श्री:
श्रीमते शठकोपाये नम:
श्रीमते रामानुजाये नम:
श्रीमदवरवरमुनये नम:
नारायण ऋषि , नर ऋषि को तिरुमंत्र का उपदेश प्रदान करते हुए (दोनों ही श्रीमन्नारायण भगवान के अवतार है)
श्लोक 1
अकारार्थो विष्णुः जगदुध्यरक्षा प्रळयकृत
मकारार्थो जीव: तदुपकरणम् वैष्णवमिदम ।
उकारो अनन्यार्हम नियमयति संबंधमनयो:
त्रयी सारस्त्रयात्मा प्रणव इमामर्थम् समधिष्ठ ।।
अर्थ
सृष्टी, स्थिति एवं संहार, तीनों करने वाले साक्षात भगवान विष्णु ही तिरुमंत्र में “अ” अक्षर का अर्थ है। “म” अक्षर चेतनो को,जीवों को दर्शाता है, जिनके अनुभव के लिए सारी सृष्टि उपकरण हैं। अक्षर “उ”, इन दोनों के मध्य के विशेष संबंध को प्रस्तुत करता है, जो किसी भी अन्य के समान नहीं है। इसप्रकार, ॐ शब्द, जो प्रणव है, सभी वेदों के सार को स्थापित करता है।
श्लोक 2
मन्त्रब्रह्मणि मध्यमेन नमसा पुंस स्वरूपं गति:
गम्यम् शिक्षितमीक्षितेन परत: पश्चादपि स्थानत:।
स्वातंत्र्यम् निजरक्षणम् च समुचिता वृत्तिश्च नांयोचित
तस्यैवेति हरेर्विवीच्य कथितं स्वस्यापि नारहं तत : ।।
अर्थ
तिरुमंत्र के मध्य में उपस्थित “नम:” शब्द द्वारा जीव की गति, उस गति का साधन तथा जीव का स्वरूप, इन त्रय विषयों को दर्शाया गया है। स्वतंत्रता, स्वरक्षण, और भगवान के अलावा अन्यों से अनुकूलता न रखना, उपरोक्त बताये स्वरुप गुणों को प्रकट करते हुए जोर देता है कि भगवान के शेषभूत होते हुए भी, जीवात्मा को इस आनंद अनुभव का कोई भान नहीं है।
श्लोक 3
अकारार्थायैव सवमहमथ मह्यं न निवहा:
नराणाम् नित्यानामयनमिति नारायणपदम् ।
यमाहास्मै कालम सकलमपि सर्वत्र सकलासु
अवस्थास्वावि:स्युः मम् सहज कैंकर्यविधय: ।।
अर्थ
मैं भगवान का हूँ, अपना नहीं हूँ। “नारायण” शब्द दर्शाता है कि जीवात्माओं एवं क्षर विषय सारों के लिए मात्र भगवान ही परम गति है। भगवान के प्रति कैंकर्य जीवात्मा का नैसर्गिक स्वभाव है। वह यह भी समझाता है कि हर काल, हर अवस्था में उनका कैंकर्य करना ही स्वभाव है।
श्लोक 4
देहासक्तात्मबुद्धिर्यदि भवति पदम् साधु विद्यात्तृतीयं
स्वातंत्र्यान्धो यदिस्यात् प्रथममित्रश्शेषत्वधिश्चेत द्वितीयं ।
आत्मत्रहाणोन्मुखस्चेन्नम इति च पदम् बांधवाभासलोल:
शब्दं नारायणाख्यम् विषयचपलधीश्चेत चतुर्थीम प्रपन्न: ।।
अर्थ
इस श्लोक में प्रपत्ति मार्ग को अपनाने वाले, भगवान के शरणागत मुमुक्षुओं, जिन्होंने अपने मोक्ष के उपाय स्वरुप भगवान को अपना सम्पूर्ण आश्रय स्वीकार किया है, उनकी शंकाओं के निवारण के लिए कुछ स्पष्टीकरण प्रदान किये गए है। जब भी देह और आत्मा के भेद के विषय में शंका उत्पन्न हो, तब तृतीय अक्षर “म” की ओर देखकर उस शंका का निवारण करना चाहिए। उसके द्वारा यह समझा जा सकता है कि निंद्रा अथवा म्रत्यु के समय देह का बोध नहीं रहता है, देह आत्मा से भिन्न है। इसलिए वह ज्ञान का आधार नहीं है। एक बार यह ज्ञात होने पर कि देह नहीं अपितु आत्मा ही ज्ञान का आधार है, वह इस तत्व को भी जान सकता है कि आत्मा स्वयं स्वतंत्र नहीं है अपितु भगवान द्वारा पोषित है, जैसा “अ” अक्षर द्वारा प्रकटित है। एक बार यह ज्ञात होने पर कि आत्मा, भगवान नारायण की संपत्ति है, वह यह भी जान जायेगा की द्वितीय अक्षर “उ” भी यही दर्शाता है कि जीवात्मा मात्र उनकी ही दास है। जब स्वयं के रक्षण की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है, तब “नमः” पद के अर्थों को देखना चाहिए, जिसका अर्थ है “मेरा नहीं”। लौकिक संबंधों के प्रति उत्पन्न भ्रम की स्थिति में उसके द्वारा समझा जा सकता है कि यह सभी संबंध क्षणिक और अनित्य है और केवल भगवान के साथ संबंध ही नित्य है। जब सांसारिक मोह उत्पन्न हो, तब वह चतुर्थ अक्षर “आय” का ध्यान कर, भगवान के प्रति कैंकर्य ही जीवात्मा का स्वरुप है, उसका स्मरण करके सांसारिक बंधनों से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है।
– अडियेन प्रीती रामानुज दासि
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