श्री: श्रीमते शठकोपाय नम: श्रीमते रामानुजाय नम: श्रीमत् वरवरमुनये नम:
रामानुस नूट्रन्दादि (रामानुज नूत्तन्दादि) – सरल व्याख्या
पाशुर ९१: हालांकि संसारी जन भागीदारी नहीं थे श्रीरंगामृत स्वामीजी यह स्मरण कराते हैं कि कैसे श्रीरामानुज स्वामीजी ने उन्हें इस संसार से ऊपर उठाया और उनकी प्रशंसा किये।
मरुळ् सुरन्दु आगम वादियर् कूऱुम् अवप् पोरुळाम्
इरुळ् सुरन्दु एय्त्त उलगु इरुळ् नीन्गत् तन् ईण्डिय सीर्
अरुळ् सुरन्दु एल्ला उयिर्गट्कुम् नादन् अरन्गन् एन्नुम्
पोरुळ् सुरन्दान् एम् इरामानुसन् मिक्क पुण्णियने
विवेकशून्य शुष्कतर्कानुसारी शैवागमियों से प्रतिपादित शिवपारम्यरूप अपार्थ से मोहित अज्ञानसमावृत, अज्ञान मिटानेवाले, इस भूमंडल में अवतार लेकर, इस परमार्थ को प्रकाशित करते हुए कि, “भगवान श्रीरंगनाथ ही सकल जगत के स्वामी हैं”, परमदयालु श्री रामानुजस्वामीजी परमधार्मिक हैं।
पाशुर ९२: जब यह अहसास हुआ कि श्रीरामानुज स्वामीजी ने उन्हें बिना कोई कारण से स्वीकार कर लिया हैं और उनके आंतरीक और बाह्य इंद्रीयों पर कृपा किये हैं, वें प्रसन्न होकर श्रीरामानुज स्वामीजी से पूछते हैं कि इसका क्या कारण हैं।
पुण्णियनोन्बु पुरिन्दुम् इलेन् अडि पोऱ्ऱि सेय्युम्
नुण् अरुम् केळ्वि नुवन्ऱुम् इलेन् सेम्मै नूल् पुलवर्क्कु
एण् अरुम् कीर्त्ति इरामानुस इन्ऱु नी पुगुन्दु एन्
कण्णुळ्ळुम् नेन्जुळ्ळुम् निन्ऱ इक्कारणम् कट्टुरैये
हे सकलशास्त्रवेत्ता कवियों के भी नापने की अशक्य दिव्य कीर्तिवाले श्रीरामानुज स्वामिन्! मैंने किसी पवित्र व्रतका अनुष्ठान नहीं किया; और आपके पादारविन्दों की स्तुति करने में अपेक्षित सूक्ष्म व श्रेष्ठ अर्थ सुने भी नहीं। तो भी आप मेरे नेत्र व हॄदय में प्रवेश कर जो विराजमान हैं, इसका कारण बता दीजिए। और क्या? आपकी निर्हेतुक कृपा ही इसका कारण हैं।
पाशुर ९३: हालांकि श्रीरामानुज स्वामीजी उन्हें कुछ नहीं कहते हैं परन्तु श्रीरंगामृत स्वामीजी को यह स्पष्ट हो जाता हैं कि जैसे श्रीरामानुज स्वामीजी ने बिना किसी के कहे कुदृष्टि तत्त्वों का नाश किये हैं वैसे ही श्रीरंगामृत स्वामीजी के कहे बिना उनके कर्म अनुसार किया और कहे कि श्रीरामानुज स्वामीजी ने कृपा कर यह किया हैं।
कट्टप् पोरुळै मऱैप्पोरुळ् एन्ऱु कयवर् सोल्लुम्
पेट्टैक् केडुक्कुम् पिरान् अल्लने एन् पेरु विनैयैक्
किट्टिक् किळन्गोडु तन् अरुळ् एन्नुम् ओळ् वाळ् उरुवि
वेट्टिक् कळैन्द इरामानुसन् एन्नुम् मेय्त् तवने
मेरे पास पधारकर अपनी कृपारूपी सुंदर खड्ग को मियान से निकाल कर, उससे मेरे घोर पापों को जड़ से उखाड़ देनेवाले महातपस्वी श्रीरामानुज स्वामीजी ने वेदों के अपार्थ करनेवाले कुदृष्टियों के दुर्वाद दूर किये।
पाशुर ९४: श्रीरंगामृत स्वामीजी कहते हैं हालांकि श्रीरामानुज स्वामीजी बड़ी कृपा से शरणागति से श्रीवैकुण्ठ तक उन सभी को लाभ देंगे, जो उनके शरण हुए हैं, परन्तु श्रीरंगामृत स्वामीजी श्रीरामानुज स्वामीजी के दिव्य गुणों को छोड़ और किसी का भी अनुभव नहीं करना चाहते हैं।
तवम् तरुम् सेल्वुम् तगवुम् तरुम् सरियाप् पिऱविप्
पवम् तरुम् तीविनै पाऱ्ऱीत् तरुम् परन्दामम् एन्नुम्
तिवम् तरुम् तीदिल् इरामानुसन् तन्नैच् चार्न्दवर्गट्कु
उवन्दु अरुन्देन् अवन् सीर् अन्ऱि यान् ओन्ऱुम् उळ् मगिळ्न्दे
किसी प्रकार के दोष से विरहित श्रीरामानुज स्वामीजी अपने आश्रितों को शरणागति नामक तपस्या देते हैं; भक्तिसंपद देते हैं; अपनी कृपा भी देते हैं; मिटाने के अशक्य जन्म परम्परा के हेतु भूत उनके पाप मिटा देते हैं; और परमधाम नामक दिव्यस्थान (श्रीवैकुंठ) भी देते हैं। अतः मैं उनके कल्याणगुणों के सिवा दूसरी किसी वस्तु का सप्रेम अनुभव नहीं करूंगा।
पाशुर ९५: श्रीरामानुज स्वामीजी के ज्ञान, शक्ति, आदि बारें सोचते हुए श्रीरंगामृत स्वामीजी बड़ी करुणा से कहते हैं कि श्रीरामानुज स्वामीजी इस संसार से नहीं हैं बल्कि नित्यसूरी है जिनका इस संसार से कोई सम्बन्ध नहीं हैं, परन्तु इस संसार में अवतार लिया हैं।
उळ् निन्ऱु उयिर्गळुक्कु उऱ्ऱनवे सेय्दु अवर्क्कु उयवे
पण्णुम् परनुम् परिविलनाम्बडि पल् उयिर्क्कुम्
विण्णिन् तलै निन्ऱु वीडु अळिप्पान् एम् इरामानुसन्
मण्णिन् तलत्तु उदित्तु उय्मऱै नालुम् वळर्त्तनने
समस्त आत्माओं को मोक्षप्रदान करने के लिए श्रीवैकुंठ से भूतल पर अवतार लेकर श्री रामानुज स्वामीजी ने इस प्रकार सबके उज्जीवनहेतु चारों वेदों का पोषण किया, जिसे देख कर कहना पड़ता है कि समस्त आत्माओं के अंतर्यामी रह कर, सदा उनके उद्धार के ही प्रयत्न करनेवाले भगवान की कृपा भी (श्री स्वामीजी की कृपा की अपेक्षा) कम है।
पाशुर ९६: श्रीरामानुज स्वामीजी ने कृपा कर वेदान्त के अनुसार दो राह दिखाये हैं एक भक्ति और दूसरी प्रपत्ती। इन दोनों में क्या प्रपत्ती हीं सरल हैं? श्रीरंगामृत स्वामीजी कहते हैं उन्होंने श्रीरामानुज स्वामीजी के स्नेह में शरण ली हैं।
वळरुम् पिणि कोण्ड वल्विनैयाल् मिक्क नल्विनैयिल्
किळरुम् तुणिवु किडैत्तऱियादु मुडैत्तलै ऊन्
तळरुम् अळवुम् तरित्तुम् विळुन्दुम् तनि तिरिवेऱ्कु
उळर् एम् इऱैवर् इरामानुसन् तन्नै उऱ्ऱवरे
अत्यधिक दुःख देनेवाले पापों के निमित्त, शरणागति नामक श्रेष्ठधर्म के आवश्यक दृढविश्वास से विरहित होकर, फलतया दुर्गंध युक्त शरीर छूटने तक नानाविध क्षुद्र सुखदुख भोगते हुए इसी में असहाय पडे रहनेवाले मेरे लिए श्रीरामानुज स्वामीजी के भक्त ही स्वामी होते हैं। श्रीरामानुज स्वामीजी से उपदिष्ट भक्ति या प्रपत्ति में मेरा कोई संबंध नहीं; मैं संसार में ही पडा रहा हूँ ; तथापि मैं उनके पादभक्तों का कृपापात्र हूँ और इसीसे मेरा उद्धार होगा।
पाशुर ९७: क्या कारण हैं कि न केवल श्रीरामानुज स्वामीजी परन्तु उनके शिष्य के भी हम इच्छुक हैं? श्रीरंगामृत स्वामीजी कहते हैं यह केवल श्रीरामानुज स्वामीजी के कृपा के कारण हुआ हैं।
तन्नै उऱ्ऱु आट्चेय्युम् तन्मैयिनोर् मन्नु तामरैत्ताळ्
तन्नै उऱ्ऱु आट्चेय्य एन्नै उऱ्ऱान् इन्ऱु तन् तगवाल्
तन्नै उऱ्ऱार् अन्ऱित् तन्मै उऱ्ऱार् इल्लै एन्ऱु अरिन्दु
तन्नै उऱ्ऱारै इरामानुसन् गुणम् साऱ्ऱिडुमे
“मेरे भक्त तो मिलते हैं, परंतु उन भक्तों के गुणकीर्तन करने के स्वभाववाले मिलते नहीं”; यों विचार करते हुए श्रीरामानुज स्वामीजी ने आज अपनी विशेष कृपा से मुझे, अपना (श्री स्वामीजी का) आश्रय लेकर सेवा करने के स्वभाववाले (अर्थात् अपने भक्तों के) सुंदर उभय पादारविन्दों का सेवक बना दिया। जैसे भगवद्भक्ति की अपेक्षा भगवद्भक्तभक्ति (अथवा आचार्यभक्ति) श्रेष्ठ मानी जाती है, ठीक इसी प्रकार उस आचार्यभक्ति से भी बढ़कर आचार्यभक्तभक्ति श्रेष्ठ है। अब श्रीरामानुज स्वामीजी ने सोचा कि, “सभी लोग मेरे भक्त बनना चाहते हैं; कोई मेरे भक्तों का भक्त बनता नहीं। इस अमुदानार को यह भाग्य दूं ।” अतः उन्होंने परमकृपा से मुझे (अमुदानार को) अपने भक्त श्री कूरेशस्वामीजी का भक्त बना दिया ।
पाशुर ९८: श्रीरंगामृत स्वामीजी अपने दिव्य मन में यह कल्पना करते हैं कि भगवान उन्हें उनके कर्मानुसार स्वर्ग या नरक में भेजेंगे और श्रीरामानुज स्वामीजी से पूछते हैं। श्रीरामानुज स्वामीजी उन्हें यह आश्वासन देते हैं कि भगवान ऐसे नहीं करेंगे जो उनके शरण हुए हैं और उन्हें कहते हैं कि इस बात से परेशान मत होईए।
इडुमे इनिय सुवर्क्कत्तिल् इन्नम् नरगिलिट्टुच्
चुडुमेअवऱ्ऱैत् तोडर् तरु तोल्लै सुज़्हल् पिऱप्पिल्
नडुमे इनि नम् इरामानुसन् नम्मै नम् वसत्ते
विडुमे सरणम् एन्ऱाल् मनमे नैयल् मेवुदऱ्के
हमारे यह अनुसंधान करने के बाद, कि “श्रीरामानुज स्वामीजी ही हमारे लिए गति हैं”, क्या वे हमें (अत्यल्प व नश्वर) सुखदायक स्वर्ग भेजेंगे ? अथवा नरक भेज कर दुःख भुगावेंगे ? अथवा उन स्वर्गनरकों के संबंधित अनादि जन्मचक्र में फ़सावेंगे ? अथवा अपने रास्ते पर छोड़कर उपेक्षा कर देंगे? कुछ नहीं। अतः हे मन। तुम अपने स्वरूपानुरूप पुरुषार्थ पाने के विषय में चिंता मत करो ।श्री रामानुज स्वामीजी की शरण में जाने मात्र से वे हमें स्वर्ग नरक व संसार रूप दुर्गति पाने से रोककर स्वरूपानुरूप सद्गति पहुंचा देंगे। अतः इस विषय में हमें चिंता करने की आवश्यकता नहीं रहती।
पाशुर ९९: क्योंकि हम इस संसार में रहते हैं जहाँ बाह्य और कुदृष्टि जन की संख्या अधिक हैं, क्या यहाँ हमें भूलने कि संभावना अधिक नहीं हैं? श्रीरंगामृत स्वामीजी कहते हैं ,श्रीरामानुज स्वामीजी के अवतार लेने के पश्चात इन जनों ने अपना आजीविका खो दिया।
तऱ्कच् चमणरुम् साक्कियप् पेय्गळुम् ताळ् सडैयोन्
सोल् कऱ्ऱ सोम्बरुम् सूनिय वादरुम् नान्मऱैयुम्
निऱ्कक् कुऱुम्बु सेय् नीसरुम् माण्डनर् नीळ् निलत्ते
पोऱ्कऱ्पगम् एम् इरामानुस मुनि पोन्द पिन्ने
समणास जो बड़ी चालाकी से अपने तत्त्वों को बहस द्वारा आचारण किया, बौद्ध अपने तत्त्वों को चकमा देने के समान पकड़ते थे, शैव में तामस गुण है जिन्होंने शैवागमन सीखे, माध्यामिक जन सून्य सिद्धान्त का पालन करते थे, कुदृष्टि जन जो ऊपर कहे अनुसार नहीं रहते थे, वेदों का पालन करते थे परंतु उसका गलत अर्थ बताते थे ,यह सब , कल्पवृक्ष के समान उदार और हमे यह जन दिखाये ऐसे श्रीरामानुज स्वामीजी जब इस संसार मे अवतार लिए, नष्ट हो गए। (इस विशाल पृथ्वीतल पर श्रेष्ठ कल्पवृक्ष के सदृश परमोदार श्री रामानुज स्वामीजी का अवतार होने के बाद, शुष्कतर्क करने वाले क्षपणक, मूर्ख शाक्य, शैवागम के अभ्यासी राजस शैव, शून्यवादी और वेदों का अपार्थ करनेवाले, ये सभी नष्ट हो गये।)
पाशुर १००: यह देखकर की उनके दिव्य मन श्रीरामानुज स्वामीजी के दिव्य चरण कमलों मे निरत हैं, श्रीरंगामृत स्वामीजी श्रीरामानुज स्वामीजी से कहते हैं कि उन्हें कुछ और दिखाकर भूलना नहीं।
पोन्ददु एन् नेन्जु एन्नुम् पोन्वण्डु उनदु अडिप् पोदिल् ओण् सीर्
आम् तेळि तेन् उण्डु अमर्न्दिड वेण्डिल् निन् पाल् अदुवे
ईन्दिड वेण्डुम् इरामानुस इदु अन्ऱि ओन्ऱुम्
मान्द किल्लादु इनि मऱ्ऱु ओन्ऱु काट्टि मयक्किडले
हे रामानुज स्वामिन! मेरे मनोरूपी सुन्दर भ्रमर ने, आपके पादारविन्दों में मनोहर दिव्यगुणरूपी मधु पाता हुआ वहीं नित्यवास करने के उद्देश्य से उन्हें प्राप्त किया; अतः आप भी उसे उन गुणों को ही प्रदान कीजीएगा; वह दूसरे किसी पदार्थ को नहीं पाएगा; इस कारण से आप दूसरी किसी (सांसारिक) वस्तु बताकर उसे भ्रम में मत डालें।
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अडियेन् केशव् रामानुज दास्
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