श्री:
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवर मुनये नमः
श्लोक ७
अम्भोजबीजमालाभिरभिजातभुजान्तरम ।
ऊर्ध्वपुण्ड्रैरूपश्लिष्टमुचितस्थानक्षणैः ॥ ७ ॥
अम्भोजबीजमालाभि – कमल के मणियों से माला का प्रबन्ध करना ,
अभिजातभुजान्तरम – सुन्दर हस्तकमल और वक्षस्थल में सुशोभित ,
उचितस्थान लक्षणैः – यज्ञोपवीत धारण करने की सही जगह ( कमर के नीचे भी नहीं और उपर भी नहीं )
ऊर्ध्वपुण्ड्रै – उचित ढंग से नीचे से ऊपर की ओर चिन्हाकिंत ।
देवराज गुरुजी ने हस्तकमल, वक्षस्थल और यज्ञोपवीत के बारे में वर्णन करने के बाद अब स्वामीजी धारण किए हुये कमलाक्षमाला और ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक का वर्णन कर रहे है । भारद्वाजमुनी के अनुसार हर एक व्यक्ति को कमलाक्षमाला, दोनों बाहों पर शंख – चक्र धारण करना और भगवान का या भगवान के दासों का नाम रखना चाहिये । पराशर मुनी कहते है ब्राम्हणों को शिखा रखना ,यज्ञोपवीत, ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक, कमलाक्षमाला और रेशम वस्त्र को धारण करना चाहीये । कमलाक्षमाला उपलब्ध नहीं है तो तुलसी की माला और विभिन्न रंगों से बनी हुयी रेशम की माला को धारण करना । ब्रह्म पुराण में आता है काले तुलसी मणियों की माला, रेशम की पवित्रा और कमलाक्षमाला को भगवान को धारण कराकर प्रसाद के रूप में धारण करे ।
श्रीपांचरात्र पराशर संहिता में ब्राम्हण को तिलक कैसे धारण करना चाहिये इसका वर्णन किया गया है – नाक के ऊपर एक इंच रेखा सिंहासन के रूप में, मस्तक के मध्य भाग में देढ़ इंच के अंतर पर दो रेखायें दोनों रेखाये एक इंच जाड़ी होनी चाहिये । पद्म पुराण में कहा गया है कि नाक से आरम्भ होकर मस्तक के अंत तक तिलक धारण करना चाहीये । भौहों के मध्य भाग से दोनों रेखाओं के बीच में दो इंच जगह होनी चाहिये और दोनों रेखायें एक इंच जाड़ी होनी चाहीये । पराशर संहीता में कहा गया है तिलक करने के लिये उपयोग किये जानेवाले सफ़ेद द्रव्य को विष्णु क्षेत्र से तिरुमंत्र के अनुसंधान करते हुये इकट्टा करना चाहीये । मस्तक पर पहीले धारण करके शरीर के अन्य द्वादश स्थानों पर धारण करना चाहीये । तिलक के साथ श्रीचुर्ण की लाल सिरी को मध्य भाग में धारण करना । श्रीचूर्ण हल्दी से बना हुआ होना चाहीये जो कि श्रीदेवी अम्माजी को अत्यन्त प्रिय है ।
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