श्री:
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवर मुनये नमः
श्लोक ११
आत्मलाभात्परं किच्चिदन्यन्नास्तीती निश्चयात् ।
अंगीकर्तुमिव प्राप्तमकिज्चनमिमं जनम् ॥११॥
आत्मलाभात् – भगवान जीवात्माओं को सेवक के रूप में प्राप्त करने के लिये अधिक से अधिक दिलचस्पी रखते है,
अन्यत किंचित – उसके अलावा,
परम नस्ती – अधिक लाभ नहीं,
इति निश्चित – लगातार विचार करना,
अकिंचनम – स्वीकार करने के लिये कोई अच्छे गुण नहीं है,
इमं जनम् – मै बुरे गुणों से भरा हूँ, उन्हे मिटाना चाहीये ,
अंगीकर्तु – अपनी गलतियों को सुधारकर भगवान श्रीमन्नारायण का दास बनकर रहूँगा,
प्राप्तम इव – यह उम्मीद नहीं थी की आप स्वयं दौरा करेगें ।
मुस्कुराहट, मधुरवचन और सौम्य नजर का वर्णन पिछले श्लोक में करते है, और यहाँ पर देवराज मुनि बता रहे है की जब में मंदिर जाता हूँ तब मेरे लिये स्वामीजी मन्दिर आते है । स्वामीजी के साथ मेरा सम्बन्ध स्वाभाविक नहीं है । जन शब्द का अर्थ होता है उसका जन्म हुआ था, अकिचंन का अर्थ है वह चरीत्र हीन है । इमं का अर्थ होता है सभी गलतियों के स्वामी । इमं शब्द का अर्थ संगीत की ध्वनि पर आधारीत है । इस प्रकार देवराज मुनि अपने आप को कहते है की अन्न खाकर पृथ्वी के लिये एक अतिरीक्त भार के रूप में हूँ और अपने जन्म को व्यर्थ बता रहे है क्योंकि अपने चरीत्र को सुधारने का प्रयास भी नहीं किये । वे इतने दिन – हिन होने के बावजूद भी वरवरमुनि स्वामीजी ने कृपा करके उन्हे अपनाया, इसलिये “ प्राप्तमिव ” शब्द में ‘इव’ शब्द उपमा को नहीं, अनुमान को संबोधीत करता है ।
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