श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनय् नमः
श्लोक ७
वृत्त्या पशुर्नवपुस्तवहमीद्वशोऽपि श्रुत्यादि सिध्द निखिलात्मगुणा श्रयोऽयम् |
इत्यादरेण कृतिनोऽपि मिथप्रवक्तुमध्यापिवंचनपरोऽत्र यतीन्द्र वर्ते || ७ ||
यतीन्द्र अहं तु : हे श्रीरामानुज! मैं तो
नर वपु: : मनुष्य शरीर वाला हूँ तो भी
वृत्त्या पशु: : अपनी करनी से जानवर ही हूँ
ईद्वश: अपि : यध्यपि मैं ऐसा हूँ; तो भी
अत्र अध्य एपीआई : इस संसार में आज भी
वञ्चनपर: वर्ते : इतना वञ्चक ठग हूँ कि
कृतिन: अपि : अभिज्ञों महानुभावों को भी
आदरेण : आदर के साथ
मिथ: प्रवक्तुम् अयं : परस्पर यह बोलने को बाध्य करता हूँ कि यह
श्रुति- आदि- सिद्ध- : श्रुत्यादि में सिद्ध
निखिलात्मगुणाश्रय: इति : सभी आत्मगुणों का आश्रय है |
पिछले श्लोक में स्वनिकर्ष का अनुसन्धान जो आरब्ध हुआ वह अनुवृत्त होता है| यध्यपि मैं मनुष्य योनि में पैदा होकर मनुष्य शरीर के साथ दिखाई देता हूँ, मेरा आचरण इतना गया बीता है कि उसमें और पशुओं की वृत्ति में कोई भेद नहीं| “ज्ञानेन हीन: पशुभि: समान:” ज्ञान के अनुभव तथा अनुष्ठान के वैकल्य से मैं जानवरों के समान हूँ| यध्यपि वास्तव में यही मेरी स्थिति है, मैं इस तरह का ढोंगी भक्त बना फिरता हूँ कि अभिज्ञ लोग भी मुझे देख कर बोलते हैं कि वेद-वेदान्त-वेदाड्गों में प्रतिपादित सभी आत्मगुणों की ये खान हैं| यह है इनका नैच्यानुसन्धान|
वृत्त्या पशु: – आहार निद्रा आदि में भी कोई नियम मैं नहीं रखता|
कृतिनोऽपि मिथ: प्रवाक्तुम् – यह प्रथमा विभक्ति का बहुवचन नहीं| क्योंकि उसका अन्वय ‘वर्ते’ क्रिया से नहीं हो सकता| इसको कर्म कारक बहुवचन मान कर, ‘प्रवक्तुं’ को (अन्तर्भावित-णिच्) प्रेरणार्थक समझा जा सकता है| ‘प्रवक्तु:’ ऐसा भी पाठ कोई कोई कहते हैं || ७ ||
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