तिरुप्पावै – सरल व्यख्या – पाशुर ६ – १५

।।श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमत् वरवरमुनये नमः।।

तिरुप्पावै

<< पाशुर १ से ५

अब पाशुर छः – से पन्द्रह तक, आण्डाळ् नाच्चियार् उन १० ग्वालिनों को जगाती है, जो गोकुल की सारी ५००००० ग्वालिनों का प्रतिनिधित्व करती हुयी बतलाया है।

इन पाशुरों को कुछ इस व्यवस्थित ढंग व  ऐसे भावों से युक्त किया है कि, ऐसे प्रतीत होता है, देवी उन दस भागवतों को जगा रही है, जो वेद में विशेषज्ञ हैं।

छठवां पाशुर:

इस पाशुर में देवी आण्डाळ् कृष्णानुभव में रत नव गोपिका को जगाती है। यह गोपिका स्व-कृष्णानुभव से संतुष्ट है। यह भगवद अनुभव में निष्ठा का प्रथम पड़ाव है। ऐसे ही कोई अन्य भागवतों (भक्तो) के संग भगवद अनुभव करना चाहे तो वह चरमपर्व निष्ठा होती है।

पुळ्ळुम् सिलम्बिन काण् पुळ् अरैयन् कोयिल्
  वेळ्ळै विळिसन्गिन् पेररवम् केट्टिलैयो
पिळ्ळाय् एळुन्दिराय् पेय् मुलै नन्जु उण्डु
  कळ्ळच् चगडम् कलक्कु अळियक् काल् ओच्चि
वेळ्ळत्तु अरविल् तुयिल् अमर्न्द वित्तिनै
  उळ्ळ्ळत्तुक् कोण्डु मुनिवर्गळुम् योगिगळुम्
मेळ्ळ एळुन्दु अरि एन्ऱ पेर् अरवम्
  उळ्ळम् पुगुन्दु कुळिर्न्दु एलोर् एम्बावाय्

इस पाशुर में आण्डाळ् सखी से कह रही है, क्या तुझे पक्षियों की चहचहाहट सुनाई नहीं दे रही है? पक्षीराज गरुड़ के नाथ ,भगवान् (कण्णन्)  के मदिर से आ रही सफ़ेद शंखों के शंखनाद की ध्वनि नहीं सुनायी दे रही है?

हे छोटी सखी (नयी सखी) उठ, भगवान कृष्ण ने माँ बनकर आयी राक्षसी पूतना के स्तनों से लगे विष के साथ साथ उसके प्राण भी पी लिये।

अपने चरण उठाकर धोके से आये दैत्य शकटासुर को भी खंडित कर दिये, वही क्षीरसागर में शेष शैया पर शयन कर रहे है।

वह इस जगत के कारक है।

मुनि जो सदा इनके ध्यान में रहते है, योगी लोग जो प्रातः इनकी सेवा कर इनके ध्यान में रहते है।

वह अपने मन में बसे भगवान को कोई तकलीफ दिये बगैर, प्रातः उठकर हरी हरी नाम का उच्चारण कर रहे, उनके यह शब्द हमारे मन में उतर, हमें सुख प्रदान कर रहे है ।

सातवां पाशुर :

इस पाशुर में आण्डाळ् दूसरी ग्वाल सखी को उठा रही  है।

यह सखी कृष्णानुभव में प्रवीण है, पर आण्डाळ् और उसकी सखियों की आवाज़ सुनने घर के अंदर बैठी है।

कीसु कीसु एन्ऱु एन्गुम् आनैच्चात्तन् कलन्दु
  पेसिन पेच्चरवम् केट्टिलैयो पेय्प्पेण्णे
कासुम् पिरप्पुम् कलकलप्पक् कै पेर्त्तु
  वास नऱुम् कुळल् आय्च्चियर् मत्तिनाल्
ओसै पडुत्त तयिर् अरवम् केट्टिलैयो
  नायगप् पेण्पिळ्ळाय् नारायणन् मूर्ति 
केसवनैप् पाडवुम् नी केट्टे किडत्तियो
  तेसम् उडैयाय् तिऱ एलोर् एम्बावाय्

हे अबोध सखी (कृष्ण भक्ति से सरोवर होते हुये भी उसका भान न करने वाली), क्या तुझे पक्षियों की  चहचहाहट “किसु किसु”  चारों ओर  सुनायी नहीं दे रही?

क्या तुम ग्वालिनों द्वारा दही मंथने की आवाज़ नहीं सुन रही? ग्वालिनों जिनके सुन्दर केशों से भीनी भीनी महक आ रही है, जिनके दही मंथते समय हिल रहे, उनके स्वर्ण और चाँदी के आभूषणों के बजने की मधुर आवाज आ रही है|

हे! ग्वालिनों की नायिका, हम नारायण के अवतार कृष्ण के गीत गा रहे है, क्या तुम ऐसे ही सोये रहेगी?

उठ दरवाजा खोल।

आठवाँ पाशुर :

इस पाशुर में देवी ऐसी सखी को जगा रही है, जिसे कण्णन् (भगवान कृष्ण) बहुत पसंद करते है, और सखी, इसी बात से बहुत गुमान में रहती है।

कीळ् वानम् वेळ्ळेन्ऱु एरुमै सिऱु वीडु
  मेय्वान् परन्दन काण् मिक्कुळ्ळ पिळ्ळैगळुम्
पोवान् पोगिन्ऱारैप् पोगामल् कात्तु उन्नैक्
कूवुवान् वन्दु निन्ऱोम् कोदुकलम् उडैय
पावाय् एळुन्दिराय् पाडिप् पऱै कोण्डु
  मावाय् पिळन्दानै मल्लरै माट्टिय
देवादि देवनैच् चेन्ऱु नाम् सेवित्ताल्
  आवा एन्ऱु आराइन्दु अरुळ् एलोर् एम्बावाय्

हे! कृष्ण की प्यारी सखी, पूर्व दिशा में आकाश में अँधेरा हल्का हो रहा है, बैल जिन्हे थोड़े समय के लिये बाहर चरने के लिये छोड़ें है, वे  इधर उधर घूम रहे हैं । 

स्नान करने के लिये जाती सखियों को रोक कर, हम तेरे द्वार , तुझे साथ ले जाने के लिये,आये हैं , जिससे सभी पर कृपा हो। 

उठ ! हम केसी का मुख फाड़ने वाले, कंस के धनुरोत्सव में मल्लों को मारने वाले, और  जो नित्यसूरियों  के नायक है, उसकी उपासना करेंगे तो ,वह हमारी गल्तियों का ध्यान न कर, हम पर कृपा करेंगे।

नवां  पाशुर:

इस पाशुर में देवि आन्डाल्,  ऐसी ग्वाल सखी को जगाती है, जो यह विश्वास रखती है की, एम्पेरुमान को पाने के लिये एम्पेरुमान ही उपाय है।

वह एम्पेरुमान के साथ सुहावने अनुभव का आनंद लेती है।

यह सखी का विश्वास सीता पिराट्टी जैसा है, जिन्होंने  ने हनुमानजी से कहा था, कि मुझे स्वयं राम ही आकर ले जायेंगे।

तूमणि माडत्तुच् चुऱ्ऱुम् विळक्केरिय
  दूपम् कमळत् तुयिल् अणै मेल् कण् वळरुम्
मामान् मगळे मणिक्कदवम् ताळ् तिऱवाय्
   मामीर् अवळै एळुप्पीरो? उन् मगळ्दान्
ऊमैयो अन्ऱिच् चेविडो अनन्दलो?
  एमप् पेरुन्दुयिल् मन्दिरप्पट्टाळो?
मामायन् मादवन् वैगुन्दन् एन्ऱु एन्ऱु
  नामम् पलवुम् नविन्ऱु एलोर् एम्बावाय्

हे मामा की बेटी, जो इस रत्नों से सुसज्जित, दिव्य दीपकों से जगमगाते, मंद भीनी सुगंध से महकते महल में  आराम से सो रही हो, उठो, इन बड़े रत्नों से सज़े  दरवाजो की कुण्डी खोलो।

हे मामी! अपनी पुत्री को जगाओ ! क्या तुम्हरी पुत्री गूंगी बहरी है, या वह थक गयी है, क्या वह किसी के संरक्षण में है, या देर से सोने के लिये कोई वचन से बंधी है ?

हमने भगवान् नारायण के कई नाम को उच्चारा है , जैसे  मामायन्  (जिनके कृत्य आश्चर्यजनक होते है) , माधवन् (महालक्ष्मी के भर्ता),  वैकुण्ठन् ( श्री वैकुण्ठनाथ)  और कई,. पर वह अब तक उठी नहीं! ।

दसवां पाशुर:

इस पाशुर में देवि आन्डाल् एक ऐसी ग्वाल सखी को जगा रही है, जो कान्हा को प्रिय है, इस सखी को दृढ़ विश्वास है की, भगवान को प्राप्त करने का साधन भगवान् स्वयं ही है ।

इसलिये वह उसीमे दृढ़ता से लगी हुयी है, और उसकी इसी लगन के कारण कान्हा उसे चाहते है ।

नोऱ्ऱुच् चुवर्क्कम् पुगुगिन्ऱ अम्मनाय्
  माऱ्ऱमुम् तारारो वासल् तिऱवादार्
नाऱ्ऱत् तुळाय् मुडि नारायणन् नम्माल्
  पोऱ्ऱप् पऱै तरुम् पुण्णियनाल् पण्डु ओरु नाळ्
कूऱ्ऱत्तिन् वाय् वीळ्न्द कुम्बकरुणनुम्
 तोऱ्ऱुम् उनक्के पेरुम् तुयिल् तान् तन्दानो?
आऱ्ऱ अनन्दल् उडैयाय् अरुम् कलमे
  तेऱ्ऱमाय् वन्दु तिऱ एलोर् एम्बावाय्

हे सखी!  तुमने तो स्वर्ग की अनुभूति प्राप्त करने के लिये तपस्या भी की है ।

द्वार खुला नहीं है, पर फिर भी जो अंदर है वह आवाज़ तो दे सकते है ।

क्या  पहले के समय में   कुम्भकरण ,जो भगवान् के हाथो यमपुरी पहुँच गया ,जिस भगवान् नारायण का हम सदा गुणगान करते है,जो सदा साथ रहकर हमें कैंकर्य प्रदान करते है , वह  तुमसे हारकर अपनी निंदिया तुम्हे दे दी?

हे आराम से निद्रा लेने वाली अनमोलरत्न ,उठो निद्रा त्याग कर किवाड़ खोलो।

ग्यारवां पाशुर:

इस पाशुर में देवि आन्डाल् ऐसी ग्वाल सखी को उठा रही है जिसे, कान्हा की तरह  सारा वृन्दावन चाहता है।

इस पाशुर में वर्णाश्रम धर्म का पालन बतलाया है।

कऱ्ऱुक् कऱवैक् कणन्गळ् पल कऱन्दु
  सेऱ्ऱार् तिऱल् अलियच् चेन्ऱु सेरुच् चेय्युम्
कुऱ्ऱम् ओन्ऱु इल्लाद कोवलर् तम् पोऱ्कोडिये
  पुऱ्ऱरवु अल्गुल् पुनमयिले पोदराय्
सुऱ्ऱत्तुत् तोळिमार् एल्लारुम् वन्दु निन्
  मुऱ्ऱम् पुगुन्दु मुगिल् वण्णन् पेर् पाड
सिऱ्ऱादे पेसादे सेल्वप् पेण्डाट्टि नी
  एऱ्ऱुक्कु उऱन्गुम् पोरुळ् एलोर् एम्बावाय्

हे! स्वर्णलता सी सखी, तुम जनम लेने वाली कुल के  ग्वालें   गायें दुहते हैं , शत्रुओं के गढ़ में जाकर उनका नाश करते हैं| तुम जिसकी कमर बिल में रह रहे सर्प के फन की तरह है और  अपने निवास में मोर की तरह है,अब तो बाहर  आओ|

हम सब तुम्हारी सखियाँ, जो तुम्हारी  रिश्तेदारों की तरह है , सभी तुम्हारे आँगन में खड़े, मन मोहन मेघश्याम वर्ण वाले भगवान् कृष्ण के दिव्य नामों का गुणगान कर  रहें हैं । तुम क्यों अब तक  बिना  हिले डुले, बिना कुछ बोले निद्रा ले रही हो?

द्वादश पाशुर :

इस पाशुर में आण्डाल एक ऐसी सखी को जगा रही है, जिसका भाई कण्णन् (भगवान् कृष्ण) का ख़ास सखा है, जो वर्णाश्रम धर्म का पालन नहीं करता।

जब पूर्ण निष्ठा और श्रद्धा से भगवान का कैंकर्य करते है, तब वर्णाश्रम धर्म के पालन का महत्व नहीं रहता।

पर जब कैंकर्य समाप्त कर लौकिक कार्य में लग जाता है, तब वर्णाश्रम धर्म का पालन महत्वपूर्ण हो जाता है।

कनैत्तु इळन्गऱ्ऱु एरुमै कन्ऱुक्कु इरन्गि
  निनैत्तु मुलै वळिये निन्ऱु पाल् सोर
ननैत्तु इल्लम् सेऱाक्कुम् नऱ्चेल्वन् तन्गाय्
  पनित्तलै वीळ निन् वासल् कडै पऱ्ऱि
सिनत्तिनाल् तेन् इलन्गैक् कोमानैच् चेऱ्ऱ
  मनत्तुक्कु इनियानैप् पाडवुम् नी वाय् तिऱवाय्
इनित्तान् एळुन्दिराय् ईदु एन्न पेर् उऱक्कम्
  अनैत्तु इल्लत्तारुम् अऱिन्दु एलोर् एम्बावाय्

भैंसे जिनके छोटे छोटे बछड़े है, अपने बछड़ों के लिये, उनके बारे में सोंचते हुये अपने थनो में दूध अधिक मात्रा में छोड़ रही है, उनके थनो से बहते दूध से सारा घर आँगन में कीचड़ सा हो गया।

हे ! ऐसे घर में रहने वाली, भगवान् कृष्ण के कैंकर्य धन से धनि ग्वाल की बहन, हम तेरे घर के प्रवेश द्वार पर खड़ी है, ओस की बुँदे हमारे सर पर गिर रही है।

हम भगवान राम,  जिन्होंने  सुन्दर लंका के अधिपति रावण पर क्रोध कर उसे मार दिया, जिनका नाम आनन्ददायक है,उनका  गुण गा रहे हैं ।

हे! सखी ! कुछ बोल नहीं रही हो, कितनी लम्बी निद्रा है तुम्हारी, अब तो उठो,  तिरुवाय्प्पाडि  (गोकुल} के सभी वासी तुम्हारी निद्रा के बारे में जान गये है।

तेरहवां पाशुर:

इस पाशुर में आण्डाल उस सखी को जगा रही है, जो स्वयं एकांत में अपने नेत्रों की सुंदरता का बखान करती है।

नेत्र ज्ञान के परिचायक है, इसलिये ऐसे भी कह सकते है की यह सखी एम्पेरुमान (भगवान्) के बारे पूर्ण ज्ञान रखती है।

भगवान् कृष्ण को अरविन्दलोचनन् (कमल सी अँखियों   वाले) नाम से भी सम्बोधित करते है।

सखी स्वयं की अँखियों  की तुलना भगवान कृष्ण के नेत्र से करती हुयी, विश्वास करती है कि  स्वयं कृष्ण उसे ढूंढते हुए यहाँ आयेंगे।        

पुळ्ळिन् वाय् कीण्डानैप् पोल्ला अरक्कनै
  किळ्ळिक् कळैन्दानैक् कीर्त्तिमै पाडिप्पोय्
पिळ्ळैगळ् एल्लारुम् पावैक्कळम् पुक्कार्
  वेळ्ळि एळुन्दु वियाळम् उऱन्गिऱ्ऱु
पुळ्ळुम् सिलम्बिन काण् पोदरिक्कण्णिनाय्
  कुळ्ळक् कुळिरक् कुडैन्दु नीरडादे
पळ्ळिक् किडत्तियो? पावाय् नी नन्नाळाल्
  कळ्ळम् तविर्न्दु कलन्दु एलोर् एम्बावाय्

व्रत धारिणी सभी सखियाँ, व्रत के लिये निश्चित स्थान पर पहुँच गयी है।

सभी सखियाँ सारस के स्वरुप में आये बकासुर का वध करने वाले भगवान कृष्ण और सभी को कष्ट देने वाले रावण का नाश करने वाले भगवान् श्रीरामजी का गुणानुवाद कर रही है।

आकाश मंडल में शुक्र ग्रह उदित हुये है, और बृहस्पति अस्त हो गये है। पंछी सब विभिन्न दिशाओं में दाना चुगने निकल गये।

हे! बिल्ली और हरिणी जैसे आँखों वाली, प्राकृतिक स्त्रीत्व की धनी!  क्या आज के इस शुभ  दिवस पर भी, हमारे साथ शीतल जल में स्नान न कर, हमारे साथ भगवद गुणानुवाद न कर, अकेली  अपनी शैया पर भ्रम में भगवान् सुख भोगती रहोगी ?

चौदहवाँ पाशुर

इस पाशुर में देवी उस सखी को जगा रही है, जिसने सभी सखियों को इस व्रत अनुष्ठान के लिये जगाने की जिम्मेदारी ली थी, पर स्वयं अभी अपने घर में निद्रा ले रही है।

उन्गळ् पुळैक्कडैत् तोट्टत्तु वावियुळ्
  सेन्गळुनीर् वाय् नेगिळ्न्दु आम्बल् वाय् कूम्बिन काण्
सेन्गल् पोडिक्कूऱै वेण् पल् तवत्तवर्
  तन्गळ् तिरुक्कोयिल् सन्गिडुवान् पोदन्दार्
एन्गळै मुन्नम् एळुप्पुवान् वाय् पेसुम्
  नन्गाय् एळुन्दिराय् नाणादाय् नावुडैयाय्
सन्गोडु चक्करम् एन्दुम् तडक्कैयन्
  पन्गयक् कण्णानैप् पाडु एलोर् एम्बावाय्

ओह ! वह जो सभी प्रकार से पूर्ण है, वह जिसने प्रातः सभी को निद्रा से जगाने की जिम्मेदारी ली है,वह जो निसंकोच है, वह जो सुन्दर बातें बतियाती है।

अपने घर के पिछवाड़े के तालाब में प्रातः की सुचना देते नीलकमल मुरझा गये है, लाल कमल दल खिल रहे है, सन्यासी काषाय वस्त्र धारण किये, जिनके मुख की धवल दन्त पंक्ति दृष्टिगोचर हो रही है, मंदिर की तरफ प्रस्थान कर रहे है, मंदिर के किवाड़ खुलने के प्रतिक में शंखनाद कर रहे है।

उठो ! कमलनयन सा नेत्रों में मंद लालिमा लिये, अपने दोनों दिव्य हस्तों में दिव्य शंख  चक्र धारण किये भगवान् के गुणानुवाद करो ।

पन्द्रहवाँ पाशुर

इस पाशुर में देवी आण्डाल ऐसी सखी को जगा रही है, जो आण्डाल और उनकी सखियों को आते हुये निहारने के लिये उत्सुक है।

एल्ले इळम् किळिये इन्नम् उऱन्गुदियो
  चिल्लेन्ऱु अळियेन्मिन् नन्गैमीर् पोदर्गिन्ऱेन्
वल्लै उन् कट्टुरैगळ् पण्डे उन् वाय् अऱिदुम्
  वल्लीर्गळ् नीन्गळे नानेदान् आयिडुग
ओल्लै नी पोदाय् उनक्कु एन्न वेऱु उडैयै
  एल्लारुम् पोन्दारो पोन्दार् पोन्दु एण्णिक्कोळ्
वल् आनै कोन्ऱानै माऱ्ऱारै माऱ्ऱु अळिक्क
  वल्लानै मायनैप् पाडु एलोर् एम्बावाय्

(इस पाशुर का अर्थ, देवी अपनी सखियों के संग जगाने आयी एक सखी के द्वार पर खड़ी,  बाहर खड़ी सखियों और भीतर की सखी के मध्य वार्तालाप के अनुरूप दिया है।)

 बाहर खड़ी सखी : हे ! युवा तोते जैसी नवयौवना, मधुर वार्तालाप वाली, हम सब तेरे द्वार पर खड़ी हैं, और तुम निद्रा ले रही हो ?

अन्दर की सखी : हे! भगवद प्रेम में परिपूर्ण सखियों, इतने क्रोध में न बोलो, मैं  अभी आ रही हूँ ।

 बाहर  खड़ी सखी : तुम वार्ता में बहुत चतुर हो, हम सब हम आपके अशिष्ट शब्दों के साथ-साथ आपके मुंह को भी  बहुत पहले से जानते हैं।

अन्दर की सखी: तुम सब भी बहुत होशियार हो,  मैं जो  भी करती  हूं वह गलत होने दो, अब मुझे क्या करना है कहो ?

 बाहर खड़ी सखी:  जल्दी उठो , क्या तुम्हे नहीं उठने में कुछ विशेष लाभ है.?

अन्दर की सखी: क्या वो सब आ गए हैं, जिन्हें आना चाहिए था या  कोई और आना बाकी  है ?

बाहर खड़ी सखी: सभी आ गये है , तुम  बाहर  आकर गिन सकती हो।

अन्दर की सखी: बाहर आकर क्या करूँ ?

बाहर  खड़ी सखी: कुवलयापीड़ हाथी को मारनेवाले, अपने शत्रुओं का बल हरने वाले, अद्भुत गतिविधियां करने वाले भगवान् कृष्ण के गुणानुवाद करेंगे।

अडियेन श्याम सुन्दर रामानुज दास

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