ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) २

श्री:
श्रीमते शठकोपाय नम:
श्रीमते रामानुजाय नम:
श्रीमत् वरवरमुनये नम:

ज्ञान सारं

ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) १                                                                  ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) ३

पाशूर २

R

नरगुं सुवरगमुं नाण् मलराल कोनै
पिरुवुं पिर्यामैयुमाय-तुरिसतृ
साधगं पोल नाधन् थनधरुले पार्थिरुथल्
कोधिलदियार गुणं

अर्थ
नरगुं – कष्ट (शब्दश: अर्थ ‘नरक’ है) , सुवर्गमुं– और खुशी (शब्दश: अर्थ स्वर्ग है) , पिरीवुं – से विलग और , पिर्यामैयुमाय – से संयुक्त , नाण् मलराल कोनै – श्रिय:पति , पोल – के सदृश , तुरिसतृ – निर्दोष , साधगं – चातक पक्षी जो स्वाति की बरसात की बूंद सीधे पीता है और कोई भी जल नहीं पीता है। अगर स्वाति की बूंद नहीं मिले तो और कोई जल पिये बिना मर भी जाता है। गुणं – की प्रकृति, कोधिलदियार = निर्दोष आश्रित जन, पार्थिरुथल् = आशा करना , नाधन् थनधरुले – केवल भगवान की करुणा

स्पष्टीकरण

नरगुं सुवरगमुं – नरक और स्वर्ग ये अनुक्रम से कष्ट और खुशी को दर्शाते हैं।सहस्रगिती ३.१०.७ (तुंबमुम इंबमुम) में श्री शठकोप स्वामीजी बताते नरक को तुंबमुम (दु:ख) और स्वर्ग को इंबमुम (सुख) बताते हैं।

इस संदर्भमें जो पराभक्ति में हैं उनके लिए सुख और दु:ख क्या है?यह और ‘पराभक्ति’ का अर्थ आगे समझाया गया है।भगवान जो श्रिय:पति हैं उनका विरह नरक के समान है।और उनका सामीप्य सच्चा सुख है।परभक्ति का सार यह है की जब कोई जीव भगवान से दूर रहता है तो वो जी नहीं सकता।वह जब भगवान के साथ रहता है, तब ही जीवित रह सकता है। ऐसे जीव के इस परिस्थिति को समझाने के लिए एक दृष्टांत दिया जा रहा है।

श्री रामायण में भगवान श्रीराम जब वनवास के लिए प्रस्थान कर रहे थे तो श्री सीता अममाजी उनके साथ चलना चाहती थीं। भगवान ने उनको वनवास के खतरोंका और राजमहल के सुख का वर्णन करके समझाने का प्रयत्न किया। उन्होने श्री अम्माजी को यह समझाने का प्रयत्न किया की उनके साथ वनवास में चलना दु:ख है और राजमहलमें रहना सुख है। सुख दु:ख की ऐसी परिभाषा सुनकर श्री अम्माजी ने भगवान की बात को ठीक किया। श्री अम्माजी ने बताया, “सुख और दु:ख की जो आपने की वो परिभाषा सही नहीं है।इसकी परिभाषा अलग अलग लोगोंके लिए अलग अलग होगी।(दासी लिए) आप के साथ रहना सुख है और आपके बिना इस राजमहल में रहना दु:ख है। अगर श्रीमान को यह परिभाषा विदित नहीं है तो कृपया दासी से सीखलें। अगर हमे कोई बात पता नहीं है तो वो औरोंसे सीखना अनुचित है है। आपका प्रेम मर्यादित और परिमित है, जबकि दासी का आपके लिए असिमीत प्रेम है।” ध्यान से सुनने के पश्चात श्री भगवान ने कहा, ” ठीक है, आपको मेरे प्रति अनंत प्रेम है ऐसा आपने कहा। अब मुझे क्या करना चाहिए?” तत्परता से श्री सीता अम्माजी ने कहा, “मैं नेतृत्व करूंगी। आपको बस मेरा अनुगमन करना है।” यह श्री पेरियावाचान पिल्लै स्वामीजी का व्याख्यान है।

यहाँ एक वेदांतिक प्रश्न उठता है। सीताजी ने कहा की श्रीराम भगवान के साथ सुख है और उनके बिना दु:ख है। इस परिस्थिति के लिए यह ठीक हो सकता है। परंतु क्या अन्य लोगोंका ऐसाही भाव होना चाहिए?इसका उत्तर है, “नहीं”। कारण, श्री अम्माजी और हम सामान्य जीवोंमें अंतर है।जब हम भगवान और अम्माजी की युगल जोड़ी से विलग होते हैं तो वो दु:ख होता है और साथ रहते हैं तो वो सुख होता है। श्री अम्माजी के लिए यह भाव केवल भगवान अकेले के लिए है। अत: श्री अम्माजी को “एकायनै” संबोधित करते हैं, और हम जीव “मिथुनायर” कहके संबोधित होते हैं। एकायनै वो है जिनके लिए केवल भगवान ही निर्वाहक हैं, और मिथुनायर वो हैं जिनके लिए भगवान और अम्माजी की युगल जोड़ी निर्वाहक है। मिथुन का अर्थ है भगवान की और अम्माजी की जोड़ी।

मलराल कोनै पिरुवुं पिर्यामैयुमाय: जब कोई भगवान और श्री अम्माजी से दूर रहता है तो वह दु:ख की स्थिति है और जब वह उनसे दूर नहीं रहता है तो वो सुख है। श्री लक्ष्मणजी भी बताते हैं, “जैसे श्री सीता अम्माजी आपके बिना नहीं रह सकती, वैसेही में भी आपके बिना नहीं रह सकता।” श्री सीता अम्माजी और श्री लक्ष्मणजी दोनोंको भगवान का विरह असह्य है।

यहाँ ऐसा नहीं समझना चाहिए की श्री लक्ष्मण जी का सुख श्री रामजी के साथ में रहनेमें है।बल्कि ऐसे समझना चाहिए की श्री लक्ष्मणजी का सुख श्री रामजी और श्री सीताजी दोनोंके साथमें रहने का है।इसीलिए, वन के लिए प्रस्थान करते समय श्री लक्ष्मणजी कहते हैं, “जब आप और अम्माजी वन में पहाड़ोंमें विचरेंगे, आप के सोते जागते में आप दोनोंकी सभी प्रकार के सेवा करना चाहता हूँ। कृपया मुझे केवल इसी कारण के लिए साथ ले चलिये।”सो, जीवात्मा के लिए भी केवल भगवान और अम्माजी की युगल जोड़ी (दिव्य दंपति) की ही सेवा करना विधान है।

तुरिसतृ – निर्दोष

भक्ति को भगवत्प्राप्ति का साधन मानना ही दोष (गलती) है। यहां भक्ति का अर्थ है की भगवान और अम्माजी से विरह में दु:ख होना और समीप रहनेपर सुख होना। भक्ति को अधिकारी विशेषण समझना चाहिए – भक्ति भगवान के सामीप्य का आनंद प्राप्त करनेके योग्य बनाती है ऐसे मानना चाहिए। जैसे खानेके लिए भूखा होना जरूरी है, वैसेही, भगवान का आनंद प्राप्त करनेके लिए भक्ति होना जरूरी है। यह भक्ति उपाय/साधन नहीं बनेगी। केवल उपासक भक्त हे भक्ति को साधन मानते हैं, शरणागत नहीं।भक्ति को साधन मानना ये गलती/दोष है।तुरिसतृ का अर्थ है, वो जिनमे भक्ति को उपाय माननेका दोष नहीं है।

साधगं पोल नाधन् थनधरुले पार्थिरुथल्: चातक एक ऐसा पक्षी है जो स्वाती के बरसात की बून्दोंके व्यतिरिक्त और कोई भी जल नहीं पीते। भलेही उनका मूंह सूख गया हो, तो भी वो स्वाति के बरसात की प्रतीक्षा ही करेगा। इसी प्रकार शुद्ध (निर्दोष) आश्रितोंका यह स्वभाव है की वो भगवान की प्राप्ति के लिए भगवान की कृपा को ही उपाय मानते हैं। हम श्री परकाल स्वामीजी के “तुणिएन इनी निन अरुल अल्लादु (पेरिया तिरुमोलि ११.८.८)” और श्री विष्णुचित्त स्वामीजी के चेन्नियोंगु पादिगम: “निन अरुले पूरिन्दीरुंदेन (पेरियालवार तिरुमोली ५-४-१) में यही बात अनुभव कर सकते हैं।

कोधिलदियार गुणम्: आश्रित वो हैं जिनमे भगवान व्यतिरिक्त कोई दूसरा उपाय नहीं है और दूसरा कोई फल भी नहीं है।एक सच्चा आश्रित इसी भाव के साथ जीवन व्यतीत करता है की “प्राप्तवुम प्रापकनुम प्राप्तिक्क उगपानुम अवने” (प्राप्त का अर्थ है अंतिम लक्ष्य, साध्य अथवा उपेय। प्रापकन का अर्थ है वह लक्ष्य की प्राप्ति का साधन अथवा उपाय। इस उपाय से इच्छित उपेय की प्राप्ति को प्रपत्ति कहते हैं। श्री वचनभूषण के अनुसार ऐसा आश्रित यह अनुसंधान करता रहता है की “मेरे उपाय और उपेय दोनों एकही भगवान हैं और हमे प्राप्त करनेके बाद वो आनंदित होंगे।” प्रपन्न जीव भगवान की वस्तु होने से जब भगवान की वस्तु शरणगति के माध्यम से भगवान तक पहुंचती है तो भगवान आनंदित होंगे, ना की वह वस्तु।जब जीव भगवान के पास पहुंचता हैं तो सभी जीवोंके मालिक भगवान ही ज्यादा आनंदित होते हैं।भगवान का आनंद देखकर जीव भी आनंदित होता है और जीव के लिए इसके अतिरिक्त कोई आनन्द नहीं है।श्री देवराजमुनी स्वामीजी ने इस पाशूर के प्रथम खण्ड में बताया है की “भगवान छोडकर और कोई फल नहीं है”, और द्वितीय खण्ड में बताया है की भगवान छोडकर इतर कोई उपाय नहीं है। “सियाराम ही उपाय सियाराम ही उपेय”। एक निर्दोष आश्रित का यही स्वरूप है।

Source: http://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2014/11/gyana-saram-2-naragum-suvargamum/

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