यतिराज विंशति – श्लोक – ७

श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनय् नमः

यतिराज विंशति     

श्लोक  ६                                                                                                                               श्लोक  ८

श्लोक  ७

वृत्त्या पशुर्नवपुस्तवहमीद्वशोऽपि श्रुत्यादि सिध्द निखिलात्मगुणा श्रयोऽयम् |
इत्यादरेण कृतिनोऽपि मिथप्रवक्तुमध्यापिवंचनपरोऽत्र यतीन्द्र वर्ते || ७ ||

यतीन्द्र अहं तु                    : हे श्रीरामानुज! मैं तो
नर वपु:                             : मनुष्य शरीर वाला हूँ तो भी
वृत्त्या पशु:                        : अपनी करनी से जानवर ही हूँ
ईद्वश: अपि                      : यध्यपि मैं ऐसा हूँ; तो भी
अत्र अध्य एपीआई             : इस संसार में आज भी
वञ्चनपर: वर्ते                   : इतना वञ्चक ठग हूँ कि
कृतिन: अपि                      : अभिज्ञों महानुभावों को भी
आदरेण                             : आदर के साथ
मिथ: प्रवक्तुम् अयं            : परस्पर यह बोलने को बाध्य करता हूँ कि यह
श्रुति- आदि- सिद्ध-              : श्रुत्यादि में सिद्ध
निखिलात्मगुणाश्रय: इति    : सभी आत्मगुणों का आश्रय है |

पिछले श्लोक में स्वनिकर्ष का अनुसन्धान जो आरब्ध हुआ वह अनुवृत्त होता है| यध्यपि मैं मनुष्य योनि में पैदा होकर मनुष्य शरीर के साथ दिखाई देता हूँ, मेरा आचरण इतना गया बीता है कि उसमें और पशुओं की वृत्ति में कोई भेद नहीं| “ज्ञानेन हीन: पशुभि: समान:” ज्ञान के अनुभव तथा अनुष्ठान के वैकल्य से मैं जानवरों के समान हूँ| यध्यपि वास्तव में यही मेरी स्थिति है, मैं इस तरह का ढोंगी भक्त बना फिरता हूँ कि अभिज्ञ लोग भी मुझे देख कर बोलते हैं कि वेद-वेदान्त-वेदाड्गों में प्रतिपादित सभी आत्मगुणों की ये खान हैं| यह है इनका नैच्यानुसन्धान|

वृत्त्या पशु: – आहार निद्रा आदि में भी कोई नियम मैं नहीं रखता|

कृतिनोऽपि मिथ: प्रवाक्तुम् – यह प्रथमा विभक्ति का बहुवचन नहीं| क्योंकि उसका अन्वय ‘वर्ते’ क्रिया से नहीं हो सकता| इसको कर्म कारक बहुवचन मान कर, ‘प्रवक्तुं’ को (अन्तर्भावित-णिच्) प्रेरणार्थक समझा जा सकता है| ‘प्रवक्तु:’ ऐसा भी पाठ कोई कोई कहते हैं || ७ ||

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