श्रीः
श्रीमते शटकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनय् नमः
श्लोक ४
नित्यं यतीन्द्र! तव दिव्यवपुस्स्मृतौ मे सक्तं मानो भवतु वाग्गुण कीर्तनेऽसौ |
कृत्यं छ दास्यकरणं तु करद्वयस्य वृत्तयंतरेऽस्तु विमुखं करणत्रयं च |४|
यतीन्द्र! में मन: नित्यं : हे यतिराज! मेरा मन सदा
सक्त दिव्यवपु:स्मृतौ : आपके दिवि रूप के चिन्तन में
तव गुणकीर्तन सक्ता भवतु : आपके गुणानुवाद के गाँ करने में लगी रहे
कर द्वययस्य कृत्यं : दो हाथो का कार्य
तव दास्य करणं भवतु : आपकी सेवा करना हो,
करणत्रयञ्च : इस प्रकार मन, वाणी और शरीर
वृत्त्यन्तरे विमुख अस्तु : आँय व्यापार से विमुख हों |
इस श्लोक में आचार्य ने यह इच्छा प्रकट की है की मन, वाणी और शरीर यतिराज की सेवा में लगे रहें| मन यतिराज के दिव्य रूप के चिन्तन में लग जाय| वाणी उनके गुणानुवाद में अनुरक्त हो जाय| हाथ उनकी सेवा में लग जायँ| और किसी कार्य में मन वाणी तथा शरीर न लगें यह अभिलाषा आचार्य ने श्लोक के अंतिम चरण में व्यक्त की है|
श्री एम्बार के एक पध्य से भी प्रथम पाद का भाव प्रकट होता है| आचार्य ने भी “आर्तिप्रबंध” में ऐसा ही भाव वर्णन किया है| अन्य स्थलों पर भी ऐसी उक्तियाँ मिलती हैं| दूसरे पाद में आत्मसम्बन्धी गुणों का कीर्तन करने की बात काही गई है| ये गुण हैं दया, क्षांति, उदारता आदि| इनमें दया की प्रधानता है| आँय सारे गुण इसी में सामाविष्ट हो जाते हैं| इसके साथ-साथ वात्सल्य, सौशील्य आदि गुणों का कीर्तन भी यहाँ पर अभीष्ट है| तृतीय पाद में कोई कोई ‘दास्य करण’ के स्थान पर दास्यकरणे पाठ करते हैं| वास्तव में शुद्ध पाठ दास्यकरणं ही है| ‘दास्यकरणं कृत्यं भवतु’; इस तरह समानाधिकरण से अन्वय ही ठीक होगा|
यहाँ पर यह शङ्का हो सकती है कि यतिराज के रूप एवं गुणों का चिंतन – कीर्तन आज किया जा सकता है किन्तु यतिराज की सेवा प्राप्त नहीं हो सकती, क्योंकि उनके वैकुण्ठधाम वापिस गए इतना समय व्यतीत हो गया| इसका समाधान यही है कि यहाँ पर यतिराज की मूर्तियों की सेवा करने का भाव ग्रहण करना होगा| श्लोक के पहिले तीन पादों मेम जो कुक अन्वय रूप से कहा गया है वही चतुर्थ पाद में व्यतिरेक रूप से कहा गया है || ४ ||
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