श्री:
श्रीमते शठकोपाये नम:
श्रीमते रामानुजाये नम:
श्रीमदवरवरमुनये नम:
श्लोक 5
नेतृत्वं नित्ययोगं समुचितगुणजातं तनुख्यापनम् च उपायं
कर्तव्यभागं त्वत् मिथुनपरम् प्राप्यमेवम् प्रसिद्धं ।
स्वामित्वं प्रार्थनां च प्रबलतरविरोधिप्रहाणम दशैतान
मंतारम त्रायते चेत्यधिगति निगम: षट्पदोयम् द्विखण्ड: ।।
अर्थ
यह श्लोक, मंत्रो में रत्न, द्वय महामंत्र का विवरण प्रदान करता है। द्वय के दो अंग और छः शब्द है। इसमें दस अर्थ निहित हैं। १) जीवात्मा को भगवान द्वारा निर्धारित मार्ग में प्रशस्त करना २) भगवान और श्रीमहालक्ष्मी से नित्य मिलन की स्थिति ३) दिव्य गुण समूह, जो केवल परमात्मा के ही अनुकूल है ४) ईश्वर का अत्यन्त सुन्दर स्वरूप ५) उपाय स्वरुप अर्थात परमात्मा तक पहुंचने का मार्ग ६) चेतन/ जीवात्मा के कर्त्तव्य ७) श्रीमहालक्ष्मी संग उपस्थित भगवान श्रीमन्नारायण के प्रति कैंकर्य ८) अत्यंत सुंदर संबंध, जो सत्य है ९) उनके कैंकर्य की प्रार्थना १०) कैंकर्य के विघ्न, बाधाओं से मुक्ति। वैदिक शास्त्र में निपुण लोगों का मानना है कि द्वय मन्त्र के इन अर्थो का निरंतर ध्यान करने से प्रपन्न की रक्षा होती है।
श्लोक 6
इशानाम् जगथामधीशदयिताम नित्यानपायां श्रियं
संश्रित्ठयाश्रयणोचित अखिलगुणस्याङ्ग्रि हरेराश्रये ।
इष्टोपायतया श्रियाच सहितायात्मेश्वरायार्थये
कर्तुं दास्यमसेशमप्रतिहतम नित्यं त्वहं निर्मम: ।।
अर्थ
इस श्लोक में, श्री लक्ष्मीजी के माध्यम से भगवान का कैंकर्य प्राप्त करने की प्रार्थना की गयी है। मैं इस ब्रह्माण के स्वामी के चरणों में श्रीमहालक्ष्मीजी के माध्यम से आश्रय लेता हूँ, जो उन स्वामी से सम्पूर्ण रूप से प्रीति करती है। मेरे आश्रय को स्वीकार करने के वाले वे सभी गुणों से संपन्न है और मेरे मोक्ष, जो उनके द्वारा ही प्रदत्त है, के लिए मेरे एकमात्र साधन है।
– अडियेन प्रीती रामानुज दासि
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