श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनय् नमः
श्लोक ८
दु:खावहोऽहमनिशं तव दुष्टचेष्ट: शब्दादि भोगनिरत: शरणागताख्य: |
त्वत्पादभक्त इव शिष्टजनौघमध्ये मिथ्या चरमि यतिराज ततोऽस्मि मूर्ख: || ८ ||
यतिराज! अहं : हे रामानुज! मैं
दुष्ट चेष्ट: : बुरे आचरण वाला हूँ;
शब्दादि भोग निरत: : शब्दादि विषय भोग में रत हूँ;
शरणागताख्य: अनिशं तव : ‘शरणागत’ अर्थात् ‘प्रपन्न’ नाम धर कर भी सदा आप (के हृदय)
को
दु:खवह: : दु:ख पहुँचाता रहता हूँ ;
शिष्ट-जन-ओघ-मध्ये : शिष्ट लोगों के समूह के मध्य में
त्वत्पाद भक्त इव : आपके चरणों के भक्त की तरह
मिथ्या चरमि : झूठमूठ घूमता फिरता रहता हूँ
तत: मूर्ख अस्मि : इसलिये मैं एक मूर्ख ही हूँ|
हे स्वामीन्! मैं आपका दास हूँ तो भी मैं बुरा चाल चलन रखता हूँ और शब्दादि विषयों के अनुभव करने में लगा हूँ| नाम मात्र के लिए मैं शरणागत हूँ| अपनी इस करनी से मैं सर्वदा मन को दु:ख पहुँचा रहा हूँ| इस प्रकार रहने के कारण यध्यापि आपके भक्त समूह की और झाँकने तक की योग्यता नहीं, तो भी ऐसा ढोंग रचता हूँ मानो मैं आपके चरणों में पारमार्थीक प्रेम रखता हूँ और विलक्षण महापुरूषों की गोष्टी में ढोंगी बनकर ही फिरा करता हूँ| लीजिए, यह मेरी मूर्खता है|
दु:खावहोऽहं – आपकी दया के योग्य हूँ| मेरा दु:ख देख कर आप खुद पसीज कर मुझ पर दया कीजिए || ८ ||
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