मृतांशुबिम्बाम्बुरुहोज्ज्वलश्रियम् ||

एम्बेरुमान् के लम्बे और चौड़े भुजाओं तक पहुँचने वाले कर्ण आभूषणों की सुंदरता भगवान के गर्दन की सुंदरता को बढ़ाती है , भगवान के घुंघराले बाल हैं और कंठ पर तीन रेखाएँ दिखाई देती हैं | उनके दिव्यमंगल मुख का तेजस और प्रभास , एक पूर्ण , दोषरहित चंद्रमा और नव-खिली हुई कमल की चमक को भी जीत जाती है…

श्लोक 35 – जैसे तिरुवाइमोळि ७.७.८ में कहा गया है ” कोळिळै तामरैयुम् ” ( पंकज नेत्र जो स्वयं कांतिपूर्ण हैं , आभूषण की तरह [ इस पासुर में नम्माळ्वार एम्बेरुमान् के सौंदर्य मुख के हर एक अंग का अनुभव करते हैं ] ), उसी प्रकार स्वामी आळवन्दार् भी हर एक सुन्दर अंग के संयुक्त मुख का अनुभव कर रहे हैं |

प्रबुद्धमुक्ताम्बुजचारुलोचनं
सविभ्रम भ्रूलतं उज्ज्वलाधरम् |
शुचिस्मितं कोमलगण्डं उन्नसं
ललाट पर्यन्तविलम्बितालकम् ||

वो जिनके नेत्र खिली हुई स्वच्छ सुन्दर कमल की तरह हो , जिनके भौंह लता की तरह वक्र हो , कांतिमय , दिव्य अधर, निर्मल मंदहास , मनोहर गाल , उठी हुई नाक, दिव्य केश जो उनके दिव्य माथे तक झुखे हो….

श्लोक 36 – यहाँ स्वामी आळवन्दार्, एम्बेरुमान् के दिव्यभूषणों और दिव्यायुधों के संयुक्त का आनंद ले रहे हैं |

स्फुरत्किरीटाङ्गद हार कण्ठिका
मणीन्द्र काञ्ची गुण नूपुरादिभिः |
रथाङ्ग शङ्खासि गदा धनुवरै:
लसत्तुलस्या वनमालयोज्ज्वलम् ||

एम्बेरुमान् , शोभायमान मुकुट, कंधे के छल्ले, हार, माला, श्रीकौस्तुभ मणि , दिव्य कमर की डोरी, दिव्य नूपुर आदि पहने हुए प्रकाशित दिख रहे हैं , और दिव्यायुध जैसे चक्र , शंख , नन्दक खङ्ग , कौमोदकी गदा , शार्ङ्ग धनुष और कांतिमय तुलसी माला ( जो आपके संपर्क से उज्ज्वलता प्राप्त की है ) और वनमाला की हार पहने हुए हैं |

श्लोक 37 – अगले दो श्लोकों ( इस श्लोक और अगले श्लोक ) में स्वामी आळवन्दार् , पिराट्टी ( श्री महालक्ष्मी ) के साथ एम्बेरुमान् की घनिष्ठता का अनुभव कर रहे हैं | इस पहले श्लोक में पिराट्टी की महत्ता तथा उनके ऊपर ईश्वर की अधिक प्रेम को दयापूर्वक रूप से समझाते हैं |

चकर्थ यस्या भवनं भुजान्तरं
तव प्रियं धाम यदीय जन्मभू: |
जगत् समस्तं यदपाङ्गसंश्रयं
यदर्थमम्भोधिरमन्थ्यबन्धि च ||

हे एम्बेरुमान् ! जिस पिराट्टी के लिए आप अपने दिव्य वक्षस्थल को निवास स्थान बनाया है , वो दिव्यमंगल क्षीरसागर जो पिराट्टी का जन्मस्थान है, वो आपका प्रिय निवास बन गया , जिनके [ पिराट्टी के ] सौम्य दृष्टि पर यह सारा जगत आश्रित हो, जिनके लिए सागर का मथना और जिनके लिए आपने सेतु का निर्माण किया…

श्लोक 38 – इस श्लोक में स्वामी आळवन्दार्, पिराट्टी ( श्री महालक्ष्मी ) की अपरिमित आनंददायकता और केवल एम्बेरुमान् के प्रति अनन्य विद्यमानता, जैसे तिरुवाइमोळि १०.१०.६ में कहा गया है, ” उनक्केर्क्कुम् कोल मलरप्पावै ” ( श्री महालक्ष्मी जो सौंदर्य कमल में निवास करती है और तुम्हारे लिए अनुकूल है ) , का आनन्द ले रहे हैं |

स्ववैश्वरूप्येण सदा अनुभूतया अपि
अपूर्ववद्विस्मयमादधानया |
गुणेन रूपेण विलासचेष्टितै:
सदा तवैवोचितया तव श्रिया ||

हमेशा आपके सार्वभौमिक रूप में अनुभव करते हुए भी , पिराट्टी अपने कल्याण गुणों से आपको आश्चर्यचकित करती है , अपने सुन्दर रूप , मनमोहक क्रियाएं और आपके हर स्तिथि में अनुपूरक दिखाई देती हैं [ भगवान के स्तिथि जैसे, पर ( परमपद में ) , व्यूह ( क्षीराब्धि में ) , विभव ( अवतारों में ) इत्यादि ] , और अनन्य रूप से केवल आपके लिए अनुकूल है और आपका सम्पत्ति है |

श्लोक 39 – इस श्लोक में स्वामी आळवन्दार् , तिरुवनंताळवान् के गोदी पर, पिराट्टी ( श्री महालक्ष्मी ) के साथ एम्बेरुमान् की समक्षता, जैसे पर्यंक विद्या में कहा गया है , को अनुभव कर रहे हैं |

तया सहासीनंमनन्तभोगिनी
प्रकृष्ट विज्ञान
बलैकधामनि |
फणामणिव्रातमयूखमण्डल
प्रकाशमानोदरदिव्यधामनि ||

आदिशेष अपार ज्ञान और शक्ति के निवास स्थान हैं , जिनके मध्य भाग ( गोदी ) में एम्बेरुमान् और पिराट्टी, अंतरंग निवास करते हैं , वो मध्य भाग, जो शेष के फण में चमकते हुए रत्नों से उत्सर्जित प्रकाश के कारण उज्ज्वलित हो ; तिरुवनंताळवान् के इस दिव्य रूप पर एम्बेरुमान् दिव्य शयन कर रहे हैं |

श्लोक 40 – कैंकर्य ( सेवा ) के प्रति उनके अधिक प्रेरणा के कारण , स्वामी आळवन्दार् , तिरुवनंताळवान् ( आदिशेष) के विलक्षण कैंकर्यों का अनुभव कर रहे हैं | जैसे विष्णु पुराण १.१५.१५७ में कहा गया है , ” उपमानम् अशेषाणां साधूनां यस्सदाऽभवत् ” ( जिस प्रकार प्रह्लाद , सारे अच्छे लोगों का उदाहरण बन गया हो ) , उसी प्रकार , जिनको कैंकर्य में रूचि है, तिरुवनंताळवान् के विलक्षण कैंकर्य ही सर्वोत्तम उदाहरण है | स्वामी आळवन्दार्, तिरुवनंताळवान् के इस सर्वश्रेष्ठ स्तिथि को समझा रहें हैं |

निवासशय्यासनपादुकांशुक
उपधानवर्षातपवारणादिभिः |
शरीरभेदैस्तव शेषतां गतै :
यथोचितं शेष इतीरिते जनै: ||

तिरुवनंताळवान् के इस दिव्य रूप पर एम्बेरुमान् दिव्य शयन कर रहे हैं, तिरुवनंताळवान् , एम्बेरुमान् निवास करने वाले राजमहल हैं, शय्या हैं जिसके ऊपर एम्बेरुमान् शयन करते हैं , राजसिंहासन हैं जिसमे एम्बेरुमान् बैठते हैं , चरण पादुका हैं जिसे एम्बेरुमान् पहनते हैं , वस्त्र हैं जिसे एम्बेरुमान् धारण करते हैं , शिरोधान हैं जिसे एम्बेरुमान् आलिंगन करते हैं , एम्बेरुमान् को धूप और वर्षा से संरक्षण करने वाली छत्र हैं , और कई रूप धारण करते हैं [ कैंकर्य के लिए ] आपके कैंकर्य में ; इसलिए तिरुवनंताळवान् को सभी ” शेष ” कहते हैं….

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

आधार – http://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2020/10/sthothra-rathnam-slokams-31-to-40-simple/

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