नाच्चियार् तिरुमोऴि – सरल व्याख्या – दसवां तिरुमोऴि

श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद् वरवरमुनये नमः श्री वानाचल महामुनये नमः

नाच्चियार् तिरुमोऴि

<< नौंवा तिरुमोऴि

प्रारंभ में वह स्वयं को बनाए रखने के लिए कामदेव, पक्षियों और मेघों के चरणों को पकड़ती है। इससे उसका‌ कोई लाभ नहीं हुआ। यद्यपि भगवान नहीं आए, उसने सोचा कि वह भगवान से संबंधित वस्तुओं में उन्हें पहचानकर स्वयं को सृजन कर सकती है। वसंत ऋतु में पुष्पित होने वाले फूल और पक्षियों आदि ने उसे भगवान के दिव्य रूप और अंगों का स्मरण कराते हुए उसे त्रस्त करते थे। इस अवस्था में उसने सोचा – भगवान का वचन और उसका विष्णु चित्त स्वामी के कुल‌ में अवतार‌ लेना ही उसे जीवित रख रहा है। हालांकि भगवान पहले ही वचन दिया था कि वे सबकी रक्षा‌ करेंगे, उनके स्वतंत्र स्वभाव के कारण कोई उन्हें प्रश्न नहीं पूछ सकता। इसलिए उसने विचार किया कि उसका पेरियाऴ्वार् की दिव्य पुत्री होना ही एकमेव मार्ग है स्वयं को सृजन करने के लिए। तब भी, उसे एक अकारण चिंता थी कि “कहीं भगवान मुझे त्याग तो न देंगे?” तब उसने सोचा, “और कुछ भी हो न हो, किंतु पेरियाऴ्वा और मेरे बीच का नाता कभी असत्य नहीं हो सकता। यह उनकी स्वतंत्रता को तोड़कर मुझे उनके दिव्य चरणों में लेने के लिए विवश करेगा।” इस प्रकार वह अपने आप को ढांढस बंधाते हुए टिकाए रखती है। यदि भगवान स्वयं भी कह दें “मैं कभी तुम्हें नहीं छोडूँगा”, इसे सत्य कराने एक आचार्य की आवश्यकता होती है (आचार्य पुरुस्कार की भूमिका निभाते हैं)। जब पराशर भट्टर श्रीदेविमङ्गलम् नाम के स्थान पर रहते थे, वाणवदरैयन् नामक एक राजा ने उनसे प्रश्न किया, “भगवान के होते हुए, सबका आपके प्रति स्नेह का क्या कारण है?” भट्टर ने कृपापूर्वक इसका उत्तर देते हुए कहा, “भगवान को प्राप्त करने में, उनके अनुयाई घटकर (जो एकत्र लाने में सहायक होते हैं) की भूमिका निभाते हैं। मैं कूरेष (कूरत्ताऴ्वान्) का‌ पुत्र हूँ इसलिए ये लोग मेरी ओर स्नेह पूर्वक हैं।” 

पहला पासुरम्। वह पुष्पों को अपनी दुःखद परिस्थिति बताती है।

कार्क्कोडल् पूक्काळ् कार्क्कडल् वण्णन् ऎन् मेल् 
पोर्क्कोलम् सॆय्दु पोर विडुत्तवन् ऎङ्गुट्रान्?
आर्को इनि नाम् पूसल् इडुवदु? अणि तुऴाय्त्
तार्क्कोडुम् नॆञ्जम् तन्नैप् पडैक्क वल्लेन् अन्दो!

हे काले बलिहारी के पुष्प! वह भगवान कृष्ण किधर है, जिसका दिव्य रूप श्यामल वर्ण सागर के समान है और जिसने तुम्हें इस प्रकार उचित रूप से अलंकृत करके मुझ पर आक्रमण करने के लिए ‌भेजा है? वास्तव में, मैं नहीं जानती कि किसके पास जाकर मुझे अपनी दुःखद परिस्थिति व्यक्त करना चाहिए। ऐसी दशा में मेरा हृदय भी उसकी तुलसी माला में आशा रखकर, उसके पीछे दौड़ रहा है। हाय! 

दूसरा पासुरम्। वह कुमुदिनी के पुष्पों से कहती है कि उसे उसकी पीड़ा से शीघ्र मुक्त करा दें। 

मेल् तोन्ऱिप् पूक्काळ्! मेल् उलगङ्गळ् मीदु पोय् 
मेल् तोन्ऱुम् सोदि वेद मुदल्वर् नलम् कैयिल् 
मेल् तोन्ऱुम् आऴियिन् वॆञ्जुडर् पोलच् चुडादु ऎम्मै
माट्रोलैप् पट्टवर् कूट्टत्तु वैत्तुक् कॊळ्गिट्रीरे

ऊंचाई पर पुष्पित हुए, हे कुमुदिनी के पुष्प! वेदों में दर्शाए गए और हम जी रहे इन लोकों से ऊपर परमपदधाम में स्थित परमपुरुष के दाहिने आलौकिक हस्त पर दृष्टिगोचर होने वाले तेजोमय चक्र के जैसे प्रचंड चमक से मुझे प्रज्वलित करने के बदले, क्या आप मुझे कैवल्य निष्ठावान (जो आत्मानंद में व्यस्त हैं) की गोष्ठी (सभा) में ले चलेंगे? कहने का तात्पर्य यह है कि इस प्रकार भगवान से अलग होकर, अत्यंत पीड़ा सहने से अच्छा है कि कैवल्य मोक्ष में [भगवत् स्मरण से मुक्त होकर] स्वयं का अनुभव करना। 

तीसरा पासुरम्। ऊपर की‌ ओर से अपनी दृष्टि को हटाकर, वह अपने आस पास के एक पौधे पर फैले हुए कुंदुरू के फलों को देखती है। पहले दिखे फूलों ने, भगवान के आलौकिक रूप का स्मरण दिलाते हुए अपने रंग से उसे पीड़ित किया। अब ये फल इसे भगवान के दिव्य अधरों का स्मरण दिलाकर पीड़ित करते हैं। 

कोवै मणाट्टि! नी उन् कॊऴुम् कनि कॊण्डु ऎम्मै
आवि तॊलैवियेल् वायऴगर् तम्मै अञ्जुदुम् 
पावियेन् तोन्ऱिप् पाम्बणैयार्क्कुम् तन् पाम्बु पोल्
नावुम् इरण्डुळ आयिट्रु नाणिलियेनुक्के 

हे कुंदुरू, तुम भी एक स्त्री जैसी हो! इस प्रकार तुम्हारे सुंदर फलों को दिखाकर मेरे प्राण न लो। मैं भगवान के संदर्भित सभी विषयों से अत्यंत भयभीत हूँ। मेरे जन्म के पश्चात, मेरे विषय में शेषशाई भगवान दोमुँहे हो ग‌ए हैं, वे निर्लज्ज हो ग‌ए हैं, उसी सर्प की भाँति जिस पर वे शयन कर रहे हैं। 

चौथा पासुरम्। क्योंकि कुंदुरू के फलों ने भगवान के दिव्य अधरों का स्मरण दिलाया, उसने अपनी दृष्टि वहाँ से घुमा ली और कहीं और देखने लगी। वह चमेली के फूलों को निहारती है जो अच्छे से खिल ग‌ए हैं और बताती है कि कैसे उन्होंने उसे प्रताड़ना दी, उस भगवान के चमकीले शुभ्र दाँत पंक्ति का स्मरण दिलाते हुए। 

मुल्लैप् पिराट्टि! नी उन् मुऱुवल्गळ् कॊण्डु ऎम्मै 
अल्लल् विळैवियेल् आऴि नङ्गाय्! उन् अडैक्कलम्
कॊल्लै अरक्कियै मूक्करिन्दिट्ट कुमरनार्
सॊल्लुम् पॊय् आनाल् नानुम् पिऱन्दमै पॊय् अन्ऱे

हे स्त्री के समान सुंदर चमेली की लता! जिसमें गहराई का गुण है (जो अपनी भावनाओं को सुलभ से व्यक्त नहीं करती है)! मुझे पुष्पित होकर भगवान के मोतियों की पंक्ति समान आलौकिक दन्त का स्मरण दिलाकर इस प्रकार उद्विग्न न करो। मैं तुम्हारी शरण में आती हूँ। यदि चक्रवर्ती दशरथ के पुत्र का, जिसने शूर्पणखा राक्षसी की नासिका काटकर उसे भगा दिया, वचन असत्य हुआ, तो पेरियाऴ्वार् की पुत्री के रूप में मेरा जन्म भी असत्य हो जाएगा (जन्म लेने का कोई उपयोग नहीं है)। 

पाँचवां पासुरम्। चमेली के पुष्पों को निहारकर उसने अपने चक्षु बंद कर लिए, जो इसे त्रास दे रहे थे। किंतु उसने अपने कर्ण तो बंद नहीं किए। 

पाडुम् कुयिल्गाळ्! ईदॆन्न पाडल्? नल्ल वेङ्गड 
नाडर् नमक्कु ऒरु वाऴ्वु तन्दाल् वन्दु पाडुमिन्
आडुम् करुळक्कॊडि  उडैयार् वन्दु अरुळ् सॆय्दु
कूडुवर् आयिडिल् कूवि नुमव पाट्टुक्कळ् केट्टुमे 

हे कोयल जो गीत गा रही हैं! यह कोलाहल किस प्रकार की गीत है? यदि भगवान जिनका निवास स्थान विशाल तिरुवेङ्गडम् (तिरुमला तिरुपति/वेंकटाद्री) पहाड़ियाँ हैं, मुझे समृद्ध बनाते हैं, तुम सब यहाँ गा सकती हैं। यदि भगवान जिनका ध्वज नृत्य करने वाला गरुड़ है, यहाँ पधारकर मुझसे आलिंगनबद्ध होते हैं, तब हम आपको यहाँ बुलाएँगे और तुम सब की गीत सुनेंगे। 

छठवां पासुरम्। वह मोरों के चरणों पर गिरती है और कहती हैं कि वे सब देखें किस प्रकार भगवान इसकी रक्षा कर रहे हैं।

कणमा मयिल्गाळ्! कण्णपिरान् तिरुक्कोलम् पोन्ऱु
अणिमा नडम् पयिन्ऱु आडुगिन्ऱीर्क्कु अडि वीऴ्गिन्ऱेन् 
पणमाडु अरवणनैप् पऱ्-पल कालमुम् पळ्ळि कॊळ् 
मणवाळर् नम्मै वैत्त परिसिदु काण्मिने 

हे विशाल मयूर, जो झुंड में हैं! मैं आपके दिव्य चरणों में गिरती हूँ, जो मनोहर उत्कृष्ट नृत्य का अभ्यास करते हैं, और मैं आपकी पूजा करती हूँ क्योंकि आपका रूप कृष्ण के दिव्य रूप के समान है। बंद करो इस नृत्य को। सदा फन फैलाए हुए आदिशेष नाग पर लेटे‌ हुए सुंदर जामातृ (अऴगिय मणवाळन्) भगवान ने एकमात्र महानता मेरे लिए यही रखी है – तुम्हारे चरणों पर गिरना। 

सातवां पासुरम्। वह नाचने वाले मयूरों से पूछती है, “क्या मेरे समक्ष इस प्रकार नृत्य करना उचित है?”

नडमाडित् तोगै विरिक्किन्ऱ मामयिल्गाळ्! उम्मै
नडमाट्टम् काणप् पावियेन् नान् ओर् मुदल् इलेन् 
कुडमाडु कूत्तन् गोविन्दन् कोमिऱै सॆय्दु ऎम्मै 
उडैमाडु कॊण्डान् उङ्गळुक्कु इनि ऒन्ऱु पोदुमे? 

हे महान मोरों, जो अपने पंख पसारे नृत्य कर रहे हैं! मुझ अधम के पास वह दृष्टि नहीं है ‌जिसके माध्यम से तुम्हारा नृत्य देखा जाता है। भगवान गोविन्द ने घड़ों के साथ नृत्य कर मुझे मोहित कर पूर्णतया अपना बंदी बना लिया था। क्या मेरे समक्ष तुम्हारा इस प्रकार नृत्य करना उचित है? 

आठवां पासुरम्। जब सभी तत्त्व उसे संता रहे थे, तब वहाँ मेघ भी उसमें सम्मिलित होकर वर्षा करने लगे। पेरिय तिरुमलै नम्बि (श्री शैलपूर्ण आचार्य, जो रामानुजाचार्य के मातुल के साथ ही उनके पाँच आचार्यों में एक) इस पासुरम् और अगले में बहुत संलग्न होते थे। इस कारण, सभी‌ श्रीवैष्णव इन दो पासुरों में लिप्त हैं। जब भी शैलपूर्ण स्वामी इनका स्मरण करते, फूट-फूटकर विलाप करते और कुछ व्यक्त करने में सक्षम न होते। 

मऴैये! मऴैये! मण्पुऱम् पूसि उळ्ळाय् निन्ऱु
मॆऴुगु ऊट्रीनाऱ् पोल् ऊट्रु नल् वेङ्गडत्तुळ्‌ निन्ऱ 
अऴगप् पिरानार् तम्मै ऎन् नॆञ्जत्तु अगप्पडत्
तऴुव निन्ऱु ऎन्नैत् तदर्त्तिक् कॊण्डु ऊट्रुवुम् वल्लैये? 

हे मेघ! जैसे बाहर लेप लगाकर भीतर मोम पिघल देते हैं, वैसे ही भगवान जो स्थाई रूप से तिरुवेङ्गडम् पहाड़ियों पर निवास करते हैं, वे ऊपर से मेरा आलिंगन कर रहे हैं किंतु भीतर से मुझे पिघलाकर मेरा जीवन नष्ट कर रहे हैं। क्या तुम मुझे भगवान से इस प्रकार संयुक्त कर कि वे मैं उन्हें उसी रूप से आलिंगन करूँ जिस रूप में मेरे अंदर वास कर रहे हैं और विद्यमान हैं, पश्चात वर्षा करोगे? 

नौंवा पासुरम्। इसके बाद जब समुद्र अपने लहरों के साथ गर्जना करते हुए ऊपर उठा, तो वह उसे देखकर बोलती है। 

कडले! कडले! उन्नैक् कडैन्दु कलक्कुऱुत्तु 
उडलुळ् पुगुन्दु निन्ऱु ऊरल् अऱुत्तुवऱ्-कु ऎन्नैयुम् 
उडलुळ् पुगुन्दु निन्ऱु ऊरल् अऱुक्किन्ऱ मायऱ्-कु ऎन् 
नडलैगळ् ऎल्लाम् नागणैक्के सॆन्ऱु उरैत्तिये 

हे समुद्र! भगवान‌ ने तुम्हें मथा, तुम्हें उत्तेजित कर, तुममें प्रवेश करके अमृत सार (श्रीमहालक्ष्मी) चुरा लिया। उसी प्रकार वे भगवान, जो अद्भुत उपकारक हैं, मुझमें प्रवेश कर मेरे प्राणों का हरण कर‌ लिया। क्या तुम जाकर मेरी व्यथा उस तिरुवनंदाऴ्वान् (आदिशेष) को व्यक्त करोगे जो उनकी शैय्या हैं? 

दसवां पासुरम्। वह अपनी सखी से, जो इससे भी अधिक भ्रमित है, सांत्वना भरे शब्द कहकर इस दशक का समापन करती है। 

नल्ल ऎन् तोऴि! नागणै मिसै नम् परर् 
सॆल्वर् पॆरियर् सिऱु मानिडर नामवर सॆय्वदु ऎन्?
विल्लि पुदुवै विट्टुचित्तर् तङ्गळ् देवरै
वल्ल परिसु वरुविप्परेल् अदु काण्डुमे

हे प्रिय सखी! हमारे भगवान जो शेषशय्या पर लेटे हुए हैं, वे श्रीमहालक्ष्मी के नाथ होने के नाते बड़े ऐश्वर्यशाली हैं। वे सबसे महान हैं। दूसरी ओर, हम बहुत ही तुच्छ हैं। जब ऐसी स्थिति हो, तो हम क्या कर सकते हैं? यदि श्रीविल्लिपुत्तूर् के प्रमुख श्री विष्णुचित्त जी से संभव मार्ग से अपने अधीन रहने वाले भगवान को आमंत्रित करते हैं, तो हमें उनकी आराधना करने का सौभाग्य प्राप्त होगा। 

अडियेन् दीपिका रामानुज दासी 

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