पूर्वदिनचर्या – श्लोक – ६

श्री:
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवर मुनये नमः

परिचय

श्लोक  ५                                                                                                                       श्लोक  ७

श्लोक  ६

मृणालतन्तुसन्तान संस्थानघवलत्विषा ।
शोभितं यज्ञसुत्रेण नाभिबिम्बसनाभिना ॥ ६ ॥

मृणालतन्तुसन्तान संस्थानघवलत्विषा    – कमल की रेशेदार जड़ में लगातार धागे की तरह शानदार सफ़ेद ,
शोभितं                                                  – सुशोभित ,
यज्ञसुत्रेण                                              –  पवित्र धागे से ,
नाभिबिम्बसनाभिना                              –  वृत्त के आकार की नाभि से जो सुशोभित है ।

इस श्लोक में स्वामीजी के सीने पर सुशोभित यज्ञोपवीत का वर्णन किया जाता है , जो कि सफ़ेद ताजा कपास से बनाया जाता है । मनुस्मृती के एक विद्वान मेधथिती भी कहते हैं की संतोंको दांत, जलपवित्र (जल छानने क वस्त्र), और पवित्र धागासदैव शुद्ध सफेद रखना चाहिये।  महर्षियोंने बताया है की पवित्र धागा निम्न नामोंसे जाना जाता है-उपवीत(पवित्र धागेसे दिक्षीत), ब्रह्मसुत्र (कन्धोंपर धारण किया हुवा पवित्र धागा), सुत्र (धागा), यज्ञोपवीत( पवित्र धागा), और देवलक्ष्य (ब्राह्मणोंका धागा). एकवचनी शब्दसे प्रतीत होता है की संतोंका पवित्र धागा तीन धागोंका जुटाव होता है। व्यास एवं भारद्वाज ऋषियोंने आज्ञा कि है कि सन्यासी के लिये एक धागा, ब्रह्मचारी के लिये मृगचर्म बान्धा हुवा एक धागा, गृहस्थ तथा वानप्रस्थ (जो अपनी पत्नी के साथ वन में रहते हैं) के लिये उत्तरीय के रूप मैं दो धागोंके साथ और एक धागा होना चाहिये, अर्थात् कुल तीन धागे होने चाहिये । महर्षी बताते हैं की, जिनका यज्ञोपवीत नाभी के उपर तक ही रहता है, उनको कम आयु प्राप्त होती है । जिनका यज्ञोपवीत नाभी के नीचेतक रहता है, उनकी प्राप्त कि हुयी सभी शक्तियां नष्ट हो जाती है । अत: समझदार व्यक्ति को चाहिये की यज्ञोपवीत ठीक नाभीतक ही चाहिये ।

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