ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) ३

श्री:
श्रीमते शठकोपाय नम:
श्रीमते रामानुजाय नम:
श्रीमत् वरवरमुनये नम:

 ज्ञान सारं

ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) २                                                ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) ४

पाशूर ३

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आनै इदर कड़िन्द अलियाङ्कै अंबुयथ्थाल
कोने विदिल नीरिल कुतिथेलुन्द मीन एनवे
अक्कै मुदियूम पड़ी पिरतल अन्नवन थाल
नीक्कमिला अन्बर निलै

अर्थ

विदिल: अगर कोई उनसे अलग हो जाता है,  अंबुयथ्थाल कोनै: कमल पर बिराजमान श्री लक्ष्मीजी के पति श्री भगवान , आनै इदर कड़िन्द: गजेंद्र का दु:ख दूर करनेवाले, अलियाङ्कै: जो अपने कर कमलोंमें श्री चक्रराज धारण करते हैं, मीन एनवे: मछली के तरह, कुतिथेलुन्द: जो कूदकर बाहर आगयी, नीरिल: पानी, मुदियूम पड़ी पिरतल: वो मरणासन्न हो जाएँगे , निलै: ऐसी परिस्थिती है, अन्बर: दासजन (आश्रित जन) , अन्नवन थाल: ऐसे श्रीमन्नारायण भगवान के चरण कमल से, नीक्कमिला: जो कभी विलग नहीं होना चाहते |

प्रस्तावना

पिछले पाशूर में श्री देवराजमुनी स्वामीजी भक्ति की एक स्थिती “पराभक्ति” का वर्णन करते हैं, जिसमे जीव को भगवान से विलग होनेके विचार से ही अत्यंत कष्ट होता है और जब वो भगवान के समीप होता है तो निश्चिंत होता है। इस पाशूर में श्री स्वामीजी उससे भी विशेष “परम भक्ति” का वर्णन करते हैं।इसमे, जब कोई भगवान से विलग होता है तो अब कष्ट नहीं होगा, वो सीधे मरण के परिस्थिती में होजायेगा। श्री स्वामीजी इस पाशूर में एक दृष्टांत के साथ यह समझाते हैं।

स्पष्टीकरण:

श्री गजेन्द्र हाथी की कथाका उल्लेख पुराणोंमें और आलवारोंके पाशूरोंमें और आल्वारोंके पशूरोंमें अनेकों बार आता है। श्री गजेन्द्र हाथी भगवान को अर्पण करने हेतु सरोवर से कमल पुष्प लेकर किनारे की तरफ आ रहे थे। एक मगरमच्छ अपने शाप को उतारने के लिये एक हाथी के तलाश में था। उसने गजेन्द्र का पैर पकड़ लिया।गजेन्द्र अपने पैर जमीन की ओर खींचता था तो मगरमच्छ पानी की ओर। यह क्रम देवताओंके १,००० वर्ष (मनुष्य के ३,६०,००० वर्ष) तक चला। मगरमच्छ और भी बलवान हो रहा था क्योंकि पानी उसका अधिकार क्षेत्र था और उसकी इच्छा भी पूर्ण हो रही थी। हाथी की शक्ति क्षीण हो रही थी क्योंकी पानी उसका अधिकार क्षेत्र नहीं था और उसके इच्छा भी पूर्ण नहीं हो रही थी। गजेन्द्र ने अपनी सब आशा छोड़ दी थी क्योंकि केवल उसकी सूँडही पानी के बाहर बची थी। उसको ज्ञात हुवा की इससे बड़ी कोई आपत्ति नहीं हो सकती और सोचा, “जो आश्रितोंके सभी कष्ट दूर करता है वो हमारा रक्षक है” और पुकारा,”नारायणा!!! ओ मणिवण्ण!!! नागणैयाई!!! वारै एन अरिडारै नीक्काई”(श्री परकाल स्वामीजी विरचित सीरिया तिरुमडल से)।श्री भगवान त्वरित पधारे और गजेन्द्र का दु:ख दूर किया। गजेन्द्र को मगरमच्छ के द्वारा अपने शरीर का नाश होने की चिंता नहीं थी। उनको अपने सूंड में जो कमलपुष्प था उसको बिना बिगाड़े भगवान के चरण कमलोंतक पहुंचाना था। भगवन्निष्ठ श्री गजेन्द्र के इस प्रकार के भयको दूर करने के लिए भगवान शीघ्र पधारें।यह इस पाशूर में वर्णित है।

अलियाङ्कै: सुंदर श्रीहस्त जो श्री चक्रराज को धारण किए हैं। यह इस वाक्य का अर्थ है। गजेन्द्र को उसके शत्रु मगरमच्छ से छुड़ाने के लिए भगवान ने श्रीहस्त में श्री चक्र को धारण किया। – यही इस वाक्य का अर्थ है।

श्री शठकोप स्वामीजी अपनी सहस्रगिती ३.१.९ में कहते हैं:

मलुंगाद वैन्नुदीय चक्कर नल वलथैयाय-थ
तोलुम कादल कलिरालिप्पान पुल ऊर्न्दु तोंद्रिनैये

यह बात स्पष्ट है की भगवान हाथी की रक्षा करने के लिए त्वरा किए। श्री पराशर भट्टर स्वामीजी भगवान के इस त्वरा-वेग को प्रणाम करते हैं।भगवान अपने धाम से प्रस्थान किए और उनको यह भी याद नहीं रहा की वो सदैव अपना सुदर्शन चक्र दाहिने हस्त में धारण करते हैं।अगर उनको यह स्मरण होता तो उन्होने वो जहां हैं वहांसे ही वह चलादिया होता और चक्रराज ने अपना कार्य कर दिया होता।अथवा, वो चक्रराज नित्य धारण करते हैं यह स्मरण होकर भी उन्होने हाथी के पास स्वयं जाकर चक्रराज का उपयोग किया।कारण यह है की, श्री शठकोप स्वामीजी के पाशूर अनुसार गजेन्द्र का भगवान के प्रति निष्कलंक प्रेम के कारण “कादल कलिरू” नाम प्रसिद्ध है। गजेन्द्र को सुदर्शन चक्र धारी भगवान के सौन्दर्य का आनन्द प्राप्त करके कमलपपुष्प उनके श्री चरणोंमें समर्पित करनेकी अभिलाषा थी।इस कारण भगवान अपनी जगह से यह कार्य करना छोडकर कमल सरोवर पर गए। इसका भावार्थ है की भगवान अपने आप को अपने आश्रित के मन मुजब अपने आप को भी देते हैं।श्री महाद्योगी स्वामीजी अपने मुंद्राम तिरुवंदादी में ९९वे पाशूर में गान करते हैं, “कुत्तत्तु कॉल मुदलै तुंजा कुरित्तेरिंद चक्करत्तान”.

अंबुयत्ताल कोनै: कमल पुष्प पर बिराजमान श्री लक्ष्मीजी के नायक श्री भगवान के संदर्भ में यह वर्णन है। पुराणोंमें वर्णन है की जब श्री भगवान क्षीरसागर में आदिशेष शैय्या पर लेटे हुये थे, श्री भूदेवी और श्री नीलादेवी चरणसेवा कर रही थी, और श्रीदेवी वक्षस्थल में बिराजमान थीं और उनको गजेन्द्र की पुकार सुनाये दी। श्री भगवान ने अपने चरण कमल हल्के से श्री भूदेवी और श्री नीलादेवी की सेवा से दूर किए, शेष शैय्या पर उठकर बैठगये, पलकें खोलीं, आसपास देखा, और धीरेसे श्रीदेवी के आलिंगन से भी दूर होगये। उसके बादही श्री भगवान तुरंत श्री गरुड वाहन पर बिराजमान होकर गजेन्द्र की ओर तीव्रता से बढ़े और गजेन्द्र का दु:ख दूर किया।जैसे प्रजा के रक्षण करनेवाले राजा को देखकर प्रजा की माँ प्रसन्न होती है, वैसेही श्री लक्ष्मी अम्माजी भी भगवान को अपने भक्तोंका दु:ख दूर करते देख प्रसन्न होती हैं।इसी कारण श्री भगवान श्री लक्ष्मी अम्माजी के संदर्भ से जाने जाते हैं और “अंबुयत्ताल कोनै” नाम से संबोधित होते हैं।यह पाशूर वर्णन करता है की श्री भगवान अपने शरणागत जीव के पास उनका कष्ट दूर करने जाते हैं। वो यह नही सोचते की “मैंने अश्रितोंके लिए यह किया”, बल्कि यह सोचते हैं की, “मेंने यह मेरे अपने लिए किया”) और ऐसे भगवान श्री लक्ष्मीजी के पति हैं।

विदिल: ऐसे परम प्रेम करनेवाले श्री भगवान से कोई जीव अलग हो जानेकी परिस्थिती आजाती है तो

नीरिल कुतिथेलुन्द मीन एनवे: ऐसे होजाएगा जैसे एक मछली कूदकर जल से बाहर आगयी हो;

अक्कै मुदियूम पड़ी पिरतल: ऐसा आश्रित मरणासन्न परिस्थिती में पहुंचजाएगा”पराभक्ति” में रहनेवाले आश्रितोंकी यही परिस्थिती होती है, “भगवान के साथ होते हैं तो आनंद, दूर हैं तो दु:ख”। परमभक्ति का स्तर इससे भी उच्च है जिसमे भगवान से दूर होनेपर आश्रित मरणासन्न परिस्थिति में पहुँच जाता है। ऐसी भक्ति की यह महिमा है यह इस पाशूर में वर्णित है।जल से अलग होने पर एक मछली की परिस्थिती के उदाहरण के साथ यह समझाया गया है।

अन्नवन: का अर्थ है “ऐसे भगवान”। प्रथम भगवान को श्री लक्ष्मीजी के पति ऐसे संबोधित किया गया। यहाँ कहा गया है की “ऐसे भगवान”जो यह दर्शाता है की “ऐसे भगवान जो परमभक्ति वाले आश्रित का जीवन है, जैसे मछली के लिए जल जीवन है।

थाल नीक्कमिला अन्बर निलै: “थाल” का अर्थ है भगवान के चरण कमल, और “नीक्कमिला” का अर्थ है विलग होना। प्रेम जो भगवान के चरण कमल से दूरी नहीं सहन करता, ऐसे प्रेम धारण करनेवाले आश्रित भगवान के चरणकमल से ऐसे आकर्षित होते हैं की अगर उनसे दूर होना पड़ा तो वो एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकते, जैसे एक मछली जल के बिना जीवित नहीं रह सकती।इस पाशूर में परम भक्ति की ऐसी अवस्था का वर्णन है।

Source: http://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2015/02/gyana-saram-3-anai-idar/

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