यतिराज विंशति – श्लोक – ३

श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनय् नमः

यतिराज विंशति     

श्लोक २                                                                                                                         श्लोक ४

श्लोक  ३

वाचा यतीन्द्र! मनसा वपुषा च यष्मत्पादारविंदयुगलं भजतां गुरूणाम्
कूराधिनाथ कुरूकेश मुखाध्यपुंसां पादानुचिंतन परस्सततं भवेयम् ||

हे यतीन्द्र !                                      : हे यतिराज
मनसा वाचा वपुषा च                       : मन, वाणी एवएं कर्म से
युष्मत् पादारविन्द युगलं                 : आपके दो चरणकमलों की
भजताम् गुरूणाम्                            : सेवा करने वाले गुरूओं के
कूराधिनाथ कुरूकेश मुखाध्यपुंसाम्   : जिनसे कूराधीश, कुरूकेश आदि प्रधान हैं
पादानुचिंतनपर:                              : चरणों का चिन्तन  करने वाला
सततं भवेयम्                                 : निरंतर होऊँ |

श्रीरामानुजनूत्तंदादी के एक पध्य को जिसका भाव ऐसा ही है, ध्यान में रखकर आचार्य ने इस श्लोक की रचना की है| श्रीरामानुज के चरणकमलों की स्तुति करने की अपेक्षा उनके भक्तों के चरणकमलों की स्तुति करना बढ़ कर है, यही उक्त गाथा का सारांश है| इस श्लोक से भी यही प्रकट होता है| भगवान को प्रसन्न करने के लिए सीधे भगवान की स्तुति न कर भगवद्भक्तों की स्तुति करना शास्त्रीय मार्ग है| उसी प्रकार यहॉँ भी समझ लेना होगा|

मनसा वाचा वपुषा भजताम् – यतिराज की मन, वाणी एवं अनुष्ठान के द्वारा भक्ति करने वाले थे श्रीकूरेश, श्रीकुरूकेश्वर आदि महानुभाव, मन से वे यतिराज के दिव्य गुणों का चिन्तन कराते थे तथा उनके दिव्यमंगलविग्रह का ध्यान करते थे| वाणी से वे यतिराज की स्तुति करते थे| अपनी देह के द्वारा वे यतिराज की सेवा करते थे| ऐसे महानुभावों का चिन्तन करने से वैसी ही भावना का आविर्भाव होगा जैसी कि उनके हृदय में थी| इस श्लोक में वैयाकरण ऐसी शंका कर सकते हैं कि ‘युष्मत्पादारविंद’ के स्थान पर त्वत्पादारविंद होना चाहिए था किन्तु आचार्य श्रीपराशरभट्ट ने अपने श्रीगुणरत्नकोश के अन्तिम श्लोक में ऐसा ही शब्द प्रयोग उपस्थित कर आचार्य को मार्ग प्रदर्शित किया था| “युष्मत्पादसरोरूहांतररज: स्याम त्वमम्बा पिता|” अत: ऐसे शब्द प्रयोग में आचार्य अपने पूर्वाचार्यों के ही अनुगामी थे ||३||

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