श्री:
श्रीमते शठकोपाय नम:
श्रीमते रामानुजाय नम:
श्रीमत् वरवरमुनये नम:
ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) ३ ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) ५
पासुर ४
मट्रोन्ड्ऱै एण्णादे मादवनुक्कु आट्चेयले
उट्रदु इदुवेन्ड्रु उळम् तेळिन्दु – पेट्र
पेरुम् पेट्रीन् मेल् उळदो पेरु एन्ड्रु इरुप्पार्
अरुम् पेरु वानत्तवर्क्कु
शब्दार्थ:
एण्णादे: वह जो ध्यान नहीं देता अथवा गौर नहीं करता, मट्रोन्ड्ऱै = सांसारिक/भौतिक ईच्छा, एन्ड्रु उळम् तेळिन्दु = स्पष्ट रूप से सोचते हैं, एन्ड्रु इरुप्पार् = निर्धारपूर्वक रहता है, आट्चेयले = सेवा करने के लिए, मादवनुक्कु: श्री लक्ष्मी अम्माजी सहित भगवान माधव, इदु उट्रदु = उपयुक्त बात है, पेरु मेल् उळदो: और इससे और उत्तम कोई फल नहीं, पेट्र पेरुम् पेट्रीन् = भगवान की सेवा करनेका आभ मिल गया हो, अरुम् पेरु = ऐसे महात्मा अतिशय कीमती और दुर्लभ दासानुदास माने जाते हैं, वानत्तवर्क्कु = नित्यसूरियोंद्वारा
प्रस्तावना:
प्रथम तीन पाशुरोंका संक्षेपमें भाव: प्रथम पाशूर में (ऊन उड़ल), द्वय महामंत्र के प्रथम खण्ड में वर्णित शरणागति का हत्त्व प्रतिपादित किया है।’ जीव के शरणागति करनेका कारण है संसार बंधन से होनेवाले अपार दु:ख। ऐसे दु:ख का वर्णन परभक्ति के आधार पर द्वितीय पाशूर (नरागमुम सुवरगमुम) में किया गया है।तृतीय पाशूरमें “परम-भक्ति” की अवस्था बताई गई है जिसमें भगवान से विलग होनेपर प्राण निकलनेकी अवस्था हो जाती है (अनै इडर कड़िन्द) (गजेंद्र)। अब इस चतुर्थ पाशूर में श्री देवराजमुनी स्वामीजी उनका वैभव गाते हैं जिनको अपने जीवन का अंतिम लक्ष्य भगवान, श्री लक्ष्मी अम्माजी और उनके आश्रितोंका केंकर्य है ऐसा जंच गया है जो श्री द्वया महामंत्र के द्वितीय खण्ड में वर्णित है। जिन्होनें इतर फल से अपना संबंध नष्ट कर दिया है, और जिन्होंने परम निर्धार पूर्वक जीवात्मा के स्वरूपनुरूप केंकर्यमें अपने आप को लगा दिया है।
स्पष्टीकरण:
मट्रोन्ड्ऱै एण्णादे: इसका अर्थ है (अपने सांसारिक भौतिक इच्छाओंकी ओर गौर ना करते हुये) भगवान को आनंद मिले ऐसा कार्य कैंकर्य कहलाता है। यही हमारे जीवन का एकमात्र परम उद्देश्य है। इस से बढ़कर नहीं है| ऐसे कैंकर्य छोडकर इतर विषय पर ध्यान नहीं देना यही इस पद का अर्थ है।वो इतर विषय हैं: संसार, स्वर्ग आदि में रुचि होना, कैवल्य (आत्मानुभव) में रुचि होना; यह कैंकर्य से संबन्धित नहीं हैं। कोई कैवल्य को ही मोक्ष समझते हैं। परंतु, यह हमें भगवत भागवत आचार्य कैंकर्य में कोई सहायता नहीं करता इसलिए श्री देवराज मुनी स्वामीजी ने इसे “इतर विषय” ऐसे संबोधित किया है।कैंकर्य में बाधक इन विषयोंका विचार भी श्री स्वामीजी नहीं करना चाहते हैं, इसलिए उन्होनें इसे “इतर” कहकर छोडदिया है। और तो और, वो “इतर विषयोंकि इच्छा नहीं करना” इससे भी बढ़कर कहते हैं, “इतर विषयोंके संदर्भ में विचार भी नहीं करना”।इसका कारण है, ऐसा व्यक्ति इन विषयोंका विचार भी नहीं करेगा, इच्छा करनेकी तो बात ही दूर है। अत: उन विषयोंकि कोई पात्रता ना समझते हुये वो व्यक्ति उन विषयोंका विचार भी नहीं करता है।जिन्हे भगवत भागवत आचार्य केंकर्य करनेकी मिठास नहीं मालूम हैं, वो सर्वदा उपरोक्त वर्णित इतर विषयोंमें और उनमें सुख ढूंड़नेमें लगे हुये रहते हैं।जिनको सच्चे कैंकर्य की कीमत पता है, वो इतर विषयोंकों लवण युक्त जल के समान त्याज्य समझेंगे अथवा अपने जीवन में कोई स्थान भी नहीं देंगे।
मादवनुक्कु आट्चेयले: श्री लक्ष्मी अम्माजी सहित भगवान की सेवा करना यही हमारा उद्देश्य है। श्री द्वय महामन्त्र के उत्तर खंड के प्रथम पद “श्रीमते” में यह वर्णित है। श्री मूलमंत्र (ॐ नमो नारायणाय) में भी तृतीय पद “नारायणाय” से युगल जोड़ी का कैंकर्य करनेका ही भाव है। श्री मूलमंत्र में जो भाव है, वही श्री द्वय मंत्र में वर्णित है। श्री स्वामीजी पिल्लै लोकचार्य ने मुमुक्षुपड़ी ग्रंथ में द्वय प्रकरण में १६८ क्रमाक चूर्णिका में यह विस्तार से समझाया है।इस प्रकार, श्री मूलमंत्र और श्री द्वय महामन्त्र दोनोंमें जीव का एकमात्र उद्देश्य कैंकर्य है यही भाव है। श्री शठकोप स्वामीजी ने भी यह श्री सहस्रगिती (३,१,१) में प्रतिपादित किया है।
इदु उट्रदुवेंड्रू: यह पद का भाव है, “यही जीवन का अन्तिम लक्ष्य है।” “उट्रदु” का अर्थ है वह जो जीवात्मा के लिये सर्वोच्च रूप से उपयुक्त है।इसका अर्थ है, इतर चीजें जीवात्मा के शेषत्व का वर्णन करनेके लिए उपयुक्त/योग्य नहीं हैं।इसलिए वो आत्मा के लिए उचित नहीं हैं।अत: “मादवनुक्कु” और “आट्चेयले” से हम समझते हैं वेदान्त का निर्णय यही है की जीवात्मा श्री लक्ष्मी अम्माजी और श्री भगवान दोनोंका दास है और इन दिव्य दंपति का कैंकर्य करना यही इसका अन्तिम लक्ष्य है और अन्तिम फल भी।इसका दिव्य प्रबंधोमें अनेक जगह पर संदर्भ मिलता है।चूंकि यह जीवात्मा का स्वरूप कैंकर्य बताते हैं, यह जीवात्मा का बड़प्पन भी बताता है। जीवात्मा की सेवा करनेकी क्षमता यही उसका बड़प्पन है।
उळम् तेळिन्दु: “तेळिन्दु” का अर्थ है, संशय भ्रम से रहित होकर कोई एक चीज पर दृढ परिस्थिति करना। यहाँ श्री स्वामीजी का कहना है की जैसे पहले देख चुके हैं, कैंकर्य ही हमारा अन्तिम लक्ष्य है इस बात पर हमारी संशय भ्रम रहित दृढ़ परिस्थिति होनी चाहिये।”में” और “मेरे लिए” यह भाव हमे छोड़ना पड़ेगा, क्योंकि यह भाव हमे भगवान से अनावश्यक चीजें मांगनेपर मजबूर करता है। कैंकर्य उनकी खुशी के लिए किया जाना चाहिए। इस प्रकार मन में स्पष्ट रूप से परिस्थिति करके अन्तिम लक्ष्य समझके कैंकर्य करना चाहिए। इसका संदर्भ द्वय महामंत्र के द्वितीय खंड के “नम:” पद में है। “श्रीमते नारायणाय नम:” का भाव है, जीवात्मा दिव्य दंपति का नित्य कैंकर्य उनके आनंद के लिए ही करेगा, ना की अपनी संतुष्टी के लिए। जब श्री अम्माजी समेत श्री भगवान आनंदित होते हैं, तब उनके मुखारविन्द पर आनंद देखकर जीवात्मा को आनंद होता है।
पेट्र पेरुम् पेट्रीन् मेल् उळदो पेरु एन्ड्रु इरुप्पार्: यह उन लोगोंके लिए है, जिनको कैंकर्य करनेका सुअवसर प्राप्त होता है तो उनको पता चलता अधहै की इस से बढ़कर और कुछ नहीं है।परमपद यह एक शाश्वत धाम है, जो कभी नहीं बदलता, और सदैव शुद्ध सत्त्व में रहनेवाला श्रीमान्नारायण भगवान का दिव्य निवास स्थान है। यह दिव्य ज्ञान और आनन्द का उगमस्थान है।इसलिए, हम यहांपर कोई रुकावट के बिना कैंकर्य कर सकते हैं।ऐसे दिव्य ज्ञान युक्त जीव ऐसे कैंकर्य की इच्छा रखते हैं।तो यह है कि वे इस कैंकर्य से अधिक कुछ नहीं कहना है कि वहाँ कोई आश्चर्य नहीं है. इसका अर्थ है की वो ऐसे उच्च स्तर के कैंकर्य के मिलने के लिए दृढ़ हैं।
अरुम् पेरु वानत्तवर्क्कु: ऐसे जीव अपने आप को स्वरूपत: भगवान के परिचारक मानते हैं।वे सदैव भगवत कैंकर्य में निरत रहते हैं। वो भगवान को ही परम आनंद मानते हैं।ऐसे लोग इस जगत में दुर्लभ हैं। जब वे परमपद में प्रवेश करते हैं, तो वहाँके नित्य, मुक्त जीव ऐसे दुर्लभता से प्राप्त जीव के आगमन का उत्सव मनाते हैं।श्री देवराज मुनी स्वामीजी कहते हैं, उन नित्य मूक्त गण भी (जिनको परमपद का नित्य दिव्य आनंद प्राप्त है) ऐसे कैंकर्यनिष्ठ महात्माओंकी दर्शन, सेवा को भगवान की सेवा से भी उच्च मानते हैं।
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