श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नम:
आईये अब हम उन अष्ट गुणों और अन्य कल्याण गुणों के विषय में जानने का प्रयास करेंगे है, जिनका वर्णन भगवद श्रीरामानुज स्वामीजी, भगवान की शरणागति करने के पूर्व करते है।
सत्यकाम !सत्यसंकल्प ! परब्रह्मभूत ! पुरुषोत्तम ! महाविभूते ! श्रीमन् ! नारायण ! श्रीवैकुंठनाथ ! अपारकारुण्य सौशील्य वात्सल्य औदार्य ऐश्वर्य सौंदर्य महोदधे ! अनालोचित विशेष अशेषलोक शरण्य ! प्रणतार्तिहर ! आश्रित वात्सल्यैक जलधे ! अनवरत विधित निखिल भूत जात याथात्म्य ! अशेष चराचरभूत निखिल नियमन निरत ! अशेष चिदाचिदवस्तु शेषीभूत ! निखिल जगधाधार !अखिल जगत् स्वामिन् ! अस्मत् स्वामिन् ! सत्यकाम ! सत्यसंकल्प ! श्रीमन् ! नारायण ! अशरण्यशरण्य ! अनन्य शरण: त्वत् पादारविंद युगलं शरणं अहं प्रपद्ये II
आठ में से प्रथम चार गुण जिनका वर्णन आगे किया जायेगा, वे सभी जगत् की रचना करने की भगवान की योग्यता को दर्शाते है। अगले चार गुण शरणागति के मार्ग अर्थात् यह कि एक मात्र भगवान ही हमें मोक्ष (श्रीवैकुंठ) प्रदान कर सकते है, इसे दर्शाते है। इसके अतिरिक्त सत्यकाम, सत्यसंकल्प और परब्रह्मभूत (जो अष्ट गुणों में से कुछ गुण है), वे चूर्णिका के लीला विभूति भाग (लौकिक जगत् / जिस संसार में हम रहते है) से संबंधित है। पुरुषोत्तम और नारायण उनके गुणों से संबंधित है। महाविभूते और श्रीवैकुंठनाथ उनकी नित्य विभूति (श्रीवैकुंठ) से संबंधित है। श्रीमन् दिव्य महिषियों (पट्टरानियाँ) से संबंधित चूर्णिका से संबध्द है। हमने इन आठ शब्दों का अर्थ पूर्व में भी देखा है।
सत्यकाम – काम शब्द के बहुत से अर्थ है। इसका आशय उस से है, जो कुछ अभिलाषा करता है; इसका आशय अभिलाषा की वस्तु से भी है। इसके अतिरिक्त, काम अर्थात आकांक्षा भी है। पहले, श्रीरामानुज स्वामीजी ने काम शब्द का प्रयोग नित्य विभूति (श्रीवैकुंठ) के संदर्भ में किया था। परंतु यहाँ वे इसका उपयोग भगवान के संदर्भ में करते है, जो प्रकृति, पुरुष और काल के स्वामी है और अपनी अभिलाषा की पूर्ति हेतु इनके साथ क्रीड़ा करते है (जैसा की हमने पूर्व कतिपय अनुच्छेदों में देखा), अर्थात् पूर्व में वह अभिलाषा के विषय में बताता है और यहाँ उसका संदर्भ स्वयं अभिलाषा से है। सत्य अर्थात् उनका नित्य स्वरुप। सृष्टि की वस्तुयें, आत्माएं, उसके आनंद-उपभोग की वस्तुयें, उपकरण जिनसे वह आनंद प्राप्त किया जाता है, समय – जो निर्धारित करता है कि वह आनंद का भोग कब और कैसे करेंगे – यह सब भगवान के लिए क्रीड़ा है। हम सोच सकते है कि जो वस्तु हमें इस संसार से बांधती है (लौकिक संसार), जो हमारे लिए मोक्ष प्राप्त करना दुष्कर बना देती है और जो भगवान को आवरित करके रखती है, वह वस्तु भगवान के आनंद के लिए कैसे है। परंतु यदि भगवान् इन सबकी रचना नहीं करते तब हम कल्पों (युगों) तक अचित्त पदार्थ के साथ उनके दिव्य विग्रह से सदा के लिए लिपटे रहते, उनके निवास, श्रीवैकुंठ तक पहुँचने की कोई आशा किये बिना। क्यूंकि वे संसारों को निर्मित करते रहते है, इसलिए ही वशिष्ट, शुक, वामदेव, आदि संत श्रीवैकुंठ पहुँचने में समर्थ हुए। हम भी यह आशा कर सकते है कि एक दिन इस लौकिक देह को त्यागकर और उनकी कृपा प्राप्त कर श्रीवैकुंठ पहुँच कर उनके श्रीचरणों में कैंकर्य प्राप्त करे। एक कृषक, अनेकों बार विभिन्न कारणों से हानि होने के पश्चाद भी अपनी भूमि पर कृषि करना नहीं छोड़ता। वह उसे इस आशा से करता रहता है कि किसी फसल से तो उसे लाभ प्राप्त होगा, उसी प्रकार जैसे पहले भी कभी हुआ था। भगवान द्वारा सृष्टि रचना/ पालन/ संहार का पुनरावृत्ति कार्य भी उसी समान है।
सत्यसंकल्प – अपने आश्रितों की अभिलाषा पूर्ति के लिए उनके आनंद हेतु अपने संकल्प मात्र से ही विषय की रचना करने की योग्यता। यहाँ सत्य शब्द अपने आश्रितों को कभी निराश न करने की उनकी योग्यता को दर्शाता है। इस कार्य को करने के लिए उनके मार्ग में कोई बाधाएं नहीं है। जब ब्रह्मा (भगवान् की पहली रचना) ने सनक, सनतकुमार आदि की रचना की और उनसे सृष्टि रचना में सहायता मांगी, तब उन्होंने उसे अस्वीकार कर दिया। इसप्रकार ब्रह्मा की रचना व्यर्थ हो गयी। उसीप्रकार जब ब्रह्मा से लुप्त हुए सभी वेद असुरों को प्राप्त हुए, ब्रह्मा ने भगवान के चरणों में गिरकर वेदों की रक्षा और पुनः प्राप्ति के लिए प्रार्थना की। परंतु भगवान की रचना कभी व्यर्थ नहीं होती।
आईए अब हम 8 गुणों के विषय में देखते है।
सत्यकाम – इस शब्द से आशय, भगवान् का सभी नित्य वस्तुओं के स्वामित्व से है, वे वस्तुयें जो उस सृष्टि रचना में सहायक है या उसके पूरक है, जहाँ जीवात्मा भगवान् को प्राप्त करने के पूर्व विभिन्न रूप में जन्म लेती है।
सत्यसंकल्प – अपने संकल्प में दृढ़ रहना, जो कभी व्यर्थ नहीं होता। जब भगवान निश्चय करते है कि इस जीवात्मा को श्रीवैकुंठ प्रदान करना है, तब उनकी इच्छा पूर्ति में कोई बाधक नहीं हो सकता। जीवात्मा की इसमें एक भूमिका है, वह यह कि जीवात्मा को श्रीवैकुंठ प्राप्ति की त्वरित उत्कंठा होना चाहिए।
परब्रह्मभूत – भगवान् की विशालता कल्पना से परे है। वे कितने विशाल है? सम्पूर्ण ब्रह्मांड, अपनी समस्त आकाशगंगाओं सहित भगवान् के दिव्य विग्रह को सूचित करता है (उन्हें ब्रह्म भी कहा जाता है; ब्रह्म शब्द को ब्रह्मा शब्द के साथ भ्रम नहीं करना चाहिए। ब्रह्मा, भगवान् के निर्देशानुसार सृष्टि की रचना करते है, परंतु ब्रह्म स्वयं भगवान् का संबोधन है)। वे इसप्रकार अत्यंत विशाल है। प्रलय के समय में, सभी चित और अचित को अपनी शरण लेते है। सृष्टि के समय वे यह संकल्प लेते है कि “मुझे बहुसंख्यक रूप प्राप्त हो” और इस प्रकार वे स्वयं विभिन्न विषय रूपों में विभाजित हो जाते है, जैसा की हम पहले देख चुके है (प्रकृति, पुरुष, काल, आदि)। यह सभी वस्तुयें उनके दिव्य विग्रह का अंश है। इससे हमें एक कल्पना प्राप्त होती है कि वे कितने विशाल है।
पुरुषोत्तम – पुरुषानाम उत्तम: अर्थात् पुरुषों (चित) में उत्तम। तीन प्रकार के पुरुष होते है – पुरुष:, उत्पुरुष:, उत्तर पुरुष:, और फिर भगवान जो उत्तम पुरुष: है। पुरुष: अर्थात बद्धात्मा, जो इस संसार में बंधे हुए है (लौकिक संसार)। उत्पुरुष: अर्थात मुक्तात्मा, जो इस संसार सागर से छूटकर श्रीवैकुंठ पहुंचे है। उत्तर पुरुष: अर्थात नित्यात्मा, वह जो संसार में कभी जन्मे नहीं और सदा ही श्रीवैकुंठ में निवास करते है (आदिशेषजी, विष्वक्सेनजी, गरुड़जी, आदि)। उत्तम पुरुष: अथवा पुरुषोत्तम, भगवान है, सभी पुरुषों में श्रेष्ठ। यद्यपि वे सभी तीन प्रकार के चित्त जीवों में निवास करते है (बद्ध, मुक्त, और नित्य जीवात्मा) और तीन प्रकार की अचित अवस्थाओं में भी (शुद्ध सत्व, मिश्र सत्व अर्थात सत्व, रज और तम का मिश्रण और काल तत्व अर्थात समय), इनकी अशुद्धता उन्हें प्रभावित नहीं करती। वे अपने आश्रितों की सभी अशुद्धताओं को दूर करते है। इसके अतिरिक्त वे हम सभी में व्याप्त है, वे हम सभी को संभालते है और वे सभी के स्वामी है। वे हमें वह सभी प्रदान करते है जिसकी हम चाहना करते है। वे ही पुरुषोत्तम है।
महाविभूते – सभी विभूतियों (संसारों) के स्वामी। हम पहले ही उनकी विभूतियों के विषय में चर्चा कर चुके है। तब फिर से उन्हें दोहराने का क्या उद्देश्य? पहले हमने देखा विभूतियों में क्या क्या सम्मिलित है। अब वे इस बात पर बल देते है कि भगवान अपनी सभी संपदा प्रदान करेंगे (हम यह गुण पहले औदार्य में देख चुके है)। जब एक आश्रित उनकी चाहना करता है तब भगवान् उसे सब कुछ प्रदान करते है, यहाँ तक की स्वयं को भी प्रदान करते है। वे आश्रित के साथ, श्रीवैकुंठ में, सदा विराजमान रहते है, उसे कैंकर्य अनुभव प्रदान करते है (भगवान के कैंकर्य का उत्तम अनुभव)।
श्रीमन् – भगवान् और श्रीजी दोनों का ही कैंकर्य किया जाता है। जीवात्मा के श्रीवैकुंठ पहुँचने पर और मुक्तामा होने पर, वह भगवान और श्रीजी दोनों का ही कैंकर्य का आनंद प्राप्त करता है।
नारायण – असंख्य कल्याण गुणों के धारक, दोष रहित और इन गुणों को अपने आश्रितों को प्रदान करने वाले जिससे आश्रितों को आनंद और कैंकर्य की प्राप्ति हो। इसलिए, कैंकर्य सदा दिव्य दंपत्ति (भगवान् और श्रीजी) के लिए किया जाता है।
श्रीवैकुंठनाथ – श्रीवैकुंठ के स्वामी, जो कैंकर्य के लिए उपयुक्त स्थान।
उपरोक्त 8 गुणों में से, प्रथम 4 गुण (सत्यकाम, सत्यसंकल्प, परब्रह्मभूत, पुरुषोत्तम) भगवान् के सृष्टि रचना की योग्यता का गुणगान करते है और अगले 4 (महाविभूते, श्रीमन, नारायण, श्रीवैकुंठनाथ) यह महत्त्व बताते है कि भगवान् ही वह परमात्मा है, जिन्हें प्राप्त करना और कैंकर्य के द्वारा प्रसन्न करना ही जीवात्मा का धर्म है। इसप्रकार वे ही रचयिता और आनंद के विषय भी है । अब श्रीरामानुज स्वामीजी भगवान की शरणागति के पहले उनके अन्य 24 गुणों का उल्लेख करते है। अन्य 24 गुणों के वर्णन की क्या आवश्यकता है, जब वे पहले ही इतने सारे गुणों का वर्णन कर चुके है? इसका उत्तर है कि हम उनकी ही शरणागति करते है, जो महान गुणों के धारक है। जिनके शरणागत होना है यदि वे गुण रहित है, तब हम कैसे शरणागति कर सकते है? इसलिए शरणागति से पहले ही उनके सभी गुणों की चर्चा करना प्रथागत है। यहाँ तक कि द्वय महामंत्र में (रहस्य त्रय का एक भाग, जो हमारे आचार्यजन पीढ़ियों से हमें सिखाते है), हम कहते है कि हम श्रीमन्नारायण भगवान् की शरणागति करते है, जहाँनारायण से आशय है वे जिनमें सभी महान गुण विद्यमान है। इसलिए भगवान के गुणों का बारम्बार गुणगान करना असंगत नहीं है।
अगले गुणों में (अपार कारुण्य, सौशील्य, वात्सल्य, औदार्य, ऐश्वर्य सौन्दर्य महोदधे), “अपार ” (महान / असीमित) शब्द का उपयोग सभी 6 गुणों के साथ किया गया है।
अपार कारुण्य – कारुण्य अर्थात कृपालु – जो दूसरों की पीढ़ा को सहन न कर सके। यही अपार कारुण्य कहलाता है, जब भगवान् रावण जैसे राक्षस पर भी कृपा करते है (श्रीलंका में राक्षसों का राजा, जिसने सीताजी का हरण कर प्रभु श्रीराम और सीताजी को अलग किया)– यह दृष्टान्त श्री रामायण में वर्णित है कि जब विभीषण सिन्धु पार कर श्रीराम की शरणागति करने आते है, तब श्रीराम के मित्र वानरराज सुग्रीव कहते कि श्रीराम को विभीषण की मित्रता स्वीकार नहीं करनी चाहिए क्यूंकि विभीषण भी एक राक्षस है और रावण का भाई है। श्री राम उन्हें यह कहकर विश्वास दिलाते है कि यदि स्वयं रावण भी उनकी शरणागति करता, तब वे उसे भी स्वीकार करते। यहाँ पेरियावाच्चान पिल्लै, श्री आचार्य जिन्होंने गद्यत्रय के लिए व्याख्यान की रचना की, उल्लेख करते है कि श्रीरामानुज स्वामीजी यहाँ ऐसा भाव प्रकट करते है कि भगवान् ने उन पर ऐसी कृपा वृष्टि की जिससे उन जैसे निम्न मनुष्य भी गद्यत्रय जैसे रत्न की रचना करने में योग्य हुए (यद्यपि यह पूर्णतः असत्य है, परंतु फिर भी हमारे गुरु आचार्यजन, बिना अपवाद के, स्वयं को निम्न जानते-मानते है, यह एक गुण है जिसे नैच्यानुसंधान कहा जाता है अर्थात् स्वयं को सबसे निम्न जानना-मानना, यद्यपि यह सत्य नहीं है)।
सौशील्य – ऐसी उदारता प्रकट करना जिसमें एक श्रेष्ठ व्यक्ति अपने से निम्न की मित्रता स्वीकार करता है। रामावतार में भगवान ने गुह, सुग्रीव और विभीषण से मित्रता की। यह “अपार सौशील्य “ कहलाता है जब भगवान् मत्स्यावतार, कूर्मावतार, वराहावतार में मत्स्य, कूर्म, वराह क्रमशः आदि से मित्रवत होते है, स्वयं को उन के समान प्रकट करने के लिए।
वात्सल्य – भगवान् का वह गुण जिसमें वे अपने आश्रितों के दोषों को भी उनके सद्गुण जान कर उनसे प्रीति करते है। अपार वात्सल्य से यहाँ संदर्भ है उस गुण से जिसके कारण भगवान् अपने शत्रुओं से भी वात्सल्य से व्यवहार करते है। उदहारण के लिए, भगवान ने युद्ध में रावण का संहार किया जिससे वह और अपराध न कर सके ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार एक माता शीघ्रता से अपने बलाक के हाथ से छड़ी छुडा लेती है ताकि बालक स्वयं को चोट न लगा ले।
औदार्य – भगवान अपने स्वरुप अनुसार ही अपने आश्रितों (जो उनके शरणागत है) को उनके सभी इच्छित प्रदान करते है। अपार औदार्य अर्थात् इतना सब इच्छित प्रदान करने के पश्चाद भी यह ग्लानी करना की वे अपने आश्रितों को कुछ भी प्रदान नहीं कर पाए। कृष्णावतार में भी उन्होंने यह गुण प्रकट किया और ग्लानिभाव से कहते है कि धृतराष्ट्र की सभा में वस्त्र हीन होने पर शरणागति करने वाली द्रौपदी के लिए कुछ न कर सके। भगवान् ने उनके पतियों (पांच पांडवों) का पक्ष लेकर उन्हें उनका राज्य लौटाया। परंतु फिर भी वे ग्लानी भाव से कहते है उसके रुदन के उपरान्त भी वे उसकी सहायता नहीं कर सके।
ऐश्वर्य – ऐसी संपत्ति जिससे वे अपने आश्रितों को उनके इच्छित प्रदान करते है। अपार ऐश्वर्य अर्थात् अपने आश्रितों को इतना अधिक प्रदान करना जिससे वे आश्रितजन अन्य की भी सहायता कर पायें।
सौंदर्यम् – सुंदरता। अपार सौन्दर्यं अर्थात् ऐसी सुंदरता की शत्रु भी मोहित हो जाये (जैसे रामावतार में सुर्पनखा, रावन की बहन)। जब श्रीराम विभिन्न ऋषियों से भेंट करने के लिए वन वन विचरण करते है (14 वर्ष के वनवास में) तब ऋषिजन उनके रूप पर मोहित हो जाते थे। ऐसा उनका सौंदर्य था। वे अपने रूप से सभी देखनेवालों के मन और विचारों को चुरा लेते थे।
महोदधे – महान सिन्धु। भगवान में ऐसे गुण है जो सबसे बड़े सिन्धु से भी अधिक बड़े है।
हिंदी अनुवाद- अडियेन भगवती रामानुजदासी
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